ज़िन्दगी को आकार में ढालते, तराशते हुए, हम जाने किस प्रयोजन के चक्रव्यूह में उलझ जाते हैं, निकलते हुए वह विराट कई सत्य प्रस्तुत करता है और सिरहाने रखी एक डायरी,एक कलम अनकही स्थिति की साक्षी बन जाती है और वर्षों बाद खुद पर जिल्द चढ़ा ... लिख देती है ताना-बाना ।
"वो जो तू है
तेरा नूर है
तेरी पनाहों में
मेरा वजूद है"
एहसासों के फंदों के मध्य एकलव्य भी रहा, एक अंगूठा देता हुआ,एक अपनी और द्रोण की जिजीविषा को अर्थ देता हुआ ...
और कोई,
अंगूठे को काटता हुआ ।
प्रश्नों के महासागर में डूबता-उतराता हृदय चीखता है,
"कहो पांचाली !
अश्वत्थामा को
क्यों क्षमा किया तुमने?"
"(नदी)
क्यूँ बहती हो ?
कहाँ से आती हो,
कहाँ जाती हो?"
मन की गति मन ही जाने ...
"बार-बार
हर बार
समेटा
सहेजा
संभाला
और ...
छन्न से गिर के
टूट गया !"
क्रमशः
सुन्दर
जवाब देंहटाएंतेरी पनाहों में मेरा वजूद है... यह अहसास ही तो मन को सम्बल देता है बार-बार खुद को समेटने सहेजने का...
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर .
जवाब देंहटाएंnice
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