इमरोज़ कहते हैं,
अमृता मेरी पीठ पर साहिर का नाम लिखती थी
तो क्या हुआ !
इस सुलगते प्रश्न का जवाब इमरोज़ के पास ही है
...
सीधी सी बात है,
सत्य कड़वा होता है
और इस कड़वे सत्य को कहकर
इमरोज़ इमरोज़ नहीं रह जाते !
==================================================
"अमृता को साहिर लुधियानवी से बेपनाह मोहब्बत थी. अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' में वो लिखती हैं कि किस तरह साहिर लाहौर में उनके घर आया करते थे और एक के बाद एक सिगरेट पिया करते थे. साहिर के जाने के बाद वो उनकी सिगरेट की बटों को दोबारा पिया करती थीं.
इस तरह उन्हें सिगरेट पीने की लत लगी. अमृता साहिर को ताउम्र नहीं भुला पाईं और इमरोज़ को भी इसका अंदाज़ा था. अमृता और इमरोज़ की दोस्त उमा त्रिलोक कहती हैं कि ये कोई अजीब बात नहीं थी. दोनों इस बारे में काफ़ी सहज थे"
ऐसे प्रेम को अमृता भूल गईं, यूँ कहें - बाँट दिया।
और इमरोज़ ने खुद को तिरोहित कर लिया, अमृतामय हो गए, ऐसा व्यक्ति तपस्वी कहा जाता है।
एक पुरुष अपनी पत्नी की मर्ज़ी नहीं समझता, इमरोज़ ने अमृता की मर्ज़ी में अपनी मर्ज़ी को खत्म कर दिया।
प्रश्न है -
क्या अमृता साहिर से दूर होकर भी साहिर की होकर नहीं रह सकती थीं ?
लोग कहते हैं कि साहिर की ज़िन्दगी में सुधा मल्होत्रा आ गई थीं,
तो क्या हुआ ? साहिर ने उनकी पीठ पर अमृता का नाम तो नहीं लिखा।
======================================================
लोग सिर्फ वही देखते हैं, जो उन्हें दिखाया जाता है, पढ़ाया जाता है - पढ़ने और देखने के बाद एक अपना दृष्टिकोण भी होता है, किसी भी बात को हर कोण से देखने की और समझने की !
खुद को वक़्त देकर दृष्टि को हर कोण पर ले जाना होता है !
कोई मुकदमा भी वर्षों चलता है, यहाँ तो एक वह शख्स है, जो समाधिस्थ है, उम्र के बासंती मोड़ से।
उसने एक नाम लिया अमृता और निकल पड़ा इस भाव के साथ कि
"ना घर मेरा ना घर तेरा, चिड़िया रैन बसेरा !"
================================================
===============================================
जिस दिन हौज ख़ास का घर बिक रहा था, जाने कितनी डूबती उतराती स्थिति में इमरोज़ ने मुझे फोन किया था,
"रश्मि, हौज ख़ास का घर बिक रहा है"
क्या ?
हाँ, बाद में बात करता हूँ
मेरी हिचकियाँ बंध गई थीं
.... इमरोज़ किसी खानाबदोश से कम नहीं लगे,
पर अमृता ने कहा था, तुम सबकुछ संभालना" ... और वे बिना उफ़ किये सँभालते गए। अमृता की सेवा की, उनके बेटे की चुप्पी के आगे भी खाना लेकर खड़े रहे।
ना मुमकिन नहीं इमरोज़ होना ...
साहिर हुआ जा सकता है
अमृता हुआ जा सकता है
गीत और उपन्यास लिखे जा सकते हैं
लेकिन बिना कलम उठाये जो गीत इमरोज़ ने गुनगुनाया, जो पन्ने इमरोज़ ने लिखे - वह नामुमकिन है !
================================================
मेरे कहने पर इमरोज़ ने मेसेज करना सीखा, नियम से फोन करते रहे, मेरे घर आए ... मैं क्या हूँ ! लेकिन इमरोज़ का आना, मुझे "कुछ" बना गया। जब डाकिया उनका लिफाफा लेकर आता है, तो उसे खोलकर मैं 90 के करीब पहुँचे इमरोज़ को देखती हूँ, - लिफाफे पर मेरा नाम, मेरा पता लिखते हुए , ...
2010 में जब मैं उनसे पहली बार मिली थी तो बुक फेयर में मेरे साथ गए इमरोज़, अपनी एक किताब स्टॉल से लेकर मुझे दी, अचानक रूककर कहा, "तुम बिल्कुल अमृता हो" ... मैं मुस्कुराई थी, ... लेकिन मैं अमृता होना नहीं चाहती, मैं रश्मि हूँ,वही रहना चाहती हूँ, जो इमरोज़ के खुदा होने पर यकीन करती है।
इमरोज़ ! जीवन की, प्रेम की, त्याग की अग्नि में जलकर कुंदन होते रहे, जलते हुए कैसा लगा, कभी नहीं बताया, निखरकर सामने खड़े होते रहे, राख को जाने कहाँ, कैसे छुपा दिया !
लेकिन मैंने देखा है उस राख को - उनकी स्निग्ध मुस्कान में, उनकी बातों में, उनके चलने में, उनके अनुत्तरित चेहरे में।
उस वक़्त की पोटली के गुच्छों में बंधे कई नाम हैं, लेकिन जो चमकता है, वह है इमरोज़ !
मेरे लिए, मेरे मन में, मेरी ज़ुबान पर - सिर्फ इमरोज़ !!!