23 सितंबर, 2021

उसी की अदृश्य शक्ति


 


जब कभी' मंदिर गई हूं
और अगर भीड़ न हुई
तो ईश्वर को अपलक देखकर
मन ही मन बहुत कुछ कहकर
लौटी हूं ।
सिद्धि विनायक में
गणपति के मूषक के कान में
अपनी चाह बोलते हुए
ऐसा लगा है
कि गणपति तक बात चली गई
और जब बात चली गई
तो देर कितनी भी हो जाए
अंधेर की गुंजाइश नहीं रह जाती !
शिरडी की भीड़ में
जब अचानक साईं दिखे थे
तो आंखों से आंसू बह निकले थे
...
यूँ मैं मंदिर कम ही जाती हूं
विश्वास है
कि ईश्वर मेरे पास,मेरे साथ हैं
और ऐसे में जाना 
लगता है कि उनकी ही इच्छा होगी ...

दरगाह में धागा बांधते हुए
मैं धागा बन जाती हूं
धागे में दुआ मतलब
मुझमें दुआ ...
तो धागे संग दुआ बांधती हूं
और दुआओं के साथ 
खुद बंधती चली जाती हूं ।

स्वर्ण मंदिर गई
तो उसके निकट
अपने आप में एक अरदास बन गई हूं
कड़ा लेकर ऐसा लगा
जैसे मेरा मन ही स्वर्णिम हो गया हो ।

महालया के दिन
पूरी प्रकृति माँ दुर्गा बन जाती है
कलश स्थापना करते हुए
मिट्टी में जौ मिलाते हुए
यूँ महसूस होता है कि
मैं मिट्टी से एकाकार हो रही हूं
और चतुर्थी से हरीतिमा लिए
 नौ रूप का शुद्ध मंत्र बन जाती हूं ।
अखंड दीये का घृत बन
स्वयं में एक शक्ति बन जाती हूं ।

सुनकर आप विश्वास करें
ना करें
मुझे कवच,कील,अर्गला, तेरह अध्याय
और क्षमा प्रार्थना में 
जीवन का सार मिल जाता है
और हवन के साथ
मैं मंदिर मंदिर गूंज जाती हूं
यज्ञ की अग्नि में
रुद्राभिषेक के जल में
मैं खुद कहाँ नहीं होती हूं !

मैं मंदिर
मैं गिरजा
मैं गुरुद्वारा ...
कैलाश से गुजरती हवाओं में मैं हूं
जहां जहां से मुझे पुकारा है
वहां वहां मैं रही हूं
और रहूंगी ... 
उसकी ही तरह
उसकी शक्ति - सी
अदृश्य पर सर्वदा !!!

19 सितंबर, 2021

स्त्री लिपि


 

मनुस्मृति के पन्नों पर
एक श्रद्धा थी स्त्री लिपि
जो मनु की ताकत बन पहुंची थी
उसके उद्विग्न मन के आगे,
 थमाई थी उसे अपनी जीवनदायिनी उंगली
और प्रकृति के कण कण में मातृरूप लिए
 हवाओं की छुवन को आत्मसात किया था ।

विश्वास था उसे,
अब कोई प्रलय नहीं आएगा
तभी उसने युगों का आह्वान किया
यज्ञ कुंड बनी
वृंदा बन हर आंगन पहुंची ... 
पर नियति निर्धारित झंझावात में
वह प्रश्न बनकर प्रवाहित होने लगी,
एक नहीं,दो नहीं
जाने कितने कटघरे बन गए
और स्त्री लिपि वर्जित हो गई ।

उसे विध्वंस का कारण बना दिया गया
उसके शुभ कदमों को रोकने,जलाने के उपाय होने लगे,
कन्या पूजन के नाम पर
माँ दुर्गा को छला जाने लगा
कन्या के जन्म से पूर्व ही
उसे मृत्युदंड दिया जाने लगा ...

अनगिनत घरों से दुर्गंध आने लगी
तब पुनः स्त्रियों ने अपने अस्तित्व को संवारा
खुद को मशाल बना 
खुद को खुद में लिपिबद्ध करने लगी
स्पष्ट शब्दों में लिखा,
नारी तुम केवल श्रद्धा नहीं हो
मनु को जीवन देनेवाली
उसे अर्थ देनेवाली संजीवनी हो ।

परोक्ष का मौन,
तुम्हें कमज़ोर बनाता गया है
उस मौन की कारा से बाहर निकलो,
अपना पूजन स्वयं करो
अपनी शक्ति से अपना अभिषेक करो
और चण्डमुण्ड,रक्तबीज,महिषासुर का
वध करो,
किसी भी युग के आह्वान से पहले
खुद का आह्वान करो ...



14 सितंबर, 2021

नज़रिए का मोड़


 

बात सिर्फ नज़रिए की है
कौन किस नज़रिए से क्या कहता है ,करता है
कौन किस नज़रिए से उसे सुनता,और देखता है
और इन सबके बीच 
एक तीसरा नज़रिया
उसे क्या से क्या प्रस्तुत कर देता है,
जाने क्या मायने रखता है सबके लिए !!!

ईमानदारी बहुत कम है दोस्तों,
कुतर्कों की अमर बेल तेजी से फैल रही है...
आलीशान घर हो या फुटपाथ
सबके पास एक मोबाइल है
और मोबाइल पर - क्या नहीं है !

गली गली, हर मोड़ पर
अजीब अजीब विचार और व्यवहार तैर रहे हैं,
जो नहीं तैर पाया उनके साथ
वह डूब गया ।
कोई डूबना नहीं चाहता
ऊपर रहने के लिए बगैर कपड़ों के भी आना पड़े
तो यह उनका नज़रिया है,
व्यक्तिगत मामला है ।

... मैं सोचती रहती हूं
डुबो या तैरो
आखिर कब तक !!!
एक दिन वही शमशान होगा
वही चिता होगी
या कोई अनजान जगह ...
जहां खोकर पता भी नहीं चलेगा !

कभी कभार चर्चा होगी,
जब तक कोई जाननेवाला है
उसके बाद कहानी 
कब, कैसे कैसे मोड़ लेगी
अनुमानों की चपेट में आएगी

कौन जाने !!!

13 सितंबर, 2021

जर्जर परंपरा तोड़ दो


 



स्त्रियां निर्जला व्रत प्यार का प्रतीक मानती हैं
पति,बच्चों के लिए ...
ऐसा करके वे खुद को मान लेती हैं सावित्री
और दृढ़ माँ !
अनादि काल से ऐसा देखते देखते 
पुरुषों ने,बच्चों ने मान लिया
कि उनकी पत्नी
उनकी माँ - सबसे जुदा हैं ।
गर्व से कहते हैं सब,
"बिल्कुल कुछ नहीं लगा ...!"

