ताना-बाना
उषा किरण
सत्य का रास्ता एक युद्धभूमि ही तो है, पर उसके सलीब पर सुकून ही सुकून होता है । शरीर से बहता रक्त अमरत्व है,
-नीलकंठ की तरह ।
"सत्य बोलकर तुमने
अपनी सलीब खुद गढ़ ली थी ...
पत्थर मारने वाले
अपने हमदर्द, अपने दोस्त थे !"
कवयित्री की कारीगरी लुप्त होने लगी थी, उलझे फंदों के निकट न रास्ता था, न उम्मीद । हंसते,मुस्कुराते अचानक समय की कालकोठरी में कैद होकर बहुत डर लगा,
पर ---,
"एक युग के बाद
किसी ने आकर
वह बन्द कोठरी अचानक खोल दी!"
बिल्कुल उस कारावास की तरह,जहाँ से हरि गोकुल की तरफ बढ़े ।
"धूल की चादर हटाते सहसा
वही महकता गुलाब दिखा
जिसे बरसों पहले मैंने
झुंझला कर
दफ़न कर दिया था..."
आह, सांसें चल रही थीं, सिरहाने के पास रखी मेज पर सपनों की सुराही रखी थी, अंजुरी भर सपनों को पीया और बसंत होने लगी ।
क्योंकि,
"सोच का स्वेटर
बचपन से बुना"
बेढब ही सही ---
"आदत है बुनने की
रुकती ही नहीं
-,बस ... बुने ही जाती है ।
कितने अनचाहे, चाहे,
अनजाने, जाने, रास्ते मिले
किसी के आंसुओं में गहरे धंसी-फंसी,
कहीं बुझा चूल्हा देखा,
कहीं चीख,कहीं विलाप
कहीं छल, कहीं विश्वास ... न बुनती तो आज यहाँ न होती यह लड़की, जो पत्नी,माँ, नानी-दादी,...के दायित्वों को निभाते हुए,सपनों की सुराही से कड़वे-मीठे घूंट भरती गई, शब्दों के कंचे चुनती गई और बना दिया ताना-बाना .......
क्रमशः
चलता चले कारवाँ ताने बाने का।
जवाब देंहटाएंताने-बाने से नया ताना-बाना बाहर निकल रहा है
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
बहुत आभार रश्मिप्रभा जी....❤️
जवाब देंहटाएंओह रश्मिप्रभा जी पढ़ रही हूँ आपको बार- बार.....बस एक शब्द कहूँगी...निश्शब्द🥰
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23.7.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकवयित्री की रचना यात्रा कितने पड़ावों पर ठहरती कितनी पीड़ाओं को साथ लेकर चलती है और तब बुना जाता है ताना-बाना
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