मैं माँ,
समय की तपती रेत ने
मुझमें पिता के अग्निकण डाले
मातृत्व की कोमलता के आगे
मैं हुई नारियल
बच्चे की कटी उंगलियों को सहलाया
भयभीत चेहरे को
सीने की ताप से सहलाया
और लक्ष्य की ओर बढ़ने को कहा
(बिल्कुल अपने पिता की तरह)
क्योंकि दुनिया चर्चा करती है
सूरज के उगने और चढ़ने की
साथ ही, उसकी कोशिश होती है
हर तरफ से, उसी के विरूद्ध
चक्रव्यूह को गढ़ने की...
सनातन परंपरा है !
दरअसल दुनिया एक ज्वालामुखी है
जिसके अनुग्रह कोश से
सपनों की चिंगारियां मिलती हैं
जिनसे अपने उद्देश्यों की अग्नि सुलगती है
जिसमें निहित है,
एक एक करके
एक एक व्यूह को तोड़ना,
विपरीत जा रही
गंतव्य की दिशा का रुख
सायास अपनी ओर मोड़ना,
निरंतर स्वगत स्वस्तिवाचन से
स्वयं को जोड़ना
कि भले आज ये संभव न हो मगर,
असंभव कुछ नहीं होता।
मातृत्व की कोमलता के आगे
जवाब देंहटाएंमैं हुई नारियल
बच्चे की कटी उंगलियों को सहलाया
भयभीत चेहरे को
सीने की ताप से सहलाया
और लक्ष्य की ओर बढ़ने को कहा
.... समय के साथ खुद को सदा तैयार रखा,
की दौर कैसा भी आये मैं अपने बच्चों का सुरक्षा कवच बनूंगी, असंभव कुछ नहीं होता!!!
सादर वंदन,अभिनन्दन 🙏🏻🙏🏻
सच में असंभव कुछ भी नहीं।
जवाब देंहटाएंशानदार अभिव्यक्ति।
बिम्बों का अद्भुत प्रयोग अपने कथ्य को उकेरते हुए!
जवाब देंहटाएंलाजवाब
जवाब देंहटाएंअच्छी गवेषणा है।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 2.7.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा -3750 पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
माँ संतान की आँखों में सपने भरती है और देती है ऊर्जा उन्हें पूरा करने की..माँ से जीवन पनपता है और पोषित भी होता है बून्द बून्द ...
जवाब देंहटाएंवाह!आदरणीय दी सराहना से परे आपका सृजन.
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुन्दर आदरणीया। बहुत गहरी और सत्य बात।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
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