24 अप्रैल, 2018

काश ! मान लिया होता




बुरा लगता है
जब कोई सिखाने लगता है अपने अनुभवों से
लेकिन, फिर एकांत हो या भीड़
ज़िन्दगी भर
हथौड़े की तरह यह बात पीछा करती है
"काश ! मान लिया होता"
...
धैर्य ज़रूरी है,
समझना होगा - कोई यूँ ही नहीं बोलता
विशेषकर, "माँ" !
उसकी आँखों में
उसकी बेचैन करवटों में
उसके भयभीत लम्हों में
ऐसी न जाने कितनी बातें होती हैं,
जो वह कहती नहीं,
पर रोकती है,
हिदायतें देती है,
....
झल्लाना एकदिन पछतावा बन जाता है
और फिर शुरू होता है वही सिलसिला
जब तुम्हारे अनुभवी विचार
अपने से छोटे का हाथ पकड़कर कहते हैं,
इतना ज़रूरी तो नहीं...
विशेषकर उनको,
जिनको तुमने गोद में उठाया हो
जिनके रोने पर तुम्हें नींद न आई हो
सोचो,
जब वे नहीं सुनेंगे,तो कैसा लगेगा !
कितने सारे दृश्य तुम्हें मथेंगे
और  ....

बता पाना मुश्किल होता है
बहुत मुश्किल !
इसलिए,
मान लेना चाहिए,
मान लेना कुछ दिन की उदासी हो सकती है
लेकिन नहीं मानना,
.... !

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (25-04-2018) को ) "चलना सीधी चाल।" (चर्चा अंक-2951) पर होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

    जवाब देंहटाएं
  2. उसकी आँखों में
    उसकी बेचैन करवटों में
    उसके भयभीत लम्हों में
    ऐसी न जाने कितनी बातें होती हैं,
    जो वह कहती नहीं,
    पर रोकती है,
    हिदायतें देती है,

    माँ का मनोविज्ञान इन पंक्तियों में बखूबी व्यक्त हुआ है

    जवाब देंहटाएं

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