01 सितंबर, 2012

वह शक्सियत - जिनकी सिर्फ आलोचना हुई , पर मुझे सही लगीं





वह शक्सियत - जिनकी सिर्फ आलोचना हुई , पर मुझे सही लगीं . निःसंदेह नज़रिया अपना होता है , पर नज़रिए के लिए परिवेशिये परिस्थिति को यदि हम नहीं देख सुन पाते तो मेरे विचार से उसपर अपनी सोच को पुख्ता नहीं करना चाहिए .
मैं तब बहुत छोटी थी , करीबन सात आठ वर्ष की . प्रिया दीदी को ( दुःख है एक काल्पनिक नाम देने का - ) मैंने अपनी माँ के साथ देखा था . दुबली पतली , बड़ी बड़ी आँखें ... सफ़ेद साड़ी में वे खुद में एक सुकून सी लगीं . मेरी माँ जिस स्कूल में पढ़ाती थीं , उसी स्कूल में उनकी माँ मेट्रन थीं . प्रिया दी बहुत चुप चुप सी रहती थीं , चेहरे पर एक टीस सा तनाव रहता - तब उस तनाव से डर लगता था , आज - उस उथलपुथल को महसूस कर पाती हूँ .
मैं उनका वह चेहरा कभी भूल नहीं पायी तो माँ से पूछा था उनके बारे में .... माँ से सुनी कहानी और समाज का रूप और उनकी लड़ाई - हर उम्र पर मुझसे कहती गई कि " ऐसा ना करती तो क्या करती !" मैं शून्य में कहती हूँ - 'हाँ प्रिया दी , आप गलत नहीं थीं ...'
प्रिया दी की माँ का पति, जो निःसंदेह पिता कहलाने लायक नहीं था - उनकी माँ को बुरी तरह मारता . अशिक्षित महिला - (आज से ४५, ४६ वर्ष पहले ) ने खुद को और अपने बच्चों को आधार देने के लिए मेट्रन की नौकरी की . ५ बच्चे थे , सबको पढ़ाया . समाज - किसी के बुरे , दहशत भरे हालात में आगे नहीं बढ़ता पर टीकाटिप्पणी दिल खोलकर करता है . उस आदमी ने एक बार प्रिया दीदी की माँ के बाल रिक्शे के पहिये में जकड दिए और खींचा - वह अनपढ़ थीं तो क्या उनकी इज्ज़त नहीं थी ! कई लोग बड़े से बड़े हादसों का मुआयना शिक्षित, अशिक्षित , ओहदे से करते हैं .... पर अधिकतर मुआयना ही करते हैं और वाक्यात से परे मुहर लगा देते हैं .
खैर - प्रिया दीदी अपनी पढ़ाई कर रही थी कॉलेज में , तभी उनके तथाकथित पिता ने उनकी शादी तय कर दी . विरोध करने पर प्रिया दी को बेहोश कर दिया और शादी संपन्न करवा दी . होश में आते प्रिया दी सबकुछ से निर्विकार बेजान विरोध लिए हॉस्टल लौट गयीं . कॉलेज से लेकर हर जगह चर्चा चली - " बड़ी ढीढ , बेहया लड़की है , पति रोज जलेबी लेकर मिलने आता है कॉलेज के बाहर , पर यह उसे चले जाने को कहती है फटकारते हुए ...." यह बात प्रिया दी के पति सबसे कहते फिरते ....)
प्रिया दी मेरी माँ का बहुत सम्मान करती थीं . एक बार मेरी माँ ने पूछा - " प्रिया लोग ऐसा कहते हैं ... क्या तुम ऐसा करती हो ? "
प्रिया दीदी का चेहरा अपमान से लाल हो उठा , आँखों में कहीं एक कतरा पानी का तैरने लगा .... कहा था प्रिया दी ने - ' हाँ चाची , सही बात है . सही बताता है वह व्यक्ति, पर किसी ने यह सोचा कि कैसा नपुंसक है वह , रोज पान खाकर , खींसे निपोरते एक डोंगे में जलेबी लिए गिड़गिडाता है ... मैं भगा देती हूँ और वह भाग जाता है !!! तो ऐसा व्यक्ति पति होने योग्य है क्या ?"
माँ से सुनी ये बातें बढ़ती उम्र के साथ गंभीर प्रश्न बनती गयीं ...
प्रिया दीदी ने अपनी शिक्षा के बल पर नौकरी की , पर योग्यता के आगे कई मनसूबे सामने मुंह खोले रहते हैं . प्रिया दी को अपने अन्य भाई बहनों को ज़िन्दगी देनी थी तो उन्होंने उन मंसूबों को अपनी सीढ़ियाँ बना लीं. बहनों को प्रतिष्ठित नौकरी मिली, प्रतिष्ठित शादी हुई ...... मंसूबों को ठेंगा दिखाती प्रिया दीदी ने फिर शादी कर ली , आज एक बहुत प्यारे बेटे की माँ हैं .
इस पूरी यात्रा में मुंह खोले , जिह्वा लपलपाते मंसूबों ने उनकी दिल खोलकर भर्त्सना की , - राम राम , छि छि कहकर घृणा से भरी मुद्राएँ बनाते गए .... समाज के सही परिवेश को प्रिया दी ने समझदारी से जीया . उन्होंने अपने व्यक्तित्व को ऐसा बनाया कि उनके सामने कुछ कहने से पहले लोग सौ बार सोचते थे .
आज भी सफ़ेद साड़ी में प्रिया दीदी का उदास विरोधी चेहरा याद रहता है , मैं उनसे फिर मिली नहीं - पर कहानियाँ सुनती रही . कहानियों के पीछे समाज की विकृति और उसमें से राह निकालती प्रिया दीदी के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है.
कंकड़ भरे रास्तों पर लहुलुहान व्यक्ति के लिए सीखों की फेहरिस्त बनाना आसान है ...... चलकर देखो , खड़े होकर देखो - तुम क्या करते !

