24 सितंबर, 2012

. शायद कुछ नहीं...





तुम एक ताबूत 
हो 
जिस पर वेदनाओं की कीलें लगी हैं !
ताबूत के अन्दर 
असह्य यादों की मुड़ी तुड़ी सिलवटें 
हर सिलवटों में एक राज ...
तुम्हें आदत नहीं अस्त-व्यस्त रहने की
तो हर दिन वेदनाओं की कीलों को
वेदना सहकर निकालती हो
बढ़ाती हो हाथ-
सिलवटों को सीधा करने के लिए 
पर ....
नहीं कर पाती तुम !
बात साहस की नहीं 
दर्द की है
राज को यूँ सरेआम करना होता
तो इतना लम्बा समय नहीं गुजरता
रात के सन्नाटे में  ख़ालिस रूह बनी
अपने कमरे के मुहानों पर तुम नहीं भटकती !
गिरेबान पकड़ना आसान होता है
पर जिस गिरेबान की असलियत तुम्हें चुभती है
उसे साफ़ सुथरा रहने देना 
सिर्फ इंसानियत नहीं
कई रिश्तों का मान है !
मैंने महसूस किया है 
कि उन रिश्तों ने तुम्हारा मान कभी नहीं रखा 
क्योंकि उन्होंने मान लेना सीखा
देने में उनकी तार्किक कीलें ही 
शरीर को ताबूत बनाती गईं 
धंसती गईं ...
काश...! समय की आपाधापी में 
तुम शव बन जाती 
पर तुम ...
हर रात उम्मीदों पर टूटी उम्मीदों का कफ़न चढ़ा 
उनका अग्निसंस्कार कर
आँखों के गंगा जल से खुद को शुद्ध करती हो 
और करती हो 
---शरीर से रूह  
रूह से शरीर तक का सफ़र 
......
तुम मुक्त होकर भी मुक्त नहीं
हो भी नहीं सकती ...
तुम खुद में एक ताबूत हो 
अन्दर तुम्हारे दर्द
बाहर ........ शायद कुछ नहीं
कुछ भी नहीं !!!

30 टिप्‍पणियां:

  1. तुम मुक्त होकर भी मुक्त नहीं
    हो भी नहीं सकती ...
    तुम खुद में एक ताबूत हो
    अन्दर तुम्हारे दर्द
    बाहर ........ शायद कुछ नहीं
    कुछ भी नहीं !!!.........
    .
    .
    .

    संवेदनाओ को भीतर तलक छूती हुए कविता

    जवाब देंहटाएं
  2. तुम मुक्त होकर भी मुक्त नहीं
    हो भी नहीं सकती ...
    तुम खुद में एक ताबूत हो
    अन्दर तुम्हारे दर्द
    बाहर ........ शायद कुछ नहीं
    कुछ भी नहीं !!...सही कहा रश्मि जी, कभी कभी अंदर का दर्द बाहर नही दिखता

    जवाब देंहटाएं
  3. हर रात उम्मीदों पर टूटी उम्मीदों का कफ़न चढ़ा
    उनका अग्निसंस्कार कर
    आँखों के गंगा जल से खुद को शुद्ध करती हो
    और करती हो
    शरीर से रूह
    रूह से शरीर तक का सफ़र
    तुम मुक्त होकर भी मुक्त नहीं
    हो भी नहीं सकती ...
    तुम खुद में एक ताबूत हो
    अन्दर तुम्हारे दर्द
    बाहर ........ शायद कुछ नहीं
    कुछ भी नहीं !!!
    मेरे आँखों में सैलाब है ,Comment कैसे करूँ ...................
    ताबूत से निकल कर अपने कंधे पर अपना सलीब ढ़ोने के लिए हिम्मत देती है आपकी रचना ...........

    जवाब देंहटाएं
  4. काश...! समय की आपाधापी में
    तुम शव बन जाती
    पर तुम ...
    हर रात उम्मीदों पर टूटी उम्मीदों का कफ़न चढ़ा
    उनका अग्निसंस्कार कर
    आँखों के गंगा जल से खुद को शुद्ध करती हो
    और करती हो
    ---शरीर से रूह
    रूह से शरीर तक का सफ़र

    बेहतरीन प्रस्तुति ! दिल को छूती हर पंक्तियाँ !
    आभार !

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  5. बहुत कुछ कह दिया आपने ...जिसका दर्द वही जान सकता है सह सकता है ...कोई समझ भी नहीं सकता शायद ...

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  6. ताबूत की उपमा दे जीवन के बारे में बहुत गहरी बात कही है..

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  7. तुम मुक्त होकर भी मुक्त नहीं
    हो भी नहीं सकती ...
    तुम खुद में एक ताबूत हो
    अन्दर तुम्हारे दर्द
    बाहर ........ शायद कुछ नहीं
    कुछ भी नहीं !!!

    ....बहुत गहन और उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...

