हम हर दिन न कुछ नया लिखते हैं,
न कहते हैं
सबकुछ पुनरावृति का हस्ताक्षर है !
बहुत सी बातें
जो आज हम लिख लेते हैं
कह देते हैं
उसमें पहले भी जीते थे
बस कहने का सलीका नहीं आया था
या यूँ कहें,
कह पाने की उम्र नहीं थी
नहीं बोलने' का दबाव था !
अनुभवों का दलदल
भंवर
तैरने का अथक प्रयास
किनारों को छूने की कोशिश
किनारों को छूने की ख़ुशी
सबकुछ बचपन से होता है
शहर बदलता है
रिश्ते बदलते हैं
...
सोच वही होती है
परिपक्वता आती जाती है
उम्र दर उम्र
हम हस्ताक्षर करते हैं
तब तक
जब तक हाथ न काँपने लगे
!!!
शुभ प्रभातयय
जवाब देंहटाएंसोच वही होती है
परिपक्वता आती जाती है
उम्र दर उम्र
हम हस्ताक्षर करते हैं
तब तक
जब तक हाथ न काँपने लगे
!!!
अप्रतिम...
सादर
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 06 अक्टूबर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंकांपते हाथों से भी हस्ताक्षर करते हैं भले ही शब्द बेढंगे क्यों न लगें .
जवाब देंहटाएंअतीत के अनुभव और वर्त्तमान की अभिव्यक्ति को बहुत सुंदरता से रेखांकित किया है दीदी आपने!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 6-10-16 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2487 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बस कहने का सलिका नहीं आया....
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया।
बस कहने का सलिका नहीं आया....
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया।
सच सलीका सीखते सीखते एक उम्र भी कम पड़ जाती हैं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर..