पापा
आज मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना है !
कहना है,
कि जब मैं हुआ
और तुम मुझे अपनी गोद में लेकर
इधर उधर घूमते थे
तो दुनिया अपनी मुट्ठी में लगती थी !
सबकी उपस्थिति में
मुझ अबोले को
रहता था इंतज़ार
तुम्हारे आने का।
कॉल बेल बजते
मेरे दिल में भी कुछ बजता था
तुम्हारी पुकार पर
मेरी मटकती आँखें बोलतीं
पापाआआ ...
सोचो पापा
मैं कितना समझदार था !
...
घुटनों के बल चलकर
जब मैं तुम्हारी ओर तेजी से आने लगा
तुम विजयी मुस्कान से सबको देखते
मैं तुम्हारी उस मुस्कान पर
फ़िदा था
तुम्हारी हर जीत
मेरी जीत होती
सोचो पापा
मैं कितना समझदार था !
...
धीरे धीरे मैं चलने लगा
सीखने लगा
कुछ शब्द
कुछ अच्छी आदतें
लेकिन
तुम्हारी जीत की परिभाषा बदलने लगी
तुम चाहने लगे
मैं सबसे ज्यादा शब्द बोलूँ
सबसे पहले बोलूँ
किसी भी अजनबी के आते
उसे प्रणाम करूँ
सलीके से बैठूँ
ताकि तुम्हारी तारीफ़ हो ... !
मैं धीरे धीरे बड़ा होना चाहता था
और तुम ...
जाने कैसा बड़ा मुझे बनाना चाहते गए
कितना कुछ सिखाते गए
और पापा
तब मैं ऊब गया
मेरी जिह्वा से
स्वाद खत्म हो गया
मेरी चुप्पी
मेरी ज़िद्दी दोस्त बन गई
आक्रोश दिखाते हुए तुम भूल गए
कि अपनी उम्र के अनुसार
मैं वह नहीं सीख सकता
जो मेरी कल्पना को
दूसरी दिशा दे दे ...
पापा
कल्पनाएँ अपनी होती हैं
उसकी कहानियाँ होती हैं
उन्हें किसी और पर थोपा नहीं जाता
खासकर किसी बच्चे पर !!
अब मैं रात दिन यही सोचता हूँ
कि तुम
हाँ पापा तुम -
कितने ज़िद्दी हो
तुम समझना ही नहीं चाहते
कि
इतना आसान नहीं होता सिखाना
गुस्से से तो बिल्कुल नहीं ...
सिखाने के लिए
धैर्य का होना ज़रूरी होता है
साथ साथ करना होता है
बच्चे को उठाने के लिए
झुकना होता है
उसकी पसंद नापसंद को
जानने और समझने के लिए
उसे वक़्त देना होता है
...
अगर तुम मुझसे दुखी हो
तो मैं भी तुमसे दुखी हूँ
इस बात को
पापा तुम समझते क्यूँ नहीं ?