28 मार्च, 2008

भैंस.......

कई बार, कविता सुनाते वक्त
बस होठ चलते हैं
और-मस्तिष्क में मुहावरे
'भैंस के आगे बीन बजाओ
भैंस खड़ी पगुराए'...................................................
फिर कविता ख़त्म!
कविता को छुपाकर कई बार पढ़ती हूँ,
जानने की कोशिशें चलती हैं-
क्या था,
जो समझदारों को
भैंस बना गई!!!!!!!!!!!!!!!!!

27 मार्च, 2008

रहस्यमयी.....



उम्र कोई हो,
एक लड़की-
१६ वर्ष की,
मन के अन्दर सिमटी रहती है...
पुरवा का हाथ पकड़
दौड़ती है खुले बालों मे
नंगे पाँव....
रिमझिम बारिश मे !
अबाध गति से हँसती है
कजरारी आंखो से,
इधर उधर देखती है...
क्या खोया? - इससे परे
शकुंतला बन
फूलों से श्रृंगार करती है
" बेटी सज़ा-ए-आफ़ता पत्नी" बनती होगी
पर यह,
सिर्फ़ सुरीला तान होती है!
यातना-गृह मे डालो
या अपनी मर्ज़ी का मुकदमा चलाओ ,
वक्त निकाल ,
यह कवि की प्रेरणा बन जाती है ,
दुर्गा रूप से निकल कर
" छुई-मुई " बन जाती है- यह लड़की!
मौत को चकमा तक दे जाती है....
तभी तो
"रहस्यमयी " कही जाती है...!

25 मार्च, 2008

या ...


रोज़ देखा करती हूँ सामने

घर बनाने का काम...

ईंट-गारे,पत्थरों की भरमार

कई रोज़गार मजदूर...

सपने को पूरा करने में ,अपना योगदान

पूरे मनोभाव से दे रहे हैं.......


'अपना घर'

एक सुकून होता है,

बरगद की घनी छांव-सा लगता है,

नई ज़िंदगी का आरंभ लगता है!


नन्हें पैरों के निशाँ,

बुजुर्गों की हिदायतें

आँगन,दीवारों में गुंजायमान होती हैं!


रफ्ता-रफ्ता

रिश्ते बदल जाते हैं,

व्यवस्था बदल जाती है,

मन की इमारत खंडहर में तब्दील हो जाती है!

आंखों की रौशनी कम

आवाज़ धीमी पड़ जाती है ,

बुद्धि बेवकूफी में बदल जाती है........


'घर' एक इत्तेफाक है

या.......सुकून?

या, पूरी ज़िंदगी बेमानी?

या,

एक सिलसिला खंडहर का???????????????

13 मार्च, 2008

अजीब बात!


कितनी अजीब बात है!
नारी की जीत,उसकी पूरी मनोदशा-
पुरुष की फाइल में बंद होती है!
एक कैरेक्टर सर्टिफिकेट के लिए,
वह घर-बाहर का संतुलन बनाये रखती है....
प्रतिभा से अधिक 'स्त्री-धर्म' मायने रखता है.....
'स्त्री-धर्म'!
तब होती है उसपर 'इनायते करम'
और वह 'धन्य'होती है....
जगह जो तुम्हे दिखाई देती है
कभी उसके पीछे का नज़ारा देखा है?
भावनाओं की अनगिनत लाशें,
ओह!इस सच को कैसे समझ पाओगे-
इक इमरोज़ के लिए ,
जाने कई बार
कितनी ज़िन्दगी
तोहमतों की राह पर
रो-रो के दम तोड़ती हैं!!!!!!!!!!!!

मॉल लाइफ ..........(यह कोई कविता नहीं है)


मॉल , यानी.....शोखियों में घोला जाये,फूलों का शबाब,
उसमें फिर मिलाई जाये-थोड़ी सी शराब..........
दुनिया कहाँ- से- कहाँ आ गई!मॉल जाने का नशा -सा हो चला है,
लेबल लगे कपड़े, एक ही प्रिंट के,डब्बा बंद खाना,कटी सब्जियां ,आधी सिंकी रोटी...
किसी भी दिन जाओ,भीड़-ही-भीड़!
फर्श इतना चिकना की बेबी स्टेप्स लेने को बाध्य ....अरे कुछ कुर्सियाँ ही रख दो आराम के लिए!
..........
आम आदमी कई कपड़ों को घूरता है,'इसे कौन पहनेगा?'-जैसे भाव लिए!
पिज़्ज़ा,बर्गर,फ्रेंच फ्राईज़ का स्टाइल है...बर्गर क्या है?डबल रोटी,बीच में हरी पत्ती...मछली के चोखे की टिकिया...फ्रेंच फ्राईज़ उबले आलू का कुरकुरा भुजिया...मॉल स्टाइल ,नाम 'मैकडी'...
नन्हें कपड़े में बच्चे स्टाइल में दौड़ते हैं,मैकडोनाल्ड्स में बैठ कर कुछ इस तरह गोल चेहरा बना कर देखते हैं कि अपने पिछडेपन का एहसास होता है...
और लडकियां!नाभिदर्शना जींस में,हाफ टॉप के साथ "बला" ही नज़र आती हैं...
लड़कों से यूँ चिपक कर चलती हैं कि हवा बेचारी ही कहती है "ज़रा मुझे आने दे"...
अंग्रेजी की किताब और मोबाइल पर अंग्रेजी धुन या फिर मॉल की सीढियों पर कान में तार लगाये आईपॉड से गाने सुनना ...भाई मुझ गंवार को तो एक ही गीत याद आता है -
"जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं?
कहाँ हैं?कहाँ हैं?कहाँ हैं?"

12 मार्च, 2008

किससे कहें!!!


आवाजें कुछ अजीब - सी आती हैं,
सुनने की बजाय,
पकड़ने की कोशिश करती हूँ........
जाने क्यूँ!
शीशे की किरचों पर पाँव पड़ जाते हैं
और खून रिसते हैं....पाँव से नहीं
- दिल से!
दिल की बात तो कोई सुनता नहीं
तो-क्या कहें?
किससे कहें!!!

10 मार्च, 2008

निशान


निशाँ अपने कदमो के छोड़ जाऊंगा,
शहीदों का जज्बा बता जाऊंगा,
तुमने जाना नहीं हमको,
नहीं है गिला...
इन लहरों पे चलना सिखा जाऊंगा....
इन लहरों मे होती कहानी कई है
कोई कितना भी चाहे ये मिटती नहीं है..
निशाँ होते हैं वो हमारे लिए ही,
हम भी देंगे निशाँ अब तुम्हारे लिए...

08 मार्च, 2008

अर्थ .......


अगर ये सच है ,
तो कहने की ज़रूरत क्यों?
"बेटा-बेटी एक समान", (समानता दिखती है......)!
"बेटी के होने से मुझे फर्क नहीं पड़ता"
(पूछा किसने?)....
समानता की बात व्यर्थ है,
हर ओहदे पर आ जाने से क्या?
लड़के की शिक्षा आगे या बराबर की होनी चाहिए
आय लड़के की अधिक हो............
वरना इगो !-लड़के का आहत होता है
लड़की का इगो मान्य नहीं .........
;महिला-दिवस' मनाएँ ,
लड़की को बराबर का दर्जा नहीं-सम्मान दें
वह घर की शोभा है
बस इसे अर्थ दें...............

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...