30 नवंबर, 2010

गुटुक !



ये बनाया मैंने बांहों का घेरा
दुआओं का घेरा
खिलखिलाती नदियों की कलकल का घेरा
मींच ली हैं मैंने अपनी आँखें
कुछ नहीं दिख रहा
कौन आया कौन आया
अले ये तो मेली ज़िन्दगी है ...

ये है रोटी , ये है दाल
ये है सब्जी और मुर्गे की टांग
साथ में मस्त गाजर का हलवा
बन गया कौर
मींच ली हैं आँखें
कौन खाया कौन खाया
बोलो बोलो

नहीं आई हँसी
तो करते हैं अट्टा पट्टा
हाथ बढ़ाओ .....
ये रही गुदगुदी
कौन हंसा कौन हंसा
बोलो बोलो बोलो बोलो
जल्दी बोलो
मींच ली हैं आँखें मैंने
गले लग जाओ मेरे
और ये कौर हुआ - गुटुक !

26 नवंबर, 2010

अपनी ही निगाह में अजनबी


कई बातें हमें उद्वेलित करती हैं
पर आत्मसात करना हार नहीं
मजबूती है ...
मजबूत दीवारें ही बता पाती हैं
कि मुझे बेधना आसान नहीं ...
बिल्कुल ज़रूरी नहीं
कि हम बाहर बारूद बिछा दें !
धमाके से किसी निर्दोष का अवसान
क्या हमें सुकून देगा
क्या किसी पंछी का बसेरा
फिर कभी हमारे दालान में बनेगा ?
...
हमें मजबूत होना है
सजग होना है
ना कि असली फूलों की खुशबू से विलग होना है
..
दुर्भाग्य !
तरह तरह की दलीलों से
हम बनावटी होकर रह गए हैं ...
चेहरा नकली
बोली नकली
खिलखिलाहट नकली ..
डर लगता है
हम सब अपनी ही निगाह में
अजनबी होकर रह गए हैं !

24 नवंबर, 2010

एक चुटकी नमक




'राजा बनने की धुन में उसका बचपन बीता ...'
कहते हुए
उसके अपने और वह खुद
भूल जाता है
कि वह राजकुमार था !

उसके खेल भी असाधारण थे
वह अयोध्या का राम बनता
या गोकुळ का कृष्ण !
शब्दों की बाज़ी हारते हारते
उसने शब्दों की खेती की
अनमोल बीजारोपण किया
जिसकी उर्वरक क्षमता ने
शब्दों के कोरे महारथियों को
घुटनों के बल
खुद तक आने को मजबूर किया !
प्रजा खुश रही
पर घर की दीवारों ने
बगावत किया ........

राजा की तरह मंद मुस्कान लिए
समूह से अलग चलता राजा
अपनी खुद्दारी का
झूठा दंभ भरता है
हीरे जवाहरातों में
एक चुटकी नमक ढूंढता है

20 नवंबर, 2010

गुजारिश ... (एक काव्यात्मक समीक्षा )




गुजारिश है.. एक छोटी सी गुजारिश
गुजारिश देखिये
औरों के नज़रिए से नहीं
अपना नज़रिया जानने के लिए ..
इथेन का दर्द
सोफिया की सेवा
देवयानी की दोस्ती
ओमार की निष्ठा और प्रायश्चित
डॉक्टर का अपनत्व
माँ के प्रेम की स्पष्टता
स्टेला की आतंरिक समझ...
कहीं भी आँखों से आंसू नहीं बहे
बस मन इथेन को जीता गया
अलग अलग हिस्सों में ...
लीक से अलग एक सच
शोर से परे कुछ जज्बाती गीत
जो गुजारिश करते हैं
प्यार को समझने की !

08 नवंबर, 2010

अधिकार वजूद का



एक स्त्री प्रेम में
राधा बन जाती है
खींच लेती है एक रेखा प्रेम की
एक मर्यादित रेखा
सीमित हो जाती है उसकी दृष्टि
एक साथ वह कई विम्ब बन जाती है
- सीता, राधा, ध्रुवस्वामिनी,यशोधरा ,
हीर, सोहणी

पर पुरुष !
क्यूँ नहीं बनता कोई विम्ब
खींचता कोई मर्यादित रेखा
उसकी रेखाहीन ज़िन्दगी में
कई चिताएं सुलगती हैं
जीते जी राधा, सीता,
ध्रुवस्वामिनी,यशोधरा की मौत
हर बार होती है
एक अंतहीन सिलसिला है
सुलगते एहसासों का ...

प्यार परिवर्तन नहीं मांगता
पर अधिकार तो मांगता है
एक ठहराव का
अपने वजूद का

02 नवंबर, 2010

इस तरह जाना और माना



बहुत छोटी थी
हाँ यही कोई ५ ६ साल की
जब वह चला गया ...
कितनी लड़ाई होती थी 'दीदी' सुनने के लिए
....
और वह चला गया
समझ ही नहीं पायी कि यह जाना
कभी न आना होता है
और जैसे जैसे लगा
मुझे लगा --- मैं गरीब हो गई
'दीदी' कहने को कोई नहीं
...........
कोई मिलता , पूछती
'दीदी' कहोगे मुझे
धीरे धीरे जाना यह आसान नहीं
...........
........
स्कूल में एक दोस्त की ज़रूरत थी
ऐसा दोस्त
जो मेरा हो सिर्फ मेरा
माँ ने कहा था
दोस्त  है वह डायरी
जहाँ हम कुछ भी लिख सकते
और कोई उन पन्नों को नहीं खोल सकता ...
..........
और खोज में जैसी तैसी कॉपी उठा ली
जिसके पन्ने बड़ी जल्दी फट गए
या स्याही फ़ैल गई
तब जाना यह भी इतना आसान नहीं
तभी तो अपने बच्चों को बताया---
'एक दोस्त मिल जाये
तो समझो तुम भाग्यशाली हो
दूसरा - बहुत है
तीसरा - हो ही नहीं सकता'
.........

फिर मैंने प्यार की तरफ देखा
क्या होता है प्यार !
किसी का अच्छा दिखना?
किसी की याद आना ?
किसी की राह देखना ......
तभी माँ ने एक कहानी सुनाई
इंग्लैंड के एडवर्ड की कहानी
जिन्होंने प्यार के लिए
इंग्लैंड का राज्य त्याग दिया ............
मुझे एडवर्ड से प्यार हुआ
यूँ कहिये ... एडवर्ड ने एहसास दिया कि
प्यार में प्यार से ऊपर कुछ भी नहीं
मैंने भूखे रहकर देखा
मैंने उस एक ख्वाब के आगे
अंगारों पर चलकर देखा
देखा -
मेरे अन्दर सिमसन जीती है
सोहनी, और हीर जीती है
मैंने प्यार किया बहुत प्यार किया
और ज़िन्दगी को गीत बना लिया .....

इन गीतों में मेरी धड़कनों का प्राण संचार हुआ
शक्ल उभरे
मुझे माँ कहा
और मेरी सोच को
खुद पर भरोसा हुआ !

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...