24 अप्रैल, 2009

कुछ हुआ है !




चाँद झील में उतर
नर्म दूबों पर चलने को आतुर है....
सितारे गलीचों की शक्ल ले
मचल रहे हैं....
ख़्वाबों के मेले ने
गुल खिलाये हैं
कोई गुनगुना रहा है.....................
सुना था,
अम्बर पे अनहोनी
नज़र आती है
आज देखा और
महसूस किया है...........
फूलों की बारिश में
अमृत भी छलका है,
ढोलक की थाप पर
मन ये धड़का है....
धरती का रोम-रोम
गोकुल बन बैठा है !

19 अप्रैल, 2009

उत्तर दो !


प्रश्न गंभीर है !
उत्तर कौन देगा ?
- खरगोश ग़लत था अभिमान में,
या-
कछुए की जीत आकस्मिक थी ?
सारस को प्लेट में खीर देनेवाली
लोमड़ी ग़लत थी,
या-

उससे बदला लेनेवाला सारस ?
सप्तपदी के मंत्रों से अलग हो
पत्नी को अपमान की चिता पर डालनेवाला
पति ग़लत था
या-
अग्नि की लपटों से निकलकर
ख़ुद की तलाश में
तटस्थ स्त्री ?!
खरगोश...
क्या हर बार हारेगा ?
सारस...
क्या लोमड़ी का निमंत्रण फिर स्वीकारेगा ?
......................
ऊंगलियाँ तो स्त्री की तरफ़ ही उठती हैं....
नसीहतें उसे ही मिलती हैं....
.........
जब तक वह जलती है,
सब मौन रहते हैं !
पर उसके विरोध में उठे क़दमों पर
सबकी गंभीर दृष्टि होती है !
मेरी आंखों में नींद नहीं,
मेरा सम्पूर्ण वजूद
आज प्रश्न लिए खड़ा है ,
उत्तर की तलाश है............
नहीं-
यह मत कहना,
'विषय अच्छा है',
'भाव गहरे हैं',
'दर्द दिल को छूता है',
या-
'निःशब्द हूँ !'...........
जवाब ना दो,
वह स्वीकार्य है ....
पर कलम उठाओ,
तो धार को
अंगारों से गुजारना मेरे बंधु
फिर कुछ कहना !

17 अप्रैल, 2009

विश्वास करो !


मनुष्य कहता है-
ईश्वर सर्वत्र है........
और ख़ुद ही
अलग-अलग लिबास में
उसे अलग-अलग कैनवास देता है !
आस्था मन की होती है,
श्रद्धा मन की होती है,
हर दिन की अपनी विशेषता होती है.....
पंडित के निकाले शुभ दिन में
क्या मौत नहीं होती?
तलाक नहीं होते?
बहुएं नहीं जलतीं?
बन्धु,
अपने सुकून पर ऐतबार करो,
प्यार करो ,
सम्मान करो,
आशीर्वचनों में ईश्वर को पाओ ..............

12 अप्रैल, 2009

राज्याभिषेक !


पावन नदियों का जल,
महर्षियों का समूह,
माँ कौशल्या का
रात भर का विष्णु जाप,
राम का राज्याभिषेक
और होनी का खेल !....................
सुबह का उजाला,
राम वनवास
और
दशरथ की मृत्यु का संदेशा लाएगी,
किसने जाना था !...............
अनहोनी के कुचक्र ने
निर्धारित सोच की दिशा बदल दी ,
कैकेयी की जिह्वा पर
हठ का बादल छा गया ,
हर्ष-गान
रुदन में परिवर्तित हुआ,
होनी मंथरा के मुख से निकली
कैकेई पर हावी हुई
और सारे पासे पलट गई !
............. पर,
विष्णु-जाप व्यर्थ नहीं गया....
चौदह वर्षों तक
राम की चरण पादुका ने
भरत का साथ दिया
बाद चौदह वर्षों के,
राम का ही राज्याभिषेक हुआ !...................

06 अप्रैल, 2009

अपवादित सच !


पिता !
वह शब्द,
वह संबोधन,
जो ढाल बनकर
हर मुसीबतों से
हमारी रक्षा करता है !
ज़िन्दगी के सम्मान का पर्याय बन
साथ चलता है !
वह नाम,
जहाँ से एक पहचान मिलती है,
अंधेरे से डर नहीं लगता...........
रौशनी कवच बन
वह पास रहता है !
पर्वत-सी विराट छवि लिए
वह गर्व से भर देता है.............
..............
पर,
जब-जब तुम्हें देखा ,
तुम्हारी आँखें -
मुझे बेचैन कर गयीं !
एक तलाश में अपमानित वजूद,
नफरत से भींचे होठ
कितना कुछ कहना चाहते हैं............
हँसते हुए भी,
एक ज़हरीला दंश,
पूरे रक्त में
अग्नि की तरह दहकता नज़र आता है !
अखंड ज्योति की उजास में भी,
एक खाली मौन देखा है !
महसूस किया है इस सच को-
कि,
कुछ धरती बंजर रह जाती है,
सूखे रहना पसंद करती है,
बीजों को पनपने
और लहलहाने का मौका नहीं देती..........!
नाम का मिलना,
यूँ शर्मनाक भी होता है
तुम्हे देखते हुए जाना है
और पिता की परिभाषा को
चाक-चाक होते देखा है !

02 अप्रैल, 2009

कौन हो तुम???


कलकल की साज पर
नन्हीं बूंदों की बारिश
और तुम्हारी याद...........
बिल्कुल कॉफी-सी लगती है !
तेज हवाएं,
ठिठुरती शाम
और तुम्हारी याद........
बिल्कुल अंगीठी-सी लगती है !
रुई से उड़ते बर्फ,
बर्फ की चादर
और तुम्हारी याद..........
बिल्कुल जन्नत-सी लगती है !
कहो तो -
कौन हो तुम ???

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...