वह कोई भारी भरकम व्यक्तित्व के साथ किसी से नहीं मिलता , उसके व्यक्तित्व से झरना बहता है . एक मुट्ठी दाने लिए जब वह कबूतरों से बातें करता है तो कबूतर भी चिरंजीवी हो उठते हैं ... हर आज में है वो शक्स अपने प्यार के साथ - आज यानि इमरोज़ और प्यार - अमृता .
पहली बार बहुत हिम्मत जुटाई थी मैंने और मोबाइल पर नम्बर घुमाया था ... धड्कनें साफ़ सुनाई दे रही थीं . पता नहीं किस आवाज़ में इमरोज़ बोलेंगे , बोलेंगे भी या नहीं - और उधर से फोन उठा - हलो .... और अपरिचित सा कुछ नहीं लगा .
निर्वाण की हर सीमाओं को छू लिया है इमरोज़ ने - कोई उनके पास से खाली हाथ नहीं लौटता . न उम्र की बंदिशें , न इन्सान की , न जाति न धर्म ! उनके साथ समय भी आज यानि इमरोज़ बन जाता है . कोई फ़कीर जैसे जीवन की सौगात दे जाए , इमरोज़ से मिलकर , उनसे बातें कर ऐसा ही लगता है . स्नेह, आशीष, भरोसा - सब मिलता है . उनके संपर्क में आकर खुद का व्यक्तित्व ख़ास बन जाता है .
हाँ मैं भी ख़ास हो जाति हूँ , जब डाकिया मेरी दहलीज पर आता है और एक लिफाफा गुनगुनाती नदियों का थमा जाता है ... लिफाफे पर लिखा होता है -
पोएम्स फॉर पोएम्स - है न ख़ास एहसास ! मैं वाकई कविता की त्रिवेणी बन जाती हूँ और शब्द मेरे भीतर डुबकियां लगाने को अधिक आतुर हो जाते हैं . मेरे शब्द जब तक नहाकर , अपनी आकृति में प्राण-प्रतिष्ठा करें , उससे पहले उन ख्यालों , उन नज़्मों से गुजरें - जो इमरोज़ ने मुझे देकर कहा - तुम्हारे नाम !
"पता नहीं
मैंने ये जागकर देखा है
या ख्वाब में
कि मैं अपने आपको फूलों में खड़ा पाकर
ये देखता हूँ
शबनम सो रही है
खुशबू भी खामोश है
सूरज भी अभी आया नहीं
और हवा के साथ एक नज़्म
चली आ रही है...
देखते-देखते
सूरज भी आ पहुंचा है
और साथ ही एक किरण सी नज़्म
भी आ गई है...
अब ये नज़्म मेरे सामने
चुपचाप खड़ी मुझे देख भी रही है
और हँस भी रही है....
अभी-अभी
मेरे मोबाइल पर
एक नज़्म का मैसेज मिला है
" कि मैंने ही तेरे दिल का
दरवाज़ा खटखटाकर
तुम्हें जगाया है
ये कहने के लिए
कि आज मेरा जन्मदिन है...."
कुछ क्षणिकाएँ -
(१)
कुछ भी दुहराने से
शब्द ताजा नहीं रहते
किसी भी चारदीवारी में
ना हवा ताजा रहती है
ना ही किसी की सोच..
खुली हवा में
नई सोच ही ताजगी है
नदी में भी ताजगी
नए पानी से ही रहती है ..
(२)
वह नदी है
मैं किनारा
वह नदी की तरह बहती आ रही है
और मैं ज़रखेज़ होता जा रहा हूँ
(३)
सुबह भी उसके साथ
दिन भी उसके साथ
शाम और रात भी
ख्वाब भी उसके साथ
यह रहमत होती रहती है
अपने आप
बगैर खुदा को जगाये ..
और ---
(१)
मैं पीले फूलों का पेड़ हूँ
तुम सब
इस पेड़ के नीचे बैठकर
मेरे फूलों से खेलते रहो
तब तक
जब तक यह पेड़ है ...
(२)
मैं हवाओं पर लिखता रहता हूँ
तुम इन हवाओं को पढ़ती जाओ
प्यार की खुशबू मिलती रहेगी ...
मेरे लिए मेरे कहने पर इमरोज़ ने मेसेज करना सीखा , उम्र से परे इतनी सरलता , सहजता ..... खुशियों की पिटारी से नज़्म निकलते और एक पल में मुझ तक आ जाते -
(१)
तुम तो बॉर्न हीर हो
और जो लिखती हो
उसे रांझा पढ़ लेता है
तुम लिखती रहो
वो पढता रहेगा
इंतज़ार करता रहेगा ..
