16 जनवरी, 2008

मान



कुन्ती पुत्र कर्ण
"सूत पुत्र" की धार पर
क्षत्रिय होने का क़र्ज़ चुकाता रहा।
कर्तव्य ! परिवार ! राज्य के नाम पर
अपने "स्व" की परीक्षा देता गया
कुन्ती की एक खामोशी ने
उसके जीवन का सम्पूर्ण अध्याय बदल डाला
हर कदम पर
एक परिचय के नाम पर
अपमान का गरल पीता गया
सगे भाइयों के होते
भ्राता हीन रहा...
हर रिश्ते की नाज़ुक डोर से वंचित ही रहा
कुन्ती ने हर बार व्यथा का ढोंग किया
मात्री धर्म के नाम पर
पांच पुत्र का दान लिया
परोक्ष मे माता ने
कर्ण को मृत्यु दान दिया !
इतने बडे ढोंग व्यूह के आगे
दुर्योधन ने ही आगे बढ़ कर साथ दिया
कुन्ती दे न सकी अपना नाम कभी
दुर्योधन ने राज्याभिषेक के साथ
कर्ण को क्षत्रिय कुल का मान दिया

2 टिप्‍पणियां:

  1. karna ke sath nainsafi tho hui thi,bahut achhe shabdh mein bayan kya hai aapne badhai.

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  2. अच्छी है यह भी ..सही लिखा है .सच बोलने की हिम्मत किसी किसी में होती है अच्छी कविता है यह !!

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