10 जून, 2016

.....लोग !!!





तमाम उम्र सोचती रही 
कहना है लोगों के बीच अपना सच  ... 
लोग !
लोग !
लोग !
उम्र अब लगभग एक पड़ाव पर है 
और लोग !!! 

लोग नहीं बदले  ... 
मेरी सोच बदल गई -
वे सच जानकर करेंगे क्या !
उन्हें तो सच पहले भी मालूम था 
बस उसे वे मानना नहीं चाहते थे 
गर्म खौलते तेल में पड़ जाए हाथ 
उनकी चाह रही 
जाने क्या संतुष्टि थी !
अब मैं सोचती हूँ 
सच तो जो था 
वो अपनी जगह भयावह था 
लेकिन लोग !!! 
उनसे अधिक नहीं  ... 

8 टिप्‍पणियां:

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  3. लोग नहीं बदले..
    सोच भी नहीं बदली
    बदला है तो सिर्फ
    समय..
    सादर

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  4. बहुत सुन्दर ।
    लोग अपने अपने
    सचों में उलझे हुऐ
    उधेड़ते हैं किसी के
    बुने हुए सच को
    बिखेरना समय को
    ज्यादा आसान होता है ।

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  5. बहुत सुन्दर और सही कहा

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  6. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (12-06-2016) को "चुनना नहीं आता" (चर्चा अंक-2371) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  7. सच समय एक जैसा कभी नहीं रहता .. और इंसान में कहाँ एक जैसा रह पाता है।

    बहुत सुन्दर

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  8. बेहतरीन रचना , हमेशा की तरह बधाई

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दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...