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  8. तुम मुक्त होकर भी मुक्त नहीं
    हो भी नहीं सकती ...
    तुम खुद में एक ताबूत हो
    अन्दर तुम्हारे दर्द
    बाहर ........ शायद कुछ नहीं
    कुछ भी नहीं !!!badi achchi lagi,khaskar ye pangtiyan.

    जवाब देंहटाएं
  9. तुम मुक्त होकर भी मुक्त नहीं
    हो भी नहीं सकती ...
    तुम खुद में एक ताबूत हो
    अन्दर तुम्हारे दर्द
    बाहर ........ शायद कुछ नहीं
    कुछ भी नहीं !!!

    gahan avyakt peeda ....
    bahut gahan abhivyakti di ...!!

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  10. तुम मुक्त होकर भी मुक्त नहीं
    हो भी नहीं सकती ...
    तुम खुद में एक ताबूत हो
    अन्दर तुम्हारे दर्द,,,,

    भावमय उत्कृष्ट प्रस्तुति,,,,,
    RECENT POST समय ठहर उस क्षण,है जाता,

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  11. बहुत कुछ कहती हुई रचना
    या यूं कहें समाज को आइना ही नहीं दिखा रही बल्कि एक संदेश भी..


    तुम मुक्त होकर भी मुक्त नहीं
    हो भी नहीं सकती ...
    तुम खुद में एक ताबूत हो
    अन्दर तुम्हारे दर्द
    बाहर ........ शायद कुछ नहीं
    कुछ भी नहीं !!!

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  12. तुम खुद एक ताबूत हो .भाव शिखर पर आरूढ़ है यह रचना .
    ram ram bhai
    मुखपृष्ठ

    मंगलवार, 25 सितम्बर 2012
    दी इनविजिबिल सायलेंट किलर

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  13. दर्द की बेहतरीन अभिव्यक्ति

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  14. मुक्त होकर भी मुक्त नहीं हो पाना , भीतर जिसके दर्द हो , मुक्त दिखेगा कैसे ..मुक्त होना इतना आसान नहीं , हर इंसान बांधा है , ईश्वर से , प्रेम से ,सुख से , दुःख से ...मुक्त होने की जिद ही व्यर्थ है , कभी कभी ऐसा लगता है !

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  15. बहुत सुंदर !

    आत्मा छोड़ शरीर हो जाता है
    आदमी जब दुनिया छोड़ जाता है
    कोई दूसरा उसके लिये एक
    ताबूत की खोज में जाता है
    सुना था अभी तक बस यही !

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  16. सच...अपमान..तिरस्कार....उपेक्षा ...निम्नीकरण, पदच्युति ...न जाने कितनी बार ..कितनी तरहसे ....यह कीलें हमारे ताबूतों में गढ़ीं हैं ..... हर बार एक असहनीय पीड़ा को हमारी झोली में डालते हुए ....

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  17. तुम मुक्त होकर भी मुक्त नहीं
    हो भी नहीं सकती ...
    तुम खुद में एक ताबूत हो
    अन्दर तुम्हारे दर्द
    बाहर ........ शायद कुछ नहीं
    कुछ भी नहीं !!!
    इस दर्द को व्‍यक्‍त करने में शब्‍द भी कई बार शिथिल हो जाते हैं या फिर असमर्थ हो जाते हैं गहनता लिए प्रत्‍येक शब्‍द ..

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  18. बेहद गहन और संवेदनशील पोस्ट।

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  19. तुम खुद में एक ताबूत हो
    अन्दर तुम्हारे दर्द
    बाहर ........ शायद कुछ नहीं
    कुछ भी नहीं !!!

    अब क्या कहूँ?

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  20. तुम खुद में एक ताबूत हो
    अन्दर तुम्हारे दर्द
    बाहर ........ शायद कुछ नहीं
    कुछ भी नहीं !!!
    सच ही तो है..

    जवाब देंहटाएं
  21. ताबूत का दर्द...सहज है...अंदाज़-ए-बयां भी गज़ब...

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  22. एक ऐसी अभिव्यक्ति जो मन को भीतर तक छूती है।

    जवाब देंहटाएं
  23. ये कैसी वेदना है? क्यों सिर्फ दर्द, पीड़ा? ... और कुछ भी नहीं? शायद मेरी समझ इतनी परिपक्व नहीं..

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  24. दर्द का अपना अंदाज़ है ...
    आभार !

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  25. और तुम्हारे अन्दर का ये दर्द सिर्फ इंसानियत नहीं कई रिश्तों का मान है, अपनापन है, फिर तुम भला कैसे मुक्त हो सकती हो इनसे....

    जवाब देंहटाएं
  26. तुम खुद में एक ताबूत हो
    अन्दर तुम्हारे दर्द
    बाहर ........ शायद कुछ नहीं
    कुछ भी नहीं !!!

    sach hai....behad samvedansheel rachna....

    जवाब देंहटाएं

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