वह पल -
निःसंदेह
न आकर्षण था
न कोई गलत भावना
न बेवकूफी न नाटक ....
रात से सुबह तक
मेघ बरसते रहे
और हमदोनों हथेलियों में
सागर को भरते रहे !
न व्यर्थ का शर्माना था
न दिखावे की ललक
एक अविराम दीया
अनवरत हमारे मध्य जलता रहा....
रास्ते बदले
चेहरे बदले
बालों पर अनुभवों की सफेदी उतर आई
पर सोच नहीं बदली !
रात गए एक दीया हमारे मध्य
अदृश्य बना जलता ही रहा
कभी तुमने ओट दिया
कभी मैंने ...
पहाड़ टूटकर बिखर गए
न जाने कितने मौसम बदले
आग की तपिश थमी
पुरवा ने द्वार खोले ...
तब माना -
कितनी निष्ठा से प्रभु ख़ास रिश्ते बनाता है
किसी भी नाम से परे ...
चाहो तो कई नाम
ना चाहो तो बेनाम
पर तपस्वियों सी आस्था !!!