आजकल
हर जगह
बहुत हाईफाई सोसाइटी है
कोई किराये पर है
कुछ के अपने
अतिरिक्त घर हैं
सुविधाओं का अंबार है
भीड़ बेशुमार है
कोई किसी से नहीं मिलता
कभी हो लिए रूबरू
तो सवाल होता है
कहाँ से हो ?
जाति ?
अपना घर लिया है या ...?
मेरा तो अपना है !
बाई है ?
क्या लेती है ?
कौन कौन से काम करती है ?
.....
अब नहीं कहता कोई
कि मेरे घर आना !
अगर फिर भी
कोई आ गया
तो चेहरे पर खुशी नहीं झलकती
और दूसरे के माध्यम से सुना देते हैं लोग
सेंस नाम की चीज ही नहीं है
कभी भी चले आते हैं ...
अब तो भईया
पार्क जाओ
जिम जाओ
स्विमिंग सीख लो
औरों को फिट रहना सिखाओ
और ....
मन ही मन बुदबुदाती हूँ
बातें करती हूँ अपनेआप से
जब शरीर जवाब दे जाए
अकेलापन कॉल बेल बजाने लगे
सेंसलेस
... कभी भी
तब सुविधाओं के कचरों की ढेर से
जमीनी सोच के साथ
बाहर आना
क्या पता कोई अपने स्वभाववश
तुम्हारे साथ हो ले
अकेलेपन को सहयात्री मिल जाए ....!
मेरे घर आना। स्वागत है।
जवाब देंहटाएंअकेलापन कॉलबेल बजाने लगे ... बहुत ही सच्ची बात हमेशा की तरह सशक्त लेखन ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता
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