विदा की बेला में
रुकने की बात कर
क्यूँ मेरे मन को कातर कर रहे हो
विदा का जश्न मनाते
तुम तो घड़ी की सुइयों में अटके हो
कब १२ बजे और नया साल आए ...
आँखें तो मेरी छलकने को हैं
कुछ पल के लिए मेरी सोचो ,
मैं एक वर्ष की अवधि लेकर आता हूँ
हर घड़ी साथ रहता हूँ
मेरे स्वागत में जो संकल्प तुम उठाते हो
उसे दूसरे दिन भूल जाते हो
.... कभी सोचा है
उस संकल्प को टूटता देख
मुझे कैसा लगता है !....
मैं कोई बच्चा नहीं
न ही तुम्हारा रिश्तेदार हूँ
मैं ईश्वर द्वारा दिया गया मौका हूँ
वह पन्ना -
जिसे तुम नया अर्थ दे सको ...!!!
लेकिन तुम - !
तुम तो निर्माण से अधिक विध्वंस करते हो
और परिणाम के चक्रव्यूह में जब खुद आ जाते हो
तो साल को खराब कहते हो
कितनी चालाकी से तुम खुद को बेदाग़ रखते हो !...
वर्ष तो ३६५ दिन की मोहलत देता है
कई विशेष दिन की खुशियाँ
पर तुम ...
इतनी बेचारगी है तुम्हारे पास
कि कुछ भी स्थाई नहीं ...
हो भी नहीं सकता
क्योंकि तुम्हारा स्वभाव ही डगमगाता रहता है
.... संभव हो तो स्थायित्व का संकल्प लो
फिर मेरे हर पल में तुम होगे
और होगी मेरी ख़ुशी
तुम्हारी जीत में
दुआ है-
मेरा नया आरम्भ तुम्हारा हो ...