(२)
तुम सीक्रेट की (चाभी) हो
अपने आप को पाने की
और हर कोई सीक्रेट नहीं हो सकता !
(३)
तेरी कविता तो दिन के ख्वाब बन रहे हैं
यह कविता
कहाँ इंतज़ार करती है
-किसी रात का
(४)
तेरी जगी-जगी नज्में और सोच
मन में महक रही है
तुम्हें पढ़-पढ़कर
तुम्हें सोच-सोचकर
ज़िन्दगी गुडमोर्निंग करती रहती है....
(५)
हर कोई पूछता है
प्यार क्या होता है
.... मिलकर रहना,
बस इतना ही !
कितनी सरलता से इमरोज़ कहते हैं -
"सतयुग मनचाही ज़िन्दगी का नाम है
किसी आनेवाली ज़िन्दगी का नहीं ..." सच है , हम इंतज़ार से हटकर अपने हाथों अपनी ज़िन्दगी को सतयुग बना सकते हैं , अपने छोटे से घर को पर्ण कुटी ....
अपने और अमृता के बारे में ढेर सारी बातें बताने के क्रम में इमरोज़ ने कहा था -
"एक बार अमृता ने पूछा
'तू क्या बनना चाहता है ?'
मैंने कहा-
लोकगीत !
वो मुझे देख देख हंसती रही
मैं कहता गया-
मुझे रंगों से खेलना अच्छा लगता है
मेरे ख्यालों को नज़्म बनना अच्छा लगता है
पर मुझे
न आर्टिस्ट बनना है
ना कवि
बस मुझे लोकगीत ही रहना है ..."
सुनकर लगा कि फुर्सत से खुदा ने इस गीत के बोल लिखे , जिसे जो सुन ले - वह कुछ पल के लिए ही सही - एक लोकगीत बन जाता है .
कल डाकिया फिर मेरे घर आया और दे गया इमरोज़ के एकांत में पनपते एहसासों को , जिसे यदि उनके साथ मिलकर मैंने बांटा नहीं तो मैं कविता नहीं कहलाउंगी और मैं चाहती हूँ कि पोएम्स फॉर पोएम्स हमेशा हो .
" एक दिन दिल का दरवाज़ा खटका
कोई सामने खडी थी
पहचानी नहीं गई ...
कहा,
मैं वही हूँ -
तुम्हें फिर मिलूंगी वाली नज़्म
जो जाते वक़्त तुम्हें दे गई थी !
तुम्हें याद हो के ना ,
तू मुझे रोज सुबह की चाहें भी देता था
और रात को एक बजे चाय बनाकर दे जाता था
तब - जब मैं लिख रही होती थी ...
उसे देखकर उसे सुनकर
मुझे वह याद आ गई
साथ उसकी नज़्म भी
और अपनी चाहें भी ...
पूछा -
पर तू नज़्म देकर चली कहाँ गई थी
क्या अनलिखी नज्में लिखने ?
तो कहाँ है वो नज्में ?
कहा उसने-
तुम तक आते आते
सारी की सारी नज्में
राह में राह हो गई
फिर न जाना कहीं ...
ठीक है - नहीं जाऊँगी ...
इस बार मैं अपने आपके साथ जागकर
सीधी तेरे पास आई हूँ
अपने अजन्में बच्चे भी साथ लेकर ...
चल पहले तू चाय बना
चाय पीकर हम पहले की तरह रसोई करेंगे
और मिलकर घर घर बनेंगे
फिर पूछा उसने -
तेरे सब रंग कहीं नज़र नहीं आ रहे ....
मेरे सब रंग अब हीर गाने लग गए हैं
क्या सुरीला परिवर्तन है ...
तू अब वक़्त की वादियों में रोज हीर गाया करना
और मैं तेरे लिए हीर लिखा करुँगी
हीर बनकर , राँझा बनकर
और वारिस बनकर ...................
पढ़ती गई हीर रांझे में लिपटी अमृता इमरोज़ की यादों को और उम्र को नकारकर , अकेलेपन को नकारकर इमरोज़ के हर कैनवस पर उभरती अमृता को ...
बिना किसी उम्मीद के खूबसूरत ख्याल देना यदि सीखना हो तो इमरोज़ से मिलिए