30 टिप्‍पणियां:

  1. कंकड़ भरे रास्तों पर लहुलुहान व्यक्ति के लिए सीखों की फेहरिस्त बनाना आसान है ...... चलकर देखो , खड़े होकर देखो - तुम क्या करते !
    यहीं आकर तो सबकी सोच दम तोड़ देती है .. गहन भाव लिये विचारात्‍मक प्रस्‍तुति ...आभार

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  2. बहुत कम लोग ऐसे होते हैं इस दुनिया में जो समाज की विकृतियों के बीच से निकालकर अपने लिए रास्ता बना पाते है। वह भी एक ऐसा रास्ता और अपनी ऐसी शकसियत की समाज उनसे कोई भी सवाल करने से पहले सौ बार सोचने पर विवश हो जाये...ऐसी शकसियत को मेरा भी सलाम...

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  3. "कंकड़ भरे रास्तों पर लहुलुहान व्यक्ति के लिए सीखों की फेहरिस्त बनाना आसान है ...... चलकर देखो , खड़े होकर देखो - तुम क्या करते ! "
    हमारे समाज की कडवी सच्चाई..

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  4. ऐसी शख्सियतों से समाज को प्रेरणा लेनी चाहिए..

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  5. नज़रिए के लिए परिवेशिये परिस्थिति को यदि हम नहीं देख सुन
    पाते तो मेरे विचार से उसपर अपनी सोच को पुख्ता नहीं करना चाहिए !!

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  6. चलकर देखो , खड़े होकर देखो - तुम क्या करते,,,,,,
    हमारे समाज यही कडवी सच्चाई है,,,,

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  7. हमारे समाज का यथार्थ है ये..
    मगर अंत भला तो सब भला...मन को तसल्ली मिली...

    सादर
    अनु

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  8. आलोचना करना सरल है ....जीवन में संघर्ष करना मुश्किल ....

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  9. जब स्वयं को उन्हीं परिस्थितियों में जीना हो तो सही उत्तर मिल जाता है..... सहमत हूँ....

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  10. प्रिय दीदी के जैसे सभी लोग नहीं कर पाते. और समाज के द्वारा फैलाई विभ्रम की स्थिति के बोझ टेल दब जाते है. समाज को आइना दिखाती कथा.

