14 अक्तूबर, 2016

निराकार आकार




मैं ईश्वर नहीं
पर ईश्वर मुझमें है
वह रोज हथौड़ी छेनी लेकर
अपना निर्माण करता है
बचे खुचे पत्थर को भी वह नहीं फेंकता
विचारों के गुम्बद बनाता है
और सतर्कता की घण्टी टाँगकर
कुछ नए सामान लाने निकल पड़ता है  ...

हर दिन वह अपनी संरचना बदलता है
ताकि उसकी संभावना कभी खत्म न हो
वह वाणी बनकर
मेरे गले की नसों में प्रवाहित होता है
मेरे एकांत में
मुझे मेरी मायावी शक्तियों तक ले जाता है !
मैं भयभीत
वह स्तब्ध  !!!
त्रिनेत्र की शक्ति क्यूँ नहीं है जाग्रत
सोच सोचकर
वह तराशता है खुद को
चाहता है,
मैं बन जाऊँ जौहरी
हीरे को पहचान सकूँ
...
मैं उसकी कारीगरी के आगे नतमस्तक
 खुद से अजनबी
युगों से परे
युगवाहक को लिए
मूक होती हूँ
रात गए छेनियों की आवाज़ आती है
मन के कारागृह में
एक मूर्ति बनती रहती है
प्रबल हो जाती है चेतना
मूसलाधार विचारों के मध्य
निराकार आकार
यज्ञ करता है

 ....... अग्नि में तपकर मैं
कुंदन होती जाती हूँ
स्वाहा होता जाता है स्वार्थ
मोक्ष नज़दीक होता है
रह जाता है निनाद
- शून्य का !

7 टिप्‍पणियां:

  1. ईश्वर है
    हर जगह
    नहीं भी
    होता है
    हो भी
    नहीं
    सकता है
    जरूरी भी है
    कुछ ढूँढने
    के लिये होना
    कहीं कहीं ।

    बहुत सुन्दर रचना ।

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  2. क्या बात है... एक अंतर्र्यात्रा की ओर पहला कदम!

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  3. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति लाला हरदयाल जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

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  4. ....... अग्नि में तपकर मैं
    कुंदन होती जाती हूँ
    स्वाहा होता जाता है स्वार्थ
    मोक्ष नज़दीक होता है
    रह जाता है निनाद
    - शून्य का !
    - उन्नयन के पल कितने स्वस्तिप्रद होते हैं !

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  5. बहुत ही अच्छी रचना है आपकी, मुझे पसंद आई बधाई .....

    एक नई दिशा !

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  6. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति..मुक्ति का स्वर कितना सुंदर हो सकता है उसकी साक्षी देती हुई..

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