न लगने की यूँ कोई उम्र नहीं होती,
पर वह उम्र -
जब दवा के सहारे जीने लगता है आदमी,
तब खुद को सबसे जुदा रखने के लिए
खुद के लिए सोचना चाहिए,
सोचना चाहिए पति और बच्चों को
कि पानी बगैर रहना
सारी व्यवस्था करके पूजा पर बैठना
सर्कस का सबसे बड़ा खतरनाक खेल है
उंगली थमाते थमाते अचानक
ईश्वर भी हतप्रभ हो उठते हैं 
और कहने को रह जाता है एक ही वाक्य,
"नहीं करती तो कुछ हो जाता, "
...... 
ईश्वर कहें या आप,
पर रो रोकर 
दबी आवाज़ में 
बार बार यह कहने से अच्छा है
इन प्रश्नों और
व्यर्थ टिप्पणियों के चक्रव्यूह से 
बाहर निकलें
मन को गंगाजल कर लें
और मानसहित कहें -
"बहुत हुआ, अब रहने दो
हमारे लिए है ना 
तो हम कहते हैं, 
आज हमें कहने दो -
तुम स्वयं दुआओं का कलश हो 
जिसके जल से हम रोज़ नहाते हैं
तुम्हारी आंखों के गोमुख से 
जिस जाह्नवी की धारा बहती है
उसमें प्रतिपल भीग जाते हैं 
तुम्हारे अंतर का पूजागृह 
जिसके कपाट
कभी बंद ही नहीं होते हैं
तुम्हारी बातें हैं हर की पौड़ी 
जहां सुबह शाम उतर कर 
हम अपने सारे कष्ट धोते हैं 
तुममें सांस लेता है हर व्रत,
हर मंदिर, हर तीर्थस्थल 
तुमसे पावन नहीं हो सकता 
कोई पुरी या रामेश्वरम
या गंगासागर,
कोई कैलाश मानसरोवर
या मुक्तिदायिनी
भागीरथी का जल... 
तुम्हारा है हमारे भीतर वास
जर्जर हो रही इस परंपरा को
तोड़ दो
अब छोड़ भी दो 
ये निर्जला व्रत
यह उपवास।"

03 सितंबर, 2021

बरसाने की राधिका


 


साठ की कुछ सीढ़ियां चढ़ तो गई है वह स्त्री,

लेकिन वह उम्र और कर्तव्यों का
एक ढांचा भर है !
प्रेम उसका सपना था
प्रेम उसकी ख्वाहिश थी
अपनी पुरवा सी आंखों में
उसने प्रेम के बीज लगाए थे
 प्रेम की सावनी घटा बनकर
धरती के कोने कोने में 
थिरक थिरक कर बरसी थी।
इंद्रधनुष के सातों रंग
उसके साथ चलते थे,
गति की तो पूछो मत
हिरणी भी हतप्रभ हो दांतों तले उंगली दबाती थी  ।
ख्यालों में उसके कोई देवदार सा होता
और वह अल्हड़ लता सी
उससे लिपट जाती थी,
प्रेम का अद्भुत नशा था
अद्भुत उड़ान थी
कब वह कैक्टस से उलझी
कब उसके पंख टूटे
जब तक वह समझे
संभले 
वह दो उम्र में विभक्त हो चुकी थी,
एक प्रेम
एक मौन कर्तव्य !
मौन कर्तव्यों की यात्रा में
उसके चेहरे पर 
कब थकान की पगडंडियां उगीं
कब बालों का रंग मटमैला हुआ
कब पैरों के घुटने समाधिस्थ हुए
उसे खुद भी पता नहीं चला ।
तस्वीरों में
आईने में कई बार
खुद को ही नहीं पहचान पाई है
क्योंकि ख्वाबों में आज भी वह 
विद्युत गति से नृत्य करती है
अनिंद्य सुंदरी बन
अपनी पलकों को झपकाते हुए
प्रेम के शोखी भरे गीत गाती है 
सुनती है -
रावी और चनाब के किनारे
उसके नाम की तरंगें उछालते हैं 
एक उसे हीर कहता है 
एक अपनी सोहणी बताता है 
और दोनों किनारों के 
दरमियान खड़ा 
एक जवां अधीर साया 
उसके कानों में गुनगुनाता है 
"जलते हैं जिसके लिए
तेरी आँखों के दीये .."
इसे सुनकर, रोमांचित होकर 
वह ज़िंदगी के दरवाज़े पे लगे 
खामोशी के ताले खोलती है 
मुस्कुराते  हुए 
पड़ोसी दिल से बोलती है  ... 
"वह गोकुल का छोरा 
नटखट ग्वाला 
नंदलाला  ... 
युग बदले 
पर वह 
कण भर भी नहीं बदला  ... 
तो मैं आज भी 
बरसाने की 
राधिका ही हूं ना !


एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...