26 अक्टूबर, 2016

यूँ ही कुछ कुछ




इतनी भी शिकायत ना रखना मुझसे
कि मैं  दूर चली जाऊँ
मिलने के बहाने बने रहें तो अच्छा होता है
 ...

क्या मिला तुम्हें भगवान् के आगे खड़े रहकर
मैं तो तुम्हारा द्वार खटखटाकर लौट आई  हूँ  ...

मेरी बेबसी की आलोचना तो तुमने जी भर के की
कभी अपनी मान्य हैसियत का मुआयना भी कर लेना   ...

कितना फर्क है तुममें और हममें
विदा के वक़्त तुमने सबके हाथ में पैसे रखे !
मैंने सर पर हाथ रखा
और दुआ देकर आई हूँ  ...

तुम्हें लगा था तुम खरीद लोगे मुझे भी
मुड़कर देखना जरा पीछे
मैं इस पैसे की औकात को ठुकरा के यहाँ आई हूँ !

दुःख है इस बात का - तुम समझोगे मुझे जब तक
तुम्हारे हिस्से का सौभाग्य बहुत दूर चला जाएगा

परंपरा की बातें तुम दावे से किया करते हो
ये अलग बात है कि तुम्हें निभाना नहीं आया

आगे बढ़कर हाथ मिलाने में मुझे कोई तकलीफ नहीं है
लेकिन तुम्हारे दम्भ को हवा देना मुझे मंज़ूर नहीं है  ...

माना छत तो उपरवाले ने तुम्हें बहुत सारी दी
गौर करना तुम्हारे पैरों के नीचे कोई ज़मीन नहीं है  !!!

21 अक्टूबर, 2016

समय के साथ दृष्टिकोण बदलते हैं




न प्रसिद्धि टिकती है
न बेनामी ज़िन्दगी
कौन कब तक याद रखता है भला !

राम,रहीम,कृष्ण,कबीर,
सीता,यशोधरा,कैकेयी
सब अपने दृष्टिकोण हैं
बोलो तो अनगिनत बातें
चुप रहो तो नदी है या नहीं
क्या फर्क पड़ता है !
हाँ,
कोई उधर न जाए
तो संदेहास्पद होता है क्षेत्र
संदेह के आगे
विशेषताओं की ज़रूरत क्षीण होती है !

आज तुम शिखर पर हो
तो तुम उदाहरण हो
कल शिखर किसी और का होगा
उदाहरण कोई और होगा !

इतिहास पर उकेरे भी जाओ
तो कौन जाने
कब कैसी विवेचना हो
समय के साथ दृष्टिकोण बदलते हैं
और उनके मायने भी  ... !!!

17 अक्टूबर, 2016

उम्मीद ज़िंदा है




जहाँ भी उम्मीद की छाया दिखती है
साँकल खटखटा ही देती हूँ
सोचती हूँ एक बार
खटखटाऊँ या नहीं
लेकिन अब पहले जैसी दुविधा देर तक नहीं होती
उम्र की बात है - !

यौवन की दहलीज़ पर
होठ सिल ही जाते हैं
भय भी होता है
... जाने क्या हो !
"ना"
या कोई भी जवाब नहीं मिलना
मन को कचोटता है
खुद पर विश्वास कम होता है !

उम्र की बरगदी जड़ें
अब भयभीत नहीं करतीं
मेरे अंदर कुछ पाने की धुन है
और कब कहाँ से
कौन सी धुन
मेरी जिजीविषा की प्यास बुझा दे
सोचकर
हर दिन कोई अनजान साँकल खटखटा देती हूँ
उम्मीद ज़िंदा है
कब अमर हो जाए
क्या पता  ...

14 अक्टूबर, 2016

निराकार आकार




मैं ईश्वर नहीं
पर ईश्वर मुझमें है
वह रोज हथौड़ी छेनी लेकर
अपना निर्माण करता है
बचे खुचे पत्थर को भी वह नहीं फेंकता
विचारों के गुम्बद बनाता है
और सतर्कता की घण्टी टाँगकर
कुछ नए सामान लाने निकल पड़ता है  ...

हर दिन वह अपनी संरचना बदलता है
ताकि उसकी संभावना कभी खत्म न हो
वह वाणी बनकर
मेरे गले की नसों में प्रवाहित होता है
मेरे एकांत में
मुझे मेरी मायावी शक्तियों तक ले जाता है !
मैं भयभीत
वह स्तब्ध  !!!
त्रिनेत्र की शक्ति क्यूँ नहीं है जाग्रत
सोच सोचकर
वह तराशता है खुद को
चाहता है,
मैं बन जाऊँ जौहरी
हीरे को पहचान सकूँ
...
मैं उसकी कारीगरी के आगे नतमस्तक
 खुद से अजनबी
युगों से परे
युगवाहक को लिए
मूक होती हूँ
रात गए छेनियों की आवाज़ आती है
मन के कारागृह में
एक मूर्ति बनती रहती है
प्रबल हो जाती है चेतना
मूसलाधार विचारों के मध्य
निराकार आकार
यज्ञ करता है

 ....... अग्नि में तपकर मैं
कुंदन होती जाती हूँ
स्वाहा होता जाता है स्वार्थ
मोक्ष नज़दीक होता है
रह जाता है निनाद
- शून्य का !

08 अक्टूबर, 2016

दूसरों के हादसे,अपने हादसे ...





दूसरों के हादसे
शब्द शब्द आँखों से टपकते हैं
उसे कहानी का नाम दो
रंगमंच पर दिखाओ
या तीन घण्टे की फिल्म बना दो  ... !
नाम,जगह,दृश्य से कोई रिश्ता बन जाए
ये अलग बात है !
पर हादसे जब अपने होते हैं
तो उसे कहने के पूर्व
आदमी एक नहीं
सौ बार सोचता है
एक पंक्ति पर
सौ अनुमान
सौ प्रश्न उठते हैं
हादसे सिमटकर एक कोने में होते हैं !
सच के आगे
अनगिनत शुभचिंतकों की रेखा होती है
कि उसे ना कहा जाए !
हादसे व्यक्तिगत होते हैं
उन्हें सरेआम करना सही नहीं !!
अनजान हादसों को कहना-सुनना
अलग बात है
!!!
कितनी अजीब बात है
लेकिन सच यही है -
कि
आत्मकथा को कितने लोग निगल पायेंगे
यदि उसमें एक चेहरा उनका भी हो तो !

04 अक्टूबर, 2016

पुनरावृति का हस्ताक्षर




हम हर दिन न कुछ नया लिखते हैं,
न कहते हैं
सबकुछ पुनरावृति का हस्ताक्षर है !
बहुत सी बातें
जो आज हम लिख लेते हैं
कह देते हैं
उसमें पहले भी जीते थे
बस कहने का सलीका नहीं आया था
या यूँ कहें,
कह पाने की उम्र नहीं थी
नहीं बोलने' का दबाव था !
अनुभवों का दलदल
भंवर
तैरने का अथक प्रयास
किनारों को छूने की कोशिश
किनारों को छूने की ख़ुशी
सबकुछ बचपन से होता है
शहर बदलता है
रिश्ते बदलते हैं
...
सोच वही होती है
परिपक्वता आती जाती है
उम्र दर उम्र
हम हस्ताक्षर करते हैं
तब तक
जब तक हाथ न काँपने लगे
!!!

01 अक्टूबर, 2016

गलत कौन होता है भला




जी गई कहानियों की पांडुलिपि
हर किसी के मन में होती है
कोई सुना देता है
कोई छुपा लेता है
कोई बीच के पन्ने फाड़ देता है  ...

पृष्ठभूमि सबकी
लगभग एक सी होती है
हादसे,रिश्ते,  ...
बस पृष्ठ की किस संख्या पर वह दर्ज है
इसीका फर्क होता है
आस्तिक नास्तिक हो जाता है
नास्तिक आस्तिक
जीवन चक्र सारे खेल दिखाता है !

गलत कौन होता है भला
अपनी जगह पर सब सही होते हैं
सारे दृश्यों के कान उमेठ दो
तो सबकुछ अपने पक्ष में होता है
तर्क,कुतर्क का महाजाल है
जितना बोलोगे
उतना फँसोगे  ...

बस मानकर चलो
कि होनी का पासा सबके लिए होता है
ईश्वर भी मजबूर
किंकर्तव्यविमूढ़
क्रोध में होता है
शिव का तांडव यूँ ही नहीं होता !!!

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...