देवदार कहूँ तुम्हें
तो अतिशयोक्ति नहीं होगी
बड़ी से बड़ी आँधियाँ भी
तुम्हारे व्यक्तित्व को धूमिल नहीं कर पातीं ...
पर तुम्हारे सामर्थ्य से परे
तुम्हारे खड़े होने के दर्द को
मैंने अपने पैरों में महसूस किया है
तुम्हारे उन्नत मस्तक के आगे नत
सूर्य के तेज के आगे
तुम्हारी अविचल छवि की गरिमा से अभिभूत
मैंने जीवन को जीवन बनाया है
तुम्हारी हर शाखाओं से प्रेरणा ली है ...
' देवदार बनो ' - यूँ ही नहीं कहते सब
बनना वही होता है
वही चाहिए
जो आसान नहीं होता
सरल सीधे रास्ते
व्यक्तित्व का निर्माण नहीं कर पाते
आँधियों से गुजरकर ही अडिग रहना आता है
विषम परिस्थितियाँ ही अनुकूल होना सिखाती हैं
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देवदार को खुद में समाहित कर
देवदार में खुद समाहित होकर
तुमने ऋषि मुनियों के तप का अर्थ बताया
तुम्हारी दृष्टि में तपस्वियों सा तेज
और 'एकला चलो' सा भाव
अनुकरणीय हैं ...
तुम्हारे पैरों के निशां
बहुत अहमियत रखते हैं उनके लिए
जो देवदार बनना चाहते हैं
और उनके लिए भी
जो कडवी ज़िन्दगी , कड़वे बोल को
अपनी पूर्णता मान लेते हैं !!!