मन .... एक रहस्यात्मक पन्ना
जिसे दूसरा लाख पढ़ ले
अधूरा ही होता है
अपने रहस्य को खुद से बेहतर
कोई नहीं जानता !
मन सपने बनाता है
पर दूसरी छोर पर
अज्ञात,ज्ञात आशंका लिए
सपनों के टूट जाने की दर्दनाक स्थिति को जीता है !
शरीर के परिधान से
मन का परिधान मेल नहीं खाता
लाल रंग भरनेवाला चरित्र
श्वेत की चाह में जीता है
इसे जान पाना असम्भव है
चाह बता भी दे व्यक्तिविशेष
तो भी .....
चाह स्थाई है या अस्थाई
इसे समझना मुश्किल है !
ज़रूरी नहीं न
कि हरी भरी धरती ही सबको भाये
बंजर धरती का आकर्षण
कर्मठ योजनाओं को मूर्त रूप देने के
अनगिनत विकल्प देती है !
अपनी मंशाओं को जीने के लिए
कीमती,दुर्लभ उपहार कितने भी दिए जाएँ
मन उसे एक नहीं
कई बार अस्वीकार करता है
रख देता है उसे किसी कोने में
दे देता है किसी और को
तरीके में लौटाई गई मुस्कान
मन से अलग थलग
सच्चाई से कोसों दूर होती है !
मन कितना भी सोचे
पर जीता है वह अपने को ही
नफरत,प्यार,अधिकार,उदासीनता
उसकी अपनी होती है
वर्षों साथ रहकर भी
वह साथवाले से दूर
बहुत दूर होता है
साथ दिखावा है
मन तठस्थ है
प्रत्यक्ष का चश्मदीद गवाह
अप्रत्यक्ष मन होता है
उसकी अप्रत्यक्ष गवाही में
उसका न्याय होता है
जहाँ कानून की देवी आँखों पर पट्टी नहीं बांधती
......
हाँ - ज़ुबान पर संस्कारों की असंख्य पट्टियां होती हैं
जिसे खोलने का साहस
पूर्णतः
किसी में नहीं होता
........... मुमकिन भी नहीं ....
कहीं मोह,कहीं भय,कहीं जिद
इन सारे बन्धनों में
उठते क़दमों को
मन अपने हिसाब से तय करता है
शकुनी के दुर्लभ पासे
उसके अन्दर हर वक़्त जुआ खेलते हैं
कभी खुद से
कभी औरों से
कभी ज़िन्दगी से ....
अपनी रहस्यात्मक सुरंगों से
अनभिज्ञ भिज्ञ मन
सुरंगे बनाता जाता है ...
हर दिन तो वह स्वयं सभी सुरंगों में नहीं चल पाता
तो कई योजनायें धरी की धरी रह जाती हैं
क्योंकि सभी रहस्यों का पटाक्षेप करता यमराज
मन को समझने की जद्दोजहद नहीं उठाता
और पन्ने - अधलिखे,अधपढ़े,अनपढ़े रह जाते हैं
कई रहस्यों को दफ़न किये हुए !!!
..............................
कैसे जानोगे -
तुम मैं हमसब अपने मन में उलझे हुए हैं
मकड़ जाले से अधिक महीन जाल बुनते हुए
और रहस्यों से भरी भूलभूलैया में
खुद में खुद को खोते हुए ...
नियति यह
कि पन्ने फाड़े भी नहीं जा सकते
शायद तभी
मन की इस दयनीय स्थिति से मुक्त होने का मंत्र है
'राम नाम सत्य' ....
शुभ प्रभात दीदी
जवाब देंहटाएंसही कहा
...
हाँ -
ज़ुबान पर संस्कारों की असंख्य पट्टियां होती हैं
जिसे खोलने का साहस
पूर्णतः
किसी में नहीं होता
........... मुमकिन भी नहीं ....
सादर
फिर भी सब ही
जवाब देंहटाएंकोशिश करते हैं
कुछ बताने की
कुछ समझाने की
रहस्यों के
ऊपर रखकर
अपने ही विचारों के
कुछ भारी पत्थर ।
बहुत सुन्दर ।
शाश्वत मंत्र दिया है आपने ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-09-2016) को "अब ख़ुशी से खिलखिलाना आ गया है" (चर्चा अंक-2468) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मन और जीवन के बीच एक रहस्यात्मक परदा ही है... एक आतंरिक यात्रा शरीर से मन की ओर और मन से परे सारे परदों के मिट जाने की यात्रा... एक बेहद दार्शनिक रचना... मानसिक शान्ति प्रदान करती हुई!!
जवाब देंहटाएं'राम नाम सत्य' से पहले खुद को खुद से जोड़ना पड़ेगा...रहस्यमय तो है ही.
जवाब देंहटाएंमन से मुक्त होना हो तो मन के पार जाना पड़ेगा..शब्दों से परे निशब्द में..
जवाब देंहटाएंगहन रचना
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमन अपने आप में रहस्य है। जाने कितनी परतें होती हैं इसके सत्य असत्य अच्छे बुरे की !
जवाब देंहटाएंन जाने कितने परदे होते हैं रहस्य के मन पर ...कभी कभी तो स्वयं से भी छिपा लेने का मन होता है ...
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