25 मार्च, 2008

या ...


रोज़ देखा करती हूँ सामने

घर बनाने का काम...

ईंट-गारे,पत्थरों की भरमार

कई रोज़गार मजदूर...

सपने को पूरा करने में ,अपना योगदान

पूरे मनोभाव से दे रहे हैं.......


'अपना घर'

एक सुकून होता है,

बरगद की घनी छांव-सा लगता है,

नई ज़िंदगी का आरंभ लगता है!


नन्हें पैरों के निशाँ,

बुजुर्गों की हिदायतें

आँगन,दीवारों में गुंजायमान होती हैं!


रफ्ता-रफ्ता

रिश्ते बदल जाते हैं,

व्यवस्था बदल जाती है,

मन की इमारत खंडहर में तब्दील हो जाती है!

आंखों की रौशनी कम

आवाज़ धीमी पड़ जाती है ,

बुद्धि बेवकूफी में बदल जाती है........


'घर' एक इत्तेफाक है

या.......सुकून?

या, पूरी ज़िंदगी बेमानी?

या,

एक सिलसिला खंडहर का???????????????

8 टिप्‍पणियां:

  1. ek bar phir se adbhut rachana tumahre ek man men hazar man hain ye shayed ekl man ke hee itne tukde huye hain bahut achha hai

    Anil

    जवाब देंहटाएं
  2. "'घर' एक इत्तेफाक है
    या.......सुकून?

    या, पूरी ज़िंदगी बेमानी?
    या,
    एक सिलसिला खंडहर का???????????????"

    बहुत ही प्रभावी तरीके से सामाजिक-पारिवारिक मिथ्याबोध को उकेरा है आपने अपनी कलम से..

    जवाब देंहटाएं
  3. घर हो या ज़िंदगी, इस इत्तेफा़क़ का सुकून जितनी देर को है, उतनी देर में ही शायद सब कुछ ....... लेकिन ये मोहलत कितनी कम होती है न ??
    ख़ैर, बहुत अच्छी रचना. बधाई. वैसे इन खंडहरों के बारे में मेरा मन भी कुछ कहता है कभी कभी. क्या ? ये किसी दिन आ ही जायेगा काग़ज़ पर.

    जवाब देंहटाएं
  4. ''या॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰'' कविता के माध्यम से रश्मि जी आपने जीवन की यात्रा को बहुत ही सहजता से प्रस्तुत किया है॰॰॰॰॰ आप बधाई की पात्र हैं॰॰॰॰॰ शुभकामनायें ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰

    जवाब देंहटाएं
  5. "रफ़्ता रफ़्ता रिश्ते बदल जाते हैं",बहूत बढियाँ लगा पढ्कर ""

    जवाब देंहटाएं

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...