09 अगस्त, 2010

सच का सामना ???




सच का सामना ?
किसका सच ?
कैसा सच ?
जिस सच के मायने
अलग-अलग होते हैं ?

एक ही सच !
कहीं सही, कहीं गलत,
और कहीं वक़्त की मांग !

रोटी में कभी चाँद
कभी भूख
कभी हवस !

कोई शरीर को आत्मा बना जीता है
कोई शरीर को माध्यम बना जीता है
कोई शरीर को टुकड़े-टुकड़े में
विभक्त कर जीता है
बात कहीं गलत
तो कहीं सही
कहीं व्यथा बनकर चलती है
किसी की ज़िन्दगी थम जाती है
कोई पीछे मुड़कर नहीं देखता ...
एक ही कैनवस पर सोच अलग-अलग होती है !

हिसाब अपने दिमाग का होता है
हम अपने दिमागी अदालत में
अपना निजी फैसला देते हैं
मौत की सज़ा सुनाने से पहले भी
सामने वाले की रज़ा नहीं सुनते

प्यार और ज़िद
भूख और प्यास
नींद और सुकून में
बड़ा फर्क होता है
आसान नहीं सच को समझना
तो किस सच का सामना?
और किस आधार पर?

सरेआम की गई हत्या के सुराग नहीं मिलते
तो फिर घुटे हुए सच के धागों को सुलझाना
उनको कटघरे में लाना
उन पर फैसला देना
अमानवीय कृत्य है

39 टिप्‍पणियां:

  1. प्यार और ज़िद
    भूख और प्यास
    नींद और सुकून में
    बड़ा फर्क होता है
    आसान नहीं सच को समझना
    तो किस सच का सामना?
    और किस आधार पर?
    बिलकुल सही कहा। बहुत गहरे भाव लिये उमदा रचना बधाई

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  2. जिस सहजता से आप अपनी बात रख जाती हैं, निसंदेह हम लोगों को सीखना चाहिए.

    आपने आएश आमश का लिंक दिया है, आभार ! इस भीड़ में हमज़बान को ढूढता रहा!!!!!

    समय हो तो पढ़ें
    ख़ामोशी के ख़िलाफ़ http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_08.html

    शहरोज़

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  3. सरेआम हत्या के सुराग नहीं मिलते ...
    और घुटे हुए सच के धागों पर
    सजा सुनाना ...
    अमानवीय ही है ...!

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  4. प्यार और ज़िद
    भूख और प्यास
    नींद और सुकून में
    बड़ा फर्क होता है
    आसान नहीं सच को समझना
    तो किस सच का सामना?
    और किस आधार पर

    बिकुल खरी बात ...सारे सच अपनी अपनी जगह सच ही लगते हैं ....कोई किसी दृष्टि से तो कोई किसी अन्य सोच से ...

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  5. प्यार और ज़िद
    भूख और प्यास
    नींद और सुकून में
    बड़ा फर्क होता है
    आसान नहीं सच को समझना
    तो किस सच का सामना?
    और किस आधार पर?
    ....जीवन के यथार्थ सत्य के मर्म को गहराई से आपने बहुत ही सधे शब्दों के मध्यम से उकेरा है .. मन की गहराई में उतरती आपने रचना जीवन के कई आयामों को छूती हुयी मन को आंदोलित कर रही है ...आभार

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  6. "सच का सामना ?
    किसका सच ?
    कैसा सच ?
    जिस सच के मायने
    अलग-अलग होते हैं ?"
    रश्मि जी,सादर प्रणाम ।
    सही कहा है आपने । सच क सबसे बडा सच तो यह है कि यह तो स्वयम् समय सपेक्ष् है । बहुत ही बारीक विश्लेषन और उसमे अर्थ की तलाश उससे भी सुन्दर ।

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  7. कोई शरीर को आत्मा बना जीता है
    कोई शरीर को माध्यम बना जीता है
    कोई शरीर को टुकड़े-टुकड़े में
    विभक्त कर जीता है


    jeene ka andaaz sabka alag alag hai!!

    koi sharir ko adhayt ke hawale kar jeet hai
    to koi
    sharir ko kisi dusre ke hawale kar jeeta hai........

    Di ek achchhi rachna........as usual!

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  8. सरेआम की गई हत्या के सुराग नहीं मिलते
    तो फिर घुटे हुए सच के धागों को सुलझाना
    उनको कटघरे में लाना
    उन पर फैसला देना
    अमानवीय कृत्य है
    ...nahut hi maarmik.

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  9. सरेआम की गई हत्या के सुराग नहीं मिलते
    तो फिर घुटे हुए सच के धागों को सुलझाना
    उनको कटघरे में लाना
    उन पर फैसला देना
    अमानवीय कृत्य है

    यथार्थ को व्यक्त किया है, सच सबकी नजर में अलग अलग होता है और आज तो सच को चाँद क्षणों में झूठ साबित किया जा सकता है. सब का अपना अपना सच है और अपना अपना झूठ.

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  10. कविता उस हालात पर चिंता करने को प्रेरित करती है।

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  11. सरेआम हत्या के सुराग नहीं मिलते ...
    और घुटे हुए सच के धागों पर
    सजा सुनाना ...
    अमानवीय ही है ...!

    बहुत ही प्रभावी पंक्तियाँ....

    प्रणाम के साथ शुभकामनाएं...

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  12. सरेआम की गई हत्या के सुराग नहीं मिलते
    तो फिर घुटे हुए सच के धागों को सुलझाना
    उनको कटघरे में लाना
    उन पर फैसला देना
    अमानवीय कृत्य है
    अब इसके बाद क्या कहूँ ?
    इस सच को अगर सब मान जायें तो जन्नत तो यहीं है।

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  13. सरेआम की गई हत्या के सुराग नहीं मिलते
    तो फिर घुटे हुए सच के धागों को सुलझाना
    उनको कटघरे में लाना
    उन पर फैसला देना
    अमानवीय कृत्य है

    awesome Di

    Kammal ki kiriti

    badhai kabule dil se

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  14. बहुत गहरी बात कही है दी ! सबके सच अपने अपने होते हैं ..

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  15. सब का अपना अपना सच होता है। कातिल का अपना सच और कत्‍ल होने वाले का अपना। ठीक इसी तरह एक बात किसी के लिए सही होती है तो दूसरे के लिए गलत।

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  16. Hi..

    Apne apne sach hain sabke..
    Sabke apne jhuth..
    Duniya ek bhale ho chahe..
    Sabke alag vajud..

    Ek daayra bana ke duniya..
    Uske beech vicharti hai..
    Kuen ke medhak si unko bhi..
    Duniya utni lagti hai..

    Hamesha ki tarah bhavpurn abhivyakti..

    Deepak..

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  17. प्यार और ज़िद
    भूख और प्यास
    नींद और सुकून में
    बड़ा फर्क होता है
    आसान नहीं सच को समझना
    सच कहा आपने।

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  18. एक ही कैनवस पर सोच अलग-अलग होती है !
    ..सही है. सभी के पास अपने-अपने चश्में होते हैं.

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  19. क्या बात है आप की बातो को कविता का सुंदर रुप देना .... बहुत सुंदर लगा. धन्यवाद

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  20. मम्मी ....... यह कविता बहुत अच्छी लगी .... कहीं अंदर तक छू गयीं...

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  21. rashmi ji,
    bahut prabhaawshali aur saargarbhit rachna...

    एक ही सच !
    कहीं सही, कहीं गलत,
    और कहीं वक़्त की मांग !

    रोटी में कभी चाँद
    कभी भूख
    कभी हवस !

    shubhkaamnaayen.

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  22. यही सत्य है. बहुत अच्छे शब्द दिए आपने इसे कहने में.

    जवाब देंहटाएं
  23. प्यार और ज़िद
    भूख और प्यास
    नींद और सुकून में
    बड़ा फर्क होता है

    किन किन पंक्तियों को उद्धरित करुं यहां.....हर चीज में फर्क होता है....जानते हैं तो जानने का प्रयास नहीं करते..ज्यादा हम अपनी ही हांके जाते हैं......सही में लगता है आप पंत जी का पूरा आशिर्वाद है...

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  24. बहुत ही गहरे भाव के साथ आपने हर एक शब्द लिखा है! दिल को छू गयी आपकी ये शानदार रचना!

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  25. एक ही सच !
    कहीं सही, कहीं गलत,
    और कहीं वक़्त की मांग !

    .....
    सही कहा है रश्मि जी, सच के मायने हालात और व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार बना लेते हैं.
    याद आ रहा है फ़िल्म आखिरी रास्ता का वो प्रसंग, जिसमें अमिताभ बच्चन साहब, अपने हाथ पर 9 लिखकर सामने खड़े पात्र से पूछते हैं-
    आपको क्या नज़र आ रहा है..
    जवाब मिलता है-6
    अमिताभ जी कहते हैं-जहां मैं खड़ा हूं वहां से 9 दिखता है- जहां आप हैं वहां से 6 दिखता है-
    अपनी जगह आप सही हैं, अपनी जगह मैं ठीक हूं.

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  26. वाह...वा...वाह...कमाल की रचना....जितनी सहज उतनी ही गंभीर...वाह...
    नीरज

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  27. आसान नहीं सच को समझना
    तो किस सच का सामना?
    और किस आधार पर?

    bahut hi sunder..!!!!

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  28. सच है.. के सच को समझना आसान नहीं...
    हर सच.. हर इंसान पर टूटता है...
    मायने बदल जाते हैं सच के...
    कौन तय करे.. सच का आधार..
    कौन तय करे इसकी परिसीमा..
    जहां से सच... भ्रम... झूठ... कल्पना.. सब अलग अलग दिशा में जाते हैं...

    बहुत दिनों के बाद मौका मिला आपने अनमोल शब्दों को.. पढने का आपकी अनुभूतियों.. को महसूस करने का..
    अभिव्यक्तियों को समझने का...
    बहुत सच्चा लिखा है आपने..
    हमेशा की तरह.. अद्वितीय..!!!!

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  29. एक ही सच !
    कहीं सही, कहीं गलत,
    और कहीं वक़्त की मांग !

    रोटी में कभी चाँद
    कभी भूख
    कभी हवस !

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  30. बहुत अच्छी मन को कचोटती सत्य को उजागर करती रचना

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  31. उम्दा रचना हमेशा की तरह ...आभार

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  32. प्यार और ज़िद
    भूख और प्यास
    नींद और सुकून में
    बड़ा फर्क होता है
    आसान नहीं सच को समझना
    तो किस सच का सामना?
    और किस आधार पर?

    behtreen panktiyaan ..................

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  33. सत्य कहा....

    गंभीर चिंतनीय रचना...

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  34. गहरी बात ... सच की परिभाषा समय के अनुसार बदलती रहती है ...

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  35. आसान नहीं सच को समझना
    सच कहा आपने।

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