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  11. वह शक्सियत - जिनकी सिर्फ आलोचना हुई , पर मुझे सही लगीं . निःसंदेह नज़रिया अपना होता है , पर नज़रिए के लिए परिवेशिये परिस्थिति को यदि हम नहीं देख सुन पाते तो मेरे विचार से उसपर अपनी सोच को पुख्ता नहीं करना चाहिए .

    बेहतरीन शब्द आज के परिवेश में एकदम सटीक , कविताओं के साथ साथ कहानियों में भी मजबूत पकड़ है आपकी निस्संदेह.

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  12. मान लेती बात चुपचाप
    और चली जाती
    प्रिया दीदी तुम कहाँ
    इस कहानी में फिर
    कहीं भी याद आती !

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  13. कंकड़ भरे रास्तों पर लहुलुहान व्यक्ति के लिए सीखों की फेहरिस्त बनाना आसान है ...... चलकर देखो , खड़े होकर देखो - तुम क्या करते !...
    .वाह: बहुत सही कहा. आज के समाज की सोच का यथार्थ चितरण..रश्मि जी..

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  14. दूसरो को सिखाना, नसीहते देना
    बहुत सरल है...पर खुद संघर्ष करना हो तो
    पता चलता है...
    ऐसी शख्सियत प्रेरणा होती है..
    जो औरों को भी हौसला देती है...

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  15. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज रविवार (02-09-2012) के चर्चा मंच पर भी की गयी है!
    सूचनार्थ!

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  16. दूसरों को नसीहत देना बहुत आसान होता है अपने गिरेबान में झाँक कर नहीं देखते बहुत विचारात्मक प्रस्तुति

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  17. कंकड़ भरे रास्तों पर लहुलुहान व्यक्ति के लिए सीखों की फेहरिस्त बनाना आसान है ...... चलकर देखो , खड़े होकर देखो - तुम क्या करते !

    आसान काम तो सभी कर लेते हैं आलोचना हो या नसीहत मगर इन राहों पर चलकर कुछ कर गुज़रने का हौसला कुछ ही लोगों मे होता है।

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  18. पीडाएं सहकर अयोग्य व क्रूर पति को भी पूरा सम्मान देना या फिर पति के सहारे बिना अच्छी बने रहना किसी भी स्त्री के लिये काँटों--कंकडों में चलना है । अपने आपको तिल-तिल गला कर जीना है । आपकी प्रिया दीदी ने ऐसा नही किया तो गलत नही बल्कि सही किया । जो लीक से हट कर चलते हैं उन्हें प्रशंसा कहाँ मिलती है भला । सबसे बडी बात है मन माने की ।

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  19. ऊपर से जो दिखाई देता है वही सच भी हो ऐसा जरुरी नहीं, उसकी जगह स्वयं को रखकर सोचने की जरुरत होती है, जिसपर बीतती है वही उस दुःख को जान सकता है, सहमत हूँ आपके विचारों से

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  20. प्रिय दीदी बेशक काल्पनिक नाम रखा लेकिन समाज के सच्चे कडुवे रूप को आपने प्रिया दीदी पर जो बीती दिखाया और प्रिय दीदी ने किस तरह से अपने लिए राष्ट बनाया उसी समाज में ... उन्हें मेरा नमन .. और आपकी लेखनी ने बेहद सुन्दर तरीके से संक्षिप्त में पूरी जीवनी से खोल डाली ..रश्मि जी आपका आभार

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  21. उस आदमी ने एक बार प्रिया दीदी की माँ के बाल रिक्शे के पहिये में जकड दिए और खींच.....उफ्फ्फ्फफ्फ्फ्फ़

    बहुत सुन्दर संस्मरण है ।

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  22. ये उदाहरण हमारे समाज की ऐसी सच्चाई है जिसे सब किस्से-कहानियों में दर्द के वास्ते भरते हैं.पर हकीक़त में क्या करते है वो आपने कह ही दिया..

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  23. खुद को स्थापित करते हुए जीना ही ...सही जीवन यात्रा हैं ...आपकी प्रिया दीदी को नमन ...बहुत सीखती हैं आपकी ये पोस्ट

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