शब्द नुकीले शीशे से भी होते हैं
फिर
लहुलुहान घटनाओं का ज़िक्र
शीशे से क्यूँ ? !
होना था जो हादसा
वह तो हो गया
जिसे जाना था
वह चला भी गया
अब उसका वर्णन
वह भी शीशे जैसे शब्दों से
घाव को भरने की बजाय
खुरचने की प्रक्रिया है !
वर्षों तक …
ज़ख्म भरते नहीं
नहीं जागता कोई हौसला
बस भयावह दृश्य ही रह-रहकर डराते हैं !
न्याय के लिए चीखो
'कैंडल मार्च' करो
आवाज़ों का आह्वान करो
पर निर्वस्त्र दृश्यों की चर्चा कर
उनके घर की नींव मत हिलाओ
जहाँ यह हादसा हुआ है
मत छीनो मासूम आँखों के सपने !
टायर जलाने से
किसी निर्दोष के रास्ते ही धुएँ से भरते हैं
जलाना ही चाहते हो
तो उस घर को जलाओ
जहाँ से घृणित जघन्य कार्य को अंजाम दिया गया
जिस कुर्सी से अन्यायी फैसला हुआ
व्यर्थ में उन्हें क्यूँ असुरक्षित करना
जिनके घर के आगे उनके माता-पिता
प्रतीक्षित चहलकदमी करते रहते हैं !
तुम साथ हो
यह जताने को
कोमल शब्दों का स्पर्श दो
दूर से वो आगाज़' करो
कि मन में विश्वास उत्पन्न हो
भय से निस्तेज आँखों में
प्राणसंचारित करते सपने भर जाएँ
शब्दों का अनमोल अर्घ्य दो
शूल नहीं !!!
सही कहा है आपने, शब्दों में बहुत शक्ति है इनका उपयोग मरहम लगाने के लिए होना चाहिए न कि जख्मों को कुरेदने के लिए..
जवाब देंहटाएंशब्द जब अर्घ्य बन किसी के मन के आँगन में पड़े तो वह उसे नव ऊर्जा देती है
जवाब देंहटाएंअन्याय और नकारात्मकता से लड़ने का
सादर !
शूल नहीं
जवाब देंहटाएंबस और
कुछ नहीं
कैसे नहीं
पता नहीं
क्योंकि
सोचते
हुऐ भी
बस यही
तो होता
है नहीं
शूल से
निकलते है
हमेशा शूल
अर्ध्य देना
शूल से तो
सीखा नहीं :)
टायर जलाने से
जवाब देंहटाएंकिसी निर्दोष के रास्ते ही धुएँ से भरते हैं
जलाना ही चाहते हो
तो उस घर को जलाओ
जहाँ से घृणित जघन्य कार्य को अंजाम दिया गया
जिस कुर्सी से अन्यायी फैसला हुआ
व्यर्थ में उन्हें क्यूँ असुरक्षित करना
जिनके घर के आगे उनके माता-पिता
प्रतीक्षित चहलकदमी करते रहते हैं !
bilkul sahi...
शब्दों का अनमोल अर्घ्य दो
जवाब देंहटाएंशूल नहीं !!!
कितनी सुन्दर बात..पर क्या ऐसा हो पाता है .....अनजाने में ही उन ज़ख्मों को कुरेदा जाता है ...जिसे वक़्त ने भर दिया है .......और खुर्ची हुई देह की पीड़ा ....ताज़े ज़ख्म से ज़यादा असहनीय हो उठती है
शब्दों का अनमोल अर्घ्य दो
जवाब देंहटाएंशूल नहीं !!! सच कहा..... बढिया..
kitni gahari aur satik bat kahi hai di ............behad umda
जवाब देंहटाएंटायर जलाना , तोड़फोड़ करना -विरोध या दुःख प्रकट करने का यह तरीका मुझे भी समझ नहीं आता !
जवाब देंहटाएंसहानुभूति अपने शब्दों और कार्यों से जाहिर होती है!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (18-02-2014) को "अक्ल का बंद हुआ दरवाज़ा" (चर्चा मंच-1527) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर ...अर्थपूर्ण आव्हान ...
जवाब देंहटाएंदीदी, जिस प्रकार बलात्कार से भी भयावह, बलात्कार के मुकदमे की दलीलें होती हैं, जो किसी पीड़िता के लिये उस पूरे नर्क को दुबारा झेलने से कम नहीं होता, वैसे ही किसी भी दुर्घटना पर शीशे की तरह शब्दों के नुकीले धारदार हथियार चलाना कम नहीं होता उस दुर्घटना से... ऐसे माहौल पैदा करना जिसमें दुबारा वो घटनाएँ न हों...
जवाब देंहटाएं"जलाना ही चाहते हो
तो उस घर को जलाओ
जहाँ से घृणित जघन्य कार्य को अंजाम दिया गया"
उस घर को भी जलाकर उसके कुकृत्य को पलटा तो नहीं जा सकता ना! आग का दरिया बनाने से बेहतर है, प्रेम की सरिता बहाना... बहुत कठिन लगता है ना, लेकिन क्रांति इतने सस्ते भी कहाँ मिलती है!!
बहुत अच्छी कविता दीदी!!
यह बात सही कही है भाई,
हटाएंकहीं तो इस आग को बुझनी चाहिए !
पर समझते समझते देर हो जाती है
यह समझ एक विराम है - हर उथल-पुथल से मुक्त होने के लिए
बहुत सटीक लिखा है दीदी
जवाब देंहटाएंशब्द कहाँ हार मानते हैं भला?
जवाब देंहटाएंशब्दों को नयी पहचान देना आपकी कलम की विशेषता है और शब्दों का बेहतर इस्तेमाल भी . सुन्दर बन पडी है अर्थपूर्ण कविता
जवाब देंहटाएंटायर जलाने से
जवाब देंहटाएंकिसी निर्दोष के रास्ते ही धुएँ से भरते हैं
जलाना ही चाहते हो
तो उस घर को जलाओ
जहाँ से घृणित जघन्य कार्य को अंजाम दिया गया
जिस कुर्सी से अन्यायी फैसला हुआ
bahut sahi likha hai aapne
badhai
rachana
कई बार न घाव भी इतने गहरे होते है कि शब्दों का फाहा भी काम नहीं करता ! लेकिन शूल जैसे चुभते शब्दों से बेहतर तो होता है पर संपूर्ण समाधान नहीं,
जवाब देंहटाएंव्यक्तिगत बदलाव हो तभी हर प्रकार की क्रांति संभव है ! लेकिन मनुष्य न बड़ा अजीब प्राणी है शांति के लिए भी तलवार उठाता है, भले ही शब्दों की ही क्यों न हो !
बहुत ही सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसही नसीहत देती हुई रचना .... शब्द ही हैं जो मरहम का काम भी करते हैं तो ज़ख्म भी कुरेद देते हैं .
जवाब देंहटाएंअनमोल शब्द..
जवाब देंहटाएंआह .. शब्दों की इस ताक़त को काश समझ पाते हम..
जवाब देंहटाएंshbdo ki takat ki sundar abhivyakti,,
जवाब देंहटाएंअक्सर यही मशाल वाले और कैंडल वाले मौका मिलते दहेज़ लेना भी नहीं चूकते हैं. काम से ज्यादा दिखावा का ही समय है. इतने सारे मीडिया वाले भी है. नाम तो हो ही जाता है.
जवाब देंहटाएंनुकीले शब्द दर्द को कम नहीं करते .. बढा देते हैं ... आत्मिक स्पर्श की जरूरत हो जब उस समय केंडल मार्च का शोर मरहम नहीं लगाता ..
जवाब देंहटाएंशब्दों का अनमोल अर्घ्य दो
जवाब देंहटाएंशूल नहीं !!!
अक्षरश: सही कहा आपने ..... बेहद सशक्त अभिव्यक्ति
सादर
बहुत सही कहा आपने शब्द ज़हर भी हैं और अमृत भी
जवाब देंहटाएंआज शायद पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ. हो सकता है कभी आपकी कोई ब्लॉग पोस्ट पढ़ी हो पर मुझे याद नहीं है. आपकी यह कविता अच्छी लगी. कभी समय मिला तो आपके पुराने पोस्ट जरुर पढूंगा.
जवाब देंहटाएंखूबसूरत रचना...
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