सती की तरह
मेरे शरीर के कई टुकड़े हो गए है
ज्ञात, अज्ञात
शहर,गांव
जंगलों में तड़प रहे हैं !
जान बाकी है
अर्थात अब भी उम्मीद बाकी है !
उम्मीद के नाम पर
कोई दीप मत जलाओ
कुछ बोलो मत,
मुझे ढूंढो
अपने अपने भीतर।
समेटो,
जोड़ो,
खींच लाओ उस स्त्री को
जो अपने ऐसे बेटे के लिए व्रत रखती है
जो किसी स्त्री का सम्मान नहीं करता
उस स्त्री को
जो रात दिन जलील होकर भी
पूरी माँग सिंदूर भरती है
दीर्घायु का व्रत रखती है उस पति के लिए
जो अन्य स्त्रियों के आसपास
गिद्ध की तरह मंडराता है
उस स्त्री को
जो रक्षा का बन्धन
उसकी कलाई में बांधती है
जिसकी कलाइयाँ
ज़िन्दगानियाँ तहस नहस करती हैं !
शुरुआत यहाँ से होगी
तभी सुबह होगी
जितने हक़ से तुमने पुरुषों की बराबरी में
जाम से जाम टकराये हैं
धुँए के छल्ले बनाये हैं
उतने ही हक़ से
सड़क पर उस सुबह को लेकर उतरो
जिसके आह्वान में चीखें उभर रही हैं !!
.....
वहशी आंखों की पहचान
तुमसे अधिक कौन रखता है ?
निकाल दो उन आंखों को !
जो व्यवस्था
तुम्हें रौंद रही - एक वोट के लिए
एक घृणित जीत के लिए
वहाँ से किनारा कर लो ...
सिर्फ वोट देना ही तुम्हारी पहचान नहीं
एक एक वोट को रोक देना भी
तुम्हारी पहचान है
गहराई से चिंतन करो
सशक्त कदम उठाओ !!!
एक एक वोट को रोक देना भी
जवाब देंहटाएंतुम्हारी पहचान है
गहराई से चिंतन करो
सशक्त कदम उठाओ !!!
ये पहल तो करनी ही होगी !!!
यही और यही सही है। समय की माँग ।
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जलियाँवाला बाग़ नरसंहार के शहीदों की ९९ वीं बरसी “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-04-2017) को "बदला मिजाज मौसम का" (चर्चा अंक-2941) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
गहराई से चिंतन करो
जवाब देंहटाएंसशक्त कदम उठाओ...यही है समय की माँग !