26 अक्टूबर, 2016

यूँ ही कुछ कुछ




इतनी भी शिकायत ना रखना मुझसे
कि मैं  दूर चली जाऊँ
मिलने के बहाने बने रहें तो अच्छा होता है
 ...

क्या मिला तुम्हें भगवान् के आगे खड़े रहकर
मैं तो तुम्हारा द्वार खटखटाकर लौट आई  हूँ  ...

मेरी बेबसी की आलोचना तो तुमने जी भर के की
कभी अपनी मान्य हैसियत का मुआयना भी कर लेना   ...

कितना फर्क है तुममें और हममें
विदा के वक़्त तुमने सबके हाथ में पैसे रखे !
मैंने सर पर हाथ रखा
और दुआ देकर आई हूँ  ...

तुम्हें लगा था तुम खरीद लोगे मुझे भी
मुड़कर देखना जरा पीछे
मैं इस पैसे की औकात को ठुकरा के यहाँ आई हूँ !

दुःख है इस बात का - तुम समझोगे मुझे जब तक
तुम्हारे हिस्से का सौभाग्य बहुत दूर चला जाएगा

परंपरा की बातें तुम दावे से किया करते हो
ये अलग बात है कि तुम्हें निभाना नहीं आया

आगे बढ़कर हाथ मिलाने में मुझे कोई तकलीफ नहीं है
लेकिन तुम्हारे दम्भ को हवा देना मुझे मंज़ूर नहीं है  ...

माना छत तो उपरवाले ने तुम्हें बहुत सारी दी
गौर करना तुम्हारे पैरों के नीचे कोई ज़मीन नहीं है  !!!

13 टिप्‍पणियां:

  1. सच है -पैरों के लिए तो जमीन का होना जरूरी है

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  2. ये कुछ कुछ नहीं है
    बहुत बहुत कुछ है ।

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  3. इतनी भी शिकायत ना रखना मुझसे
    कि मैं दूर चली जाऊँ
    मिलने के बहाने बने रहें तो अच्छा होता है

    .. किसी न किसी बहाने मुलाक़ात और बात हो ही जाती हैं बस दिल में हो इंसान। .

    बहुत सुन्दर

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  4. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27-10-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2508 में दिया जाएगा ।
    धन्यवाद

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  5. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति मन्मथनाथ गुप्त और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

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  6. शब्द को खंगालते रहे
    डूब डूब कर
    भाव बुलबुले बन विलीन हो गए .....

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  7. यूँ ही कुछ कुछ ने कह दिया है बहुत कुछ . जीवन के संकल्प और संघर्ष सभी समाहित हो गए हैं इन पंक्तियों में .

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  8. बहुत उम्दा

    मंगलमय हो आपको दीपों का त्यौहार
    जीवन में आती रहे पल पल नयी बहार
    ईश्वर से हम कर रहे हर पल यही पुकार
    लक्ष्मी की कृपा रहे भरा रहे घर द्वार

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  9. कमाल का विद्रोह है इस कविता में... एक एक शब्द अंगार है! बहुत सुन्दर दीदी!

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  10. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...