आँखों के मेघ जब घुमड़ते थे
तो दर्द का सैलाब
सुनामी से कम नहीं होता था
बहता जाता था अपना ही मन
हो जाती थी तबाह अपनी ही सोच
और महीनों कोई बीज
चेहरे पर उगता न था !
किसी चैनल पर
इस तबाही का ज़िक्र कभी नहीं हुआ
कभी किसी ने मर्म को छूना भी चाहा
तो आलोचनाओं की चिंगारी ने
उस स्पर्श को जला दिया
....
वक़्त बदलता है
प्रकृति बदलती है
सारी सोच खुद को बंजर घोषित कर देती है
आँखें भी मेघविहीन हुईं ....
.... पर जब जब तुमसे यूँ भी कुछ कहा है
बादल का एक टुकड़ा आँखों में तैरने लगता है
एक हल्की बारिश .... यकीन दे जाती है
अपने होने का !
संवेदना का एहसास
फिर कई सूखे को झेलने की तीव्रता दे जाता है