31 जुलाई, 2008

बोलो ना !


मेरे पास एक इन्द्रधनुष है,

चलोगे धरती से आकाश पर?

रंग सात हैं,

जिस रंग पर बैठो

नीला आकाश मुठ्ठी में होगा,

सितारे टिमटिमाकर स्वागत करेंगे........

बोलो ना,

चलोगे आकाश पर?

इन्द्रधनुष से उतरकर

बादलों पर बैठ जाना

वे किसी ऊँचे पर्वत की चोटी पर उतार देंगे,

वहां से दुनिया को देखना.......

बोलो ना,

बादलों की पालकी पर चलना है?

बोलो ना,
मेरे साथ खेलना है????????

29 जुलाई, 2008

पास से गुजरते कुछ ख्याल....


( १ )
वे तो अपने होते हैं
जिनकी आंखों में
दर्द पनाह लेता है
और सीने में
जब्त होