25 जुलाई, 2020

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 10

                                                             
 ताना-बाना
उषा किरण
शिवना प्रकाशन 


न जीवन मरता है
न सत्य
न झूठ
ना ही कल्पनाओं का संसार ...
पर समाप्ति की एक मुहर लगानी होती है, तभी तो एक नई सुबह का आगाज़ होता है, कुछ नया सोचा और लिखा जाता है ...
अनुभवों का एक और बाना ।
"हर बार गिरकर उठी हूँ
खुद का हाथ पकड़ पुचकारा
सराहा,समझाया..."
यूँ ही चलना होता है और तभी ज़िन्दगी साथ होती है और कुछ कहने की स्थिति बनती है ।
और तभी खुद में सिमटकर, खुद को जीते हुए कहती है मन की स्वामिनी
"इनदिनों बहुत बिगड़ गई हूँ मैं
अलगनी से उतारे कपड़ों के बीच
खेलने लग जाती हूँ कैंडी क्रश
...
बचपन मे सीखे कत्थक के स्टेप्स
आदी की चॉकलेट कुतर लेती हूँ"
...
चल रही हूँ बस अपने हिसाब से ।
ज़रूरी है मन, कभी कभी आसपास से,खुद के लिए बेपरवाह हो जाना, पुरवइया बन जाना,या बेमौसम की बारिश की शक्ल ले लेना - बिगड़ा कहो या बिंदास ।
हमेशा नफ़ासत अच्छी नहीं, थोड़ी मस्ती भी ज़रूरी है -
जीवन का पुलोवर बनाते हुए कवयित्री ने शोख़ी से कहा,
"क्यों जी
कई बार से देख रही
ये हर करवाचौथ जो तुम
कहीं बाहर जाते हो ... चक्कर क्या है
कहीं और कोई चाँद तो नहीं ?"
प्रत्युत्तर में भी शरारतें ना हों तो पूजा का अर्थ ही क्या !😊

क्रमशः

3 टिप्‍पणियां:

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...