31 मई, 2012

शब्दों की लुकाछिपी



भावनाओं की आँधी उठे
या शनै: शनै: शीतल बयार बहे
या हो बारिश सी फुहार
सारे शब्द कहाँ पकड़ में आते हैं !
कुछ अटक जाते हैं अधर में
कुछ छुप जाते हैं चाँदनी में
कुछ बहते हैं आँखों से
और कभी उँगलियों के पोरों से छिटक जाते हैं
तो कभी आँचल में टंक जाते हैं
......
मैंने देखा है कई बार इनको
पानी के ग्लास में तैरते
तो कभी अपने बच्चों की मुस्कान में
महसूस किया है अपनी लम्बी सी सांस में
माँ की ख़ामोशी में
लोगों की अतिरिक्त समझदारी में
ईश्वर की आँखों में
कामवाली की बातों में
चिलचिलाती धूप में खड़े असहाय बच्चे में
.....
यात्रा में जितने मुसाफिर मिलते हैं
सबकी चाल और इधर उधर घूमती आँखों में
कुछ शब्द मिलते हैं
अपना शहर आते दूसरे शब्दों के पीछे
वे अचानक विलीन हो जाते हैं
मेरी पेशानी में आंखमिचौली खेलते हैं
और फिर मेरी थकान में बैठ जाते हैं ....
चलता रहता है अनवरत शब्दों का आना जाना
सपने भी उनसे अछूते नहीं होते
सिरहाने रखते जाओ
पर सुबह होते निकल भागते हैं !
परेशान सिरहाने के पास हथेलियों से ढूंढती हूँ
चाय पीते हुए
शून्य में उसकी आकृति पकड़ना चाहती हूँ
फिर समझाती हूँ खुद को -
सारे शब्द कहाँ टिकते हैं !
पर इसी पाने - खोने में
कई बार भाव भी खो जाते हैं
और तब बड़ी वेदना होती है !
इस वेदना में दूसरे भाव पनप जाते हैं
और फिर ------ देखते ही देखते
शब्दों की लुकाछिपी शुरू !!!

29 मई, 2012

अपनी तलाश में - ऐसी हूँ मैं !



मैं गले की तरह रुंध जाती हूँ
बन जाती हूँ सिसकियाँ
चित्रित हो जाती हूँ
आंसुओं के धब्बों सरीखे !
हो जाती हूँ सर्वशक्तिमान
सिसकियों के मध्य से उठाती हूँ जज्बा
और आंसुओं को हटाकर
मुस्कान का आह्वान करती हूँ !
मैं हो जाती हूँ खुद रहस्य
और उन रहस्यों का करती हूँ सामना
जो विघ्न के उद्देश्य से
छद्म रूप धरते हैं !
मैं बन जाती हूँ बारिश की बूंदें
धरा के अंतस्तल तक पहुँचती हूँ
उसके भावों को पढ़ती हूँ
उसकी ताप को शीतलता देती हूँ !
एक धवल बादल बन
करती हूँ आकाशीय परिक्रमा
निशा में विचरते ग्रह नक्षत्रों से
चाँद तारों से
सूरज और उसकी किरणों से
तादात्म्य जोड़ती हूँ !
जीवन की परिभाषा इन्द्रधनुष में पाती हूँ
जो क्षणांश के लिए आकाश पर उभरता है
जब तक अर्थ लूँ
सारे रंग गायब ....
बस इतनी स्मृति शेष होती है
कि सात रंग हैं जीवन के
जो क्षणिक हैं !
एक इन्द्रधनुष के लिए
मुसलाधार बारिश होती है
यूँ ही कभी दिखे - ऐसा कम होता है ...
तो दर्द जब गहरा होता है
हिम्मत जब जवाब देने लगती है
तो सात रंग उतरते हैं कुछ पल के लिए
मैं उन रंगों को सोख बनती हूँ इन्द्रधनुष
ताकि जब कोई हौसला अवश शिथिल कहीं बैठा मिले
तो मैं इन्द्रधनुष दे सकूँ
कभी समय से पहले
कभी समय के बाद ...
जब तक मैं हूँ
मैं खुद में एक आविष्कार करती हूँ
.....
ऐसी हूँ मैं !

28 मई, 2012

खुद की तलाश में मैं और मेरी कलम



तलाश शुरू होती है जन्म से , घुटनों से पाँव पर खड़ी होती है , दौड़ती है - गिरती है फिर उठती है , संकल्प उठाती है . अपने संकल्प को आज मैं शब्दों की थाती सौंप रही हूँ खुद की तलाश में -

खुद को खुद से अलग कर
मैं खुद का अध्ययन कर रही हूँ
क्या खोया .... क्या पाया
इस पर मनन कर रही हूँ !
खोया , बहुत कुछ खोया
खोने का कारण रही मैं
यानि मेरा स्वभाव !
गलत को अनदेखा किया
छल को अनदेखा किया
झूठ को अनदेखा किया
..... तो मिलना भी क्या था !
जो भी पाया -
उसके पीछे रही मेरी ख़ामोशी !
मन की उद्विग्नता सह गई
हाँ में हाँ मिलाया
तो पाने का भ्रम मिलता गया !
यह जो सामने मैं हूँ
उसे देखकर दया आ रही है
गुमान की धज्जियां चेहरे पर
उघरे बखिये सी है
कच्ची सिलाई से एहसास
थके थके से लग रहे हैं -
क्या करुँगी खुद को सहलाकर
सांत्वना देकर ...
कितनी चपलता थी इसके क़दमों में
कितना विश्वास था
नकारात्मकता उसकी सकारात्मकता के आगे हार जाती
आज नकारात्मकता उसका उपहास उड़ा रही है
क्योंकि बड़ी बड़ी लहरों पर
बे इन्तहां थरथराते हुए भी
वह जबरदस्त पकड़ रखती रही है !
सारे नाविक उसे डराते
लहरों का खौफ दिखाते
बिना नाव के तो डूबना ही है -
यह समझदारी बताते ....
पर वह -
अहले सुबह खुद को नाव बना
साहस को पतवार बना
लहरों पर चल पड़ती थी
पूरा हुजूम देखने को उमड़ता
उसके डूबने की चाह लिए
उसके लौटने तक !
हाथों में उसकी मछलियाँ होतीं
मोती और शाम की लाली ,
चाँद , सितारे
- निष्पक्ष , निश्छल भाव से वह साझा करती
सबके घर मछली बनती गर्मागर्म चावल के साथ
और एक एक मोती सबकी आलमारी में !
खाना खाकर जब सब चाँद तारों की रौशनी में बैठते
तो फिर इस सत्य पर चर्चा होती कि
उसके पास नाव नहीं है
और सुनामी आ जाने पर तो नाव नहीं टिकती
वह क्या है !
वह हंसती - सुनामी आने पर देखा जायेगा
और हर दिन की सुनामी लानेवालों को
भरी भरी आँखों से देखती ...
साथ हंसने की ख्वाहिश लिए
वह इतना रोई
कि आँखें सूख गयीं
पुतली और पलकों के घर्षण से
बरसों से दबी आग भभकी
और स्वयं जल गई ....
चिरौंधे सी गंध उसे निगल रही है
पर जाने किस उम्मीद में
वह आज भी नाउम्मीदी से लड़ रही है
.......

इससे परे -

अपनी तलाश में मैंने खुद को
बरसाने की राधा में ढूँढा
कभी देवकी
कभी यशोदा की जगह खुद को पाया
यशोधरा बनकर मैंने
सिद्धार्थ को अपना साथ दिया
ढूँढा खुद को ही मैंने
हिरोशिमा की पीड़ा में
भगत सिंह की मुस्कान में ढूँढा
बाल दिवस उत्सव में ढूँढा
चुपके से सबसे छुपकर
अरुणा शानबाग में ढूँढा ....
उसके निष्प्राण प्राणों में
खुद की ही पहचान मिली
शोर से दूर सन्नाटों में
मेरी अपनी प्रतिछाया मिली
मैं ध्वनि हुई प्रतिध्वनि हुई
चातक की मैं प्यास बनी
कभी पंछी की उड़ान बनी
ओस हुई मिट्टी भी हुई
पुरवईया की मीत बनी
कभी समंदर कभी बवंडर
कभी भोली मुस्कान बनी
अर्जुन का मैं लक्ष्य बनी
कर्ण का उज्जवल तेज बनी
बाणों की निर्मित शय्या में
भीष्म की अदभुत चाह बनी
मैं गीत बनी मैं राग बनी
टूटे तारों की दुआ बनी
घुट घुटकर मरनेवालों की
घुटती साँसों में मिली
मैं हीर बनी मैं प्रेम बनी
अलगाव की पीड़ा बनी
मैं बेटी बनी मैं बहन बनी
परिणीता बनी परित्यक्ता बनी
मैं माँ बनी जीवन बनी
मैं दोस्त बनी दुश्मन भी हुई
प्रभु ने जितने भी सांचे गढ़े
उन सांचों का मकसद मैं बनी ...............

गर चाह नहीं है जीने की तो मरने की भी चाह नहीं , अभी यात्रा जारी है और खोज भी अपनी बाकी है .............

यह तलाश क्या है
क्यूँ है
और इसकी अवधि क्या है !
क्या इसका आरम्भ सृष्टि के आरम्भ से है
या सिर्फ यह वर्तमान है
या आगत के भी स्रोत इससे जुड़े हैं ?
क्या तलाश मुक्ति है
या वह प्रलाप जो नदी के गर्भ में है
या वह प्रवाह
जिसका गंतव्य उसके समर्पण से जुड़ा है !
जन्म का रहस्य जानना है
या मृत्यु के बाद के सत्य से अवगत होना है
धरती से आकाश तक
कारण परिणाम के कई विम्ब हैं
पर कारण भी अनुत्तरित
परिणाम भी अनुत्तरित
सबकुछ महज एक अनुमान है
और अनुमान से तलाश ....
कहाँ संभव है !
इस तलाश में गर चेतन है
तो अवचेतन भी है
प्राण भी है
निष्प्राण गंतव्य भी है ...
प्रत्युत्तर में त्रिदेव भी खड़े हैं
क्योंकि निर्माण यज्ञ में
उनकी तलाश भी अधूरी रही है !
कमजोरी यदि तलाश के रास्ते अवरुद्ध करती है
तो ईश्वर भी कमज़ोर रहा है
स्नेह और भक्ति के आगे
गलत वरदान देता रहा है ...
गलत को सही करने में
उसके पैरों तले भी पृथ्वी डोली है
महारथी देवों ने भी त्राहिमाम के रट लगाए हैं
फिर ....
क्या उस अनादि
सूक्ष्म प्रभुत्व के कणों ने
मुझे तलाश का माध्यम बनाया है !
और ....
क्या मैं यानि तुम यानि हम
ब्रह्मांड हैं
और तलाश है इसे पूर्णतया पाने की ?.........

नाउम्मीदी में भी कई उम्मीदें हैं
कह दो ज़रा इकबाल से
नम हो या फिर बंज़र हो मिट्टी
इस मिट्टी में कई ज़रखेज़ सपने हैं आज भी ...

27 मई, 2012

खुद को पाना आसान नहीं !



खुद की तलाश
खुद के लिए होती है
क्योंकि प्रश्न खुद में होते हैं
ये बात और है
कि इस तलाश यात्रा में
कई चेहरे खुद को पा लेते हैं
................
अबोध आकृति
जब माँ की बाहों के घेरे में होती है
तब वही उसका संसार होता है
वही प्राप्य
और वही संतोष .... !
पर जब अक्षरों की शुरुआत होती है
साथ में कोई और होता है
प्रथम द्वितीय ..... का दृश्य होता है
तो ज्ञान में हम कहाँ हैं
इसकी तलाश होती है !
अजीब बात है -
सबसे कम अंक अज्ञानी हो - ज़रूरी तो नहीं
यह तो उस क्षण विशेष का सच है
प्रथम रटनतू हो सकता है
जो फेल है
वह उस वक़्त इस जीत हार से उदासीन हो
इसकी पूरी संभावना हो सकती है ...
अंक देने वाले की निष्पक्षता
और मनःस्थिति भी मायने रखती है
साथ ही उसका ज्ञान भी !
सीधे रास्ते ही हमेशा सही नहीं होते
राम के बदले मरा कहने में भी भक्ति है
असीम भक्ति -
फिर तलाश किस तरह निर्धारित हो !
अपने बारे में स्वयं से अधिक
कोई कैसे जान सकता है
पर अक्सर कोई और निर्धारित करने लगता है ...

किसी को
किसी को भी ...
और खुद को जानने के लिए
आत्मा की आँखें चाहिए !
जो जीकर भी मृत है
उसे किसी के लिए कुछ कहने का अधिकार नहीं
पर यह आखिर कैसे तय हो !
मैं सही
वो गलत - आखिर कैसे !
नहीं कह सकते .....
तो खुद को ही सही गलत मानकर
खुद के विचार से चलो
दूसरों को कारण मत बनाओ
मुझे भी मुक्त करो
खुद भी मुक्त हो जाओ ...
पर - यदि बढाते हो हाथ
तो विश्वास करना सीखो
असुर को देवता
देवता को असुर मान
जितने भी मंथन कर लो
न अमृत मिलेगा न विष ....... खुद को पाना आसान नहीं !

25 मई, 2012

तलाश क्या है



यह तलाश क्या है
क्यूँ है
और इसकी अवधि क्या है !
क्या इसका आरम्भ सृष्टि के आरम्भ से है
या सिर्फ यह वर्तमान है
या आगत के भी स्रोत इससे जुड़े हैं ?
क्या तलाश मुक्ति है
या वह प्रलाप जो नदी के गर्भ में है
या वह प्रवाह
जिसका गंतव्य उसके समर्पण से जुड़ा है !
जन्म का रहस्य जानना है
या मृत्यु के बाद के सत्य से अवगत होना है
धरती से आकाश तक
कारण परिणाम के कई विम्ब हैं
कारण भी अनुत्तरित
परिणाम भी अनुत्तरित
सबकुछ महज एक अनुमान है
और अनुमान से तलाश ....
कहाँ संभव है !
इस तलाश में गर चेतन है
तो अवचेतन भी है
प्राण है
निष्प्राण गंतव्य भी है ...
प्रत्युत्तर में त्रिदेव भी खड़े हैं
निर्माण यज्ञ में
उनकी तलाश भी अधूरी रही है !
कमजोरी यदि तलाश के रास्ते अवरुद्ध करती है
तो ईश्वर भी कमज़ोर रहा है
स्नेह और भक्ति के आगे
गलत वरदान देता रहा है ...
गलत को सही करने में
उसके पैरों तले भी पृथ्वी डोली है
महारथी देवों ने भी त्राहिमाम के रट लगाए हैं
फिर ....
क्या उस अनादि
सूक्ष्म प्रभुत्व के कणों ने
मुझे तलाश का माध्यम बनाया है !
और ....
क्या मैं यानि तुम यानि हम
ब्रह्मांड हैं
और तलाश है इसे पूर्णतया पाने की ?

08 मई, 2012

क्रम जारी है ...


'तब तो बना दे तू भोले को हाथी ....'
खेल से परे एक काल्पनिक काबुलीवाला
हींग टिंग झट बोल में बस गया ...
जब कोई नहीं होता था पास
अपनी नन्हीं सी पोटली खोलती
काबुलीवाले को मंतर पढके बाहर निकालती
और पिस्ता बादाम मेरी झोली में
सच्ची मेरी चाल बदल जाती !
फिर मेरे खेल में मेरे सपनों का साथी बना अलीबाबा
और शून्य में देखती मैं 40 चोर
'खुल जा सिम सिम ' का गुरुमंत्र लेते
बन जाती अलीबाबा
और ..... कासिम सी दुनिया
रानी की तरह मुझे देख
रश्क करती !
कभी कभी आत्मा कहती -
यह चोरी का माल है
पर चोरों से हासिल करना हिम्मत की बात है
आत्मा को गवाही दे निश्चिन्त हो जाती ...
पर कासिम पीछा करता
चोर मुझे ढूंढते ...
जब बचना मुश्किल लगता
तो शून्य से लौट आती !
फिर फिल्मों में प्रभु का करिश्मा देखा
कड़ाही खुद चूल्हे पर
सब्जी कट कट कट कट कटकर
कड़ाही में ....
आटा जादू से गूँथ जाता
फिर लोइयां , फिर पुरियां
इतना अच्छा लगता
कि मैं रोज भगवान् को मिसरी देकर कहती
ऐसा समय आए तो ज़रा ध्यान रखना
और सोचती ...
ऐसा होगा तब सब मुझे ही काम देंगे
और मैं कमरे की सांकल लगा प्रभु के जादू से
बिना थके
मुस्कुराती बाहर निकलूंगी
सबकी हैरानी सोचकर बड़ा मज़ा आता था ....
फिर आई लाल परी
और मैं बन गई सिंड्रेला
चमचमाते जूते
बग्घी ... और राजकुमार !
घड़ी की सुइयों पर रहता था ध्यान
१२ बजने से पहले लौटना है ...
मेरी जूती भी रह जाती सीढियों पर
फिर ...
राजकुमार का ऐलान
और मेरा पैर जूते में फिट !
....
ज़िन्दगी के असली रास्ते बुद्ध की तरह नागवार थे
महाभिनिष्क्रमण मुमकिन न था
तो मुंगेरी लाल से सपने जोड़ लिए
पर एक बात है
मुंगेरी लाल की तरह मैं नहीं हुई
मेरे हर सपने मुझे जो बनाते थे
वे उतनी देर का सच होते थे
मेरे चेहरे पर होती थी मुस्कान
और भरोसा -
कि मैं कुछ भी कर सकती हूँ !
...
सपनों का घर इतना सुन्दर रहा ...
इतना सुन्दर है
इतना ------- कि ...
काँटों पर फूल सा एहसास नहीं हुआ
बल्कि कांटे फूल बन जाते रहे
और मैं शहजादी ...
मुझे मिली मिस्टर इंडिया की घड़ी
जिसे पहन मैं गायब होकर मसीहा बन गई
मैं जिनी बनी , मैं जिन्न बनी
पूरी दुनिया की सैर की
सच कहूँ - करवाई भी ....
सबूत चाहिए ?
... हाहाहा , अब तक आप मेरे साथ सैर ही तो कर रहे थे !
क्रम जारी है ...









05 मई, 2012

सबकुछ प्रयोजनयुक्त !



सत्य क्या है ?
वह - जो हम सोचते हैं
वह - जो हम चाहते हैं
या वह - जो हम करते हैं ?
बिना लिबास का सत्य
क्या बर्दाश्त हो सकता है ?
सत्य झूठ के कपड़ों से न ढंका हो
तो उससे बढ़कर कुरूप कुछ नहीं !
आवरण हटते न संस्कार
न आध्यात्म
न मोह
न त्याग
---- सबकुछ प्रयोजनयुक्त !
हम सब अपने अपने नग्न सत्य से वाकिफ हैं
उसे हम ही सौ पर्दों से ढँक देते हैं
दर्द , अन्याय ,
.... अक्षरसः कौन सुना पाया है ?
हाँ चटखारे लेकर
अर्धसत्य को उधेड़ना सब चाहते हैं
पर अपने अपने सत्य को
कई तहखानों में रख कर ही चलना चाहते हैं
पर्दे के पीछे हुई हर घटनाओं का
मात्र धुआं ही दिखता है
तो ज़ाहिर है -
आग तक पहुंचने में कठिनाई होती है....
और कई बार तो धुंए का रूख भी मुड़ जाता है !
सब कहते हैं -
कान हल्के होते हैं
कानों सुनी बात पर यकीन मत करो ....
पर आँखें
जो दृश्य दिमाग से गढ़ती हैं
उनका यकीन कैसे हो ?
आँख, कान , मुंह, दिमाग ...
इनका होना मायने तो रखता है
पर उनके द्वारा उपस्थित किया हुआ दृश्य
विश्वसनीय हो - ज़रूरी नहीं
अविश्वसनीय हो सकता है ...कभी भी, कहीं भी !
हम सब अक्सर उतना ही देखते सुनते हैं
जितना और जैसा हम चाहते हैं
न कारण सत्य है, न परिणाम ....
एक ही बात -
जो कही जाती है
जो बताई जाती है
जो दुहराई जाती है .....
उसमें कोई संबंध नहीं होता
और दुर्गति
हमेशा सत्य की होती है -
क्योंकि वह सोच और चाह के धरातल पर खरा नहीं होता ...

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...