जब मेरे वजूद में
वसुधैवकुटुम्बकम की भावना थी
सबके लिए अपनी थाली से
बराबर बराबर कौर निकालती थी
एक तिनके से सत्य को भी
खुलकर बताती थी,
सब मौन थे !
उनके मेरे मध्य
खाई जैसा फर्क है ...
यह उन्होंने आँखों से समझाया ।
मैं मूर्ख,
समझते हुए भी
बराबर बराबर कौर निकालती रही,
नारायण स्तब्ध !!
उन्होंने मेरे आगे से
मेरी थाली खींच ली,
दिल-दिमाग में,
सम्पूर्ण रक्त कोशिकाओं में
उन्होंने तांडव किया,
मेरी बेमानी सहजता के
कई मंच तोड़ दिए
...
पाँव स्थिर करने में
वक़्त लगा,
धरती का मजबूत कोना
स्वयं नारायण ही रहे,
लेकिन मौन, बंजर सा रूप लिए ।
साथ तो हम पहले भी थे
अब ज्ञात है ।
संसार अर्थात नारायण
नारायण अर्थात मोक्ष ...
मोक्ष,
प्रेमहीन नहीं
मोह से मुक्त
रोटी के उतने ही टुकड़े करो,
जितने भूखे हैं,
जो तृप्त हैं,
और और की रट में हैं
उनको कौर बढ़ाना
अन्न का अपमान है
जो अपने अपमान से ऊपर है ।
कोशिश
और अति में अंतर होता है
और वही तूफ़ान लाता है
तूफ़ान को दोष देने से पूर्व
अति का विश्लेषण ज़रूरी है ।
वाह रोटी के बहाने बहुत कुछ समझा दिया।
जवाब देंहटाएंसही कहा दी सुन्दर अभिव्यक्ति , कोमल संवेदनाएं
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंVery Nice.....
जवाब देंहटाएंबहुत प्रशंसनीय प्रस्तुति.....
मेरे ब्लाॅग की नई प्रस्तुति पर आपके विचारों का स्वागत