29 दिसंबर, 2009

एक अलग पगडंडी




तराजू के पलड़े की तरह
दो पगडंडियाँ हैं मेरे साथ
एक पगडंडी
मेरे जन्मजात संस्कारों की
एक परिस्थितिजन्य !
मैंने तो दुआओं के दीपक जलाये थे
प्यार के बीज डाले थे
पर कुटिल , विषैली हवाओं ने
निर्विकार,संवेदनाहीन
पगडंडी के निर्माण के लिए विवश किया
................
दुआओं और संवेदनाहीन के मध्य की मनःस्थिति
कौन समझता है !
समझकर भी क्या?
अनुकूल और विपरीत पगडंडियाँ तो साथ ही चलती हैं !
पलड़ा कौन सा भारी है
कौन कहेगा ?
वे पदचिन्ह - जो दुआओं की पगडंडी पर हैं
या वे पदचिन्ह
जिन्होंने आँधियों का आह्वान किया
और एक अलग पगडंडी बना डाली !

22 दिसंबर, 2009

नज़्म और रूह !


कभी फुर्सत हो तो आना
करनी हैं कुछ बातें
जानना है
कैसी होती है नज्मों की रातें.....
कैसे कोई नज़्म
रूह बन जाती है
और पूरे दिन,रात की सलवटों में
कैद हो जाती है !
पूरा दिन ना सही
एक पल ही काफी है
प्यार को पढ़ने के लिए
नज़्म से रूह
रूह से नज़्म में बदलने के लिए !


13 दिसंबर, 2009

प्राण-संचार


तुम्हारे चेहरे की धूप
तुम्हारी आँखों की नमी
तुम्हारी पुकार की शीतलता
मुझमें प्राण- संचार करते गए ........
दुःख के घने बादलों का अँधेरा
मूसलाधार बारिश
सारे रंग बदरंग थे !
पर तुमने अपनी मुठ्ठी में
मेरे लिए सारे रंग समेट रखे थे
मैं रंगविहीन हुई ही नहीं !
लोग राज़ पूछते रहे हरियाली का
विस्मित होते रहे ....
मैं अपने आत्मसुख की कुंजी लिए
तुम्हारे धूप-छाँव में
ज़िन्दगी जीती गई....
कहने को तुम पौधे थे
पर वटवृक्ष की तरह
मुझ पर छाये रहे
मुझमें प्राण-संचार करते गए ...............

11 दिसंबर, 2009

ज़िन्दगी


ज़िन्दगी कभी समतल ज़मीं पर नहीं चलती
उस के मायने खो जाते हैं
तूफानों की तोड़फोड़
ज़िन्दगी की दिशा बनती है
रिश्तों के गुमनाम अनजाने पलों से
आत्मविश्वास की लौ निकलती है

08 दिसंबर, 2009

मैं साथ रहूंगी


मैं खुद एक शब्द हूँ
चाहो तो नज़्म बना लो
बना लो अपनी ग़ज़ल
कोई गीत
कोई आह्लादित सोच
कोई दुखद कहानी....
यकीन रखो
मैं साथ रहूंगी

01 दिसंबर, 2009

बस मैं हूँ !


महत्वाकांक्षाओं के पंख लिए
मैं ही धरती बनी
बनी आकाश
हुई क्षितिज
झरने का पानी
गंगा का उदगम
सितारों की टिमटिमाती कहानी
चाँद सा चेहरा
पर्वतों की अडिगता
नन्ही लडकी के घेरेवाली फ्रॉक - सी घाटी
चिड़ियों की चहचहाहट
सूर्योदय का गान
तितलियों के बिखरे रंग
उमड़ती घटायें
प्रातः राग
संध्या की लाली
शरद की चांदनी
टूटता सितारा
तुम्हारी इच्छाओं की पूर्णता
वसुंधरा की हरीतिमा
किसानों का सुख
मोटी-मोटी रोटियाँ
हरी मिर्च और प्याज
.......
सृष्टि का हर रूप लिया
हर सांचे में ढली
महत्वाकांक्षाओं की उड़ान में
कलम बनी
भावनाओं की स्याही से पूर्ण
सुकून का सबब बनी
.....
मैं यहाँ भी हूँ,
वहाँ भी हूँ
जिधर देखो
मैं हूँ
बस मैं हूँ !

जो गरजते हैं वे बरसते नहीं

 कितनी आसानी से हम कहते हैं  कि जो गरजते हैं वे बरसते नहीं ..." बिना बरसे ये बादल  अपने मन में उमड़ते घुमड़ते भावों को लेकर  आखिर कहां!...