16 मार्च, 2011

कुछ और की चाह !



पेन्ट जो सालों चलता है
जिसका बाह्य सौन्दर्य आकर्षित करता है
सीमेंट भी जिसके अन्दर पक्के होते हैं
होती हैं ख़ास ईंटें
उस मकान को
कोई घर नहीं बना पाता
न वक़्त होता है न सुकून
मोटे गद्दों पर बेचैन करवटें लेता इन्सान
कई मंजिलों से नीचे देखता है हतप्रभ
टूटी फूटी झोपडी का इन्सान
खुली ज़मीन पर
कैसे इतने सुकून से सोता है !
उसे भी भरनी होती है फीस
कमाए गए चंद रुपयों से
निकलते हैं उसके घर से
इंजिनियर , डॉ०, ....बड़े आराम से
....कैसे होता है यह चमत्कार
मुट्ठियों में रूपये मसलते वह सोचता रहता है
जब उत्तर में कुछ हाथ नहीं आता
या प्रतिस्पर्धा का जवाब रास नहीं आता
तो फिर
सुबह अपनी लम्बी सी कार में
हिकारत से उन्हें देखता
वह सर्र से निकल जाता है
... कुछ और की चाह में !




32 टिप्‍पणियां:

  1. बस, प्रतिस्पर्धा का जवाब रास नहीं आता

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  2. "टूटी फूटी झोपडी का इंसान
    खुली ज़मीन पर
    कैसे इतने सुकून से सोता है !"
    भावपूर्ण रचना .....prabhavi prastuti

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  3. बहुत ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने! बधाई!

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  4. बढ़िया कविता... कहाँ से विम्ब उठती हैं आप... आपकी कविता अचंभित करती है...

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  5. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (17-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  6. मोटे गद्दों पर बेचैन करवटें लेता इन्सान
    कई मंजिलों से नीचे देखता है हतप्रभ
    टूटी फूटी झोपडी का इन्सान
    खुली ज़मीन पर
    कैसे इतने सुकून से सोता है !
    asamanta ka bara hi achcha chitran ki hain.....upri tam-jham ko achchi maat di hai.

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  7. सुबह अपनी लम्बी सी कार में
    हिकारत से उन्हें देखता
    वह सर्र से निकल जाता है
    ... कुछ और की चाह में !
    ye to sach hai ,ati sundar .

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  8. बहुत ही संवेदनशील और सार्थक रचना...बहुत सुन्दर

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  9. यही... कुछ और की चाह ने ही सबकुछ चीन लिया है...
    इसीलिए कहते है... संतोषम परम सुखं...
    बहुत बड़े सत्य को प्रस्तुत कर दिया आपने...

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  10. यह कुछ और की चाह ही तो जीने नहीं देती एक खुश हाल ज़िंदगी ...प्रतिभाओं को कोई नहीं रोक सकता ...अच्छी रचना

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  11. चित्र और कविता पारस्परिक गहनता ला रहे हैं।

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  12. सुबह अपनी लम्बी सी कार में
    हिकारत से उन्हें देखता
    वह सर्र से निकल जाता है
    ... कुछ और की चाह में !

    ज़रुरत और इच्छाओं का द्वन्द .... बहुत सुंदर रश्मि जी....

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  13. एक शेर याद आ रहा है नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है
    यह जरुरी नही कि उनकी आगोश में हो सिर अपना |

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  14. बहुत अच्छी ओर सुन्दर प्रस्तुति!

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  15. बहुत ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना|धन्यवाद|

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  16. .. कुछ और की चाह में !

    अगर ये शब्‍द जीवन के शब्‍दकोश में नहीं होता तो शायद इतनी मुश्किलें नहीं आती ...गहन भावों का संगम है यह अभिव्‍यक्ति ...।।

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  17. गहरी अनुभूति और संवेदना को आपने काव्य में उतार दिया है।

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  18. bahut sunder rachna....
    kaya kahun javab nahi hai mere pas....bahut sunder chitran kiya hai

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  19. सुबह अपनी लम्बी सी कार में
    हिकारत से उन्हें देखता
    वह सर्र से निकल जाता है
    ... कुछ और की चाह में !
    bahut sunder

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  20. बहुत ही सुन्दर रचना ! आभार.

    होली के पावन पर्व की आपको अग्रिम शुभकामनाएं.

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  21. आदरणीय रश्मि प्रभा जी
    नमस्कार !
    बहुत अच्छी ओर सुन्दर प्रस्तुति!
    .....गहन भावों का संगम है यह अभिव्‍यक्ति

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  22. यह कुछ और कभी नहीं मिलता .... बहुत सुन्दर कविता !

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  23. कुछ और सबके लिए इसकी अलग अलग परिभाषा होती है. हर इंसान के लिए अपना कुछ और अपनी जरूरत के अनुसार होता है.
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति.

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