22 फ़रवरी, 2014

कहानी कुछ और होगी सत्य कुछ और



मैं भीष्म
वाणों की शय्या पर
अपने इच्छित मृत्यु वरदान के साथ
कुरुक्षेत्र का परिणाम देख रहा हूँ
या  ....... !
अपनी प्रतिज्ञा से बने कुरुक्षेत्र की
विवेचना कर रहा हूँ ?!?

एक तरफ पिता शांतनु के दैहिक प्रेम की आकुलता
और दूसरी तरफ मैं
.... क्या सत्यवती के पिता के आगे मेरी प्रतिज्ञा
मात्र मेरा कर्तव्य था ?
या - पिता की चाह के आगे
एक आवेशित विरोध !

अन्यथा,
ऐसा नहीं था
कि मेरे मन के सपने
निर्मूल हो गए थे
या मेरे भीतर का प्रेम
पाषाण हो गया था !
किंचित आवेश ही कह सकता हूँ
क्योंकि ऐसी प्रतिज्ञा शांत तट से नहीं ली जाती !!
वो तो मेरी माँ का पावन स्पर्श था
जो मैं निष्ठापूर्वक निभा सका ब्रह्मचर्य
.... और इच्छितमृत्यु
मेरे पिता का दिया वरदान
जो आज मेरे सत्य की विवेचना कर रहा है !

कुरुक्षेत्र की धरती पर
वाणों की शय्या मेरी प्रतिज्ञा का प्राप्य था
तिल तिलकर मरना मेरी नियति
क्योंकि सिर्फ एक क्षण में मैंने
हस्तिनापुर का सम्पूर्ण भाग्य बदल दिया
तथाकथित कुरु वंश
तथाकथित पांडव सेना
सबकुछ मेरे द्वारा निर्मित प्रारब्ध था !

जब प्रारब्ध ही प्रतिकूल हो
तो अनुकूलता की शांति कहाँ सम्भव है !

कर्ण का सत्य
ब्रह्मुहूर्त सा उसका तेज  …
कुछ भी तो मुझसे छुपा नहीं था
आखिर क्यूँ मैंने उसे अंक में नहीं लिया !
दुर्योधन की ढीढता
मैं अवगत था
उसे कठोरता से समझा सकता था
पर मैं हस्तिनापुर को देखते हुए भी
कहीं न कहीं धृतराष्ट्र सा हो गया था !
कुंती को मैं समझा सकता था
उसको अपनी प्रतिज्ञा सा सम्बल दे
कर्ण की जगह बना सकता था
पर !!!
वो तो भला हो दुर्योधन का
जो अपने हठ की जीत में
उसने कर्ण को अंग देश का राजा बनाया
जो बड़े नहीं कर सके
अपनी अपनी प्रतिष्ठा में रहे
उसे उसने एक क्षण में कर दिखाया !

द्रौपदी की रक्षा
मेरा कर्तव्य था
भीष्म प्रतिज्ञा के बाद
अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका को मैं बलात् ला सकता था
तो क्या भरी सभा में
अपने रिश्ते की गरिमा में चीख नहीं सकता था !
पर मैं खामोश रहा
और परोक्ष रूप से अपने पिता के कृत्य को
तमाशा बनाता गया !

अर्जुन मेरा प्रिय था
कम से कम उसकी खातिर
मैं द्रौपदी की लाज बचा सकता था
पर अपनी एक प्रतिज्ञा की आड़ में
मैं मूक द्रष्टा बन गया !
मुझसे बेहतर कौन समझ सकता है
कि इस कुरुक्षेत्र की नींव मैंने रखी
और अब -
इसकी समाप्ति की लीला देख रहा हूँ !

कुछ भी शेष नहीं रहना है
अपनी इच्छितमृत्यु के साथ
मैं सबके नाम मृत्यु लिख रहा हूँ
कुछ कुरुक्षेत्र की भूमि पर मर जाएँगे
तो कुछ आत्मग्लानि की अग्नि में राख हो जाएँगे
कहानी कुछ और होगी
सत्य कुछ और - अपनी अपनी परिधि में !

27 टिप्‍पणियां:

  1. सच कुछ ऐसा ही है अपनी अपनी परिधि में कैद...सुदंर रचना।

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  3. बहुत खूब दीदी,
    यदि भीष्म को भी ये पढ़ने को मिले तो उनकी भी पश्चाताप कि अग्नि थोड़ी शांत होगी ।
    और सत्य तो काल गढ़ लेता है कहानी कि कब फिक्र हुई है इसको।
    आभार -

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  4. जब प्रारब्ध ही प्रतिकूल हो
    तो अनुकूलता की शांति कहाँ सम्भव है !
    ...भीष्म के मन तक पहुँचने और उसका दर्द समझने का एक अनुपम प्रयास...अद्भुत प्रस्तुति...

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  5. मैं भीष्म
    वाणों की शय्या पर
    अपने इच्छित मृत्यु वरदान के साथ
    कुरुक्षेत्र का परिणाम देख रहा हूँ
    या ....... !
    अपनी प्रतिज्ञा से बने कुरुक्षेत्र की
    विवेचना कर रहा हूँ ?!?
    इन्ही शब्दों को पुन: प्रतिध्वनित कर इतना ही कह पा रहा हूँ
    की जो आपने बयाँ किया सच में एक सच है... साधुवाद! इस ब्लॉग को आगे भी पढ़ रहा हूँ....

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  6. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ब्लॉग-बुलेटिन: एक रेट्रोस्पेक्टिव मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  7. अदभुद !
    पर कच्चे मन
    के अधूरे प्रश्न
    कचोटते रहते हैं
    क्या करे कोई
    भीष्म तुम तब
    भी थे सुना है
    भीष्म तुम अब
    भी हो बताते भी हो
    पर आज के भीष्म
    को देखकर भ्रम
    क्यों होने लगता है
    वाकई भीष्म था
    और उसकी प्रतिग्या भी ?

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  8. कुरुक्षेत्र की नीव तो
    रख दी गयी थी
    उसी दिन
    जब ली थी देवव्रत ने प्रतिज्ञा
    बस तैयार करना था
    युद्ध का मैदान
    जिसको सजाने में
    लग गए वर्षों
    कर सकते थे भीष्म सब कुछ
    पर पिता के दिए वरदान का भी तो
    करना था उपसंहार .

    बहुत अच्छी प्रस्तुति .... यह विषय मेरा प्रिय विषय है . :)

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  9. पर सत्य क्या होगा ... ये तो काल के गर्भ में खो चूका है ... मात्र कयास ही जीवन रह गया है अब ...

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  10. दीदी! सत्य तो यही है कि 'प्रान जाए पर वचन न जाए' हमारी परम्परा थी, जो आज प्रान जाए "प्रवचन" न जाए' हो गई है!! प्रतिज्ञा भीष्म की हो या फिर राम की, बिना किसी तर्क के.. किंतु कभी सोचा है किसी ने कि इच्छा मृत्यु का वरदान था भीष्म के लिए या अभिशाप!! मृत्यु अवश्यम्भावी है इसलिए इसे टालने का वरदान केवल और केवल शाप ही हो सकता है... और जितनी दुर्दशा उन्होंने देखी वो शायद उसी अभिशाप का परिणाम था, साथ ही पूर्व जन्म के पापों की सज़ा! तभी तो बाकी वसुओं को जन्म के साथ ही मृत्यु दे दी माता ने, देवव्रत ही बच गए थे सज़ा भुगतने!
    बहुत ही सम्वेदनशील विवेचना की है आपने दीदी!

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  11. जब प्रारब्ध ही प्रतिकूल हो
    तो अनुकूलता की शांति कहाँ सम्भव है !
    ...... आपकी लेखनी कई बार नि:शब्‍द कर देती है
    बेहद गहन एवं उत्‍कृष्‍ट पोस्‍ट
    सादर

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  12. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (24-02-2014) को "खूबसूरत सफ़र" (चर्चा मंच-1533) पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  13. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  14. kai bar bahut kuchh anayas hi ghatit ghatnaayen jiwan bhar pachhtawe ka karan bn jata hai ...jisse kai log prabhawit ho jate hain bhism pitamah ke mn e bhawon ki sundar prastuti rashmi jee ,,,,

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  15. अपराध बोध से बच पाना मुश्किल है...क्राइम और पनिशमेंट का सिद्धांत है...अपने कर्मों का फल जीवन के अंत तक पीछा नहीं छोड़ता...

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  16. बढ़िया प्रस्तुति- -
    आभार आदरणीया -

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  17. इतिहास के पन्नों से निकल कर एक और सत्य इस कविता में मुखर हुआ है...जो कहा जाना चाहिए था...पर कहा नहीं गया

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  18. कुरुक्षेत्र के युद्ध का परिणाम अंधे धृतराष्ट्र की महत्वाकांक्षा का परिणाम लगता है मुझे तो,
    भीष्म का अंतिम समय में यूँ पश्चाताप करना शायद उनकी नजर में ठीक ही हो,!

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  19. भीष्म का आत्मसंवाद कितने प्रश्नों की कहानी कहता है ! यदि उन्होंने सत्य का साथ दृढ़ता से दिया होता तो महाभारत ना होता या इसकी कहानी और ही होती!
    सटीक !

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  20. कहीं गहरे में उतरती हुई..गहन अभिव्यक्ति..

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  21. स्वयं को पार्श्व में रख अयोग्य को आगे रखते ही महाभारत का प्रारम्भ हो चुका आदि, आरोह और अवरोह, तीनों भीष्म ही रहे।

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  22. एक सर्वथा भिन्न और चौंका देने वाला दृष्टिकोण.... सुखद और गहन ...!!!

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  23. yadi pita ke prati gahra virodh tabhi jata diya hota to mahabharat mein jeewan ke itne prasang kaise dekh milte...bhot gambhir avlokan hai apka maa....

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  24. रश्मि जी , आपने जैसे मेरी भावनाओं को ही सुन्दर सार्थक शब्द दे दिये हैं । यही सच है जिसे परम्परावादी विचारक मानना नही चाहते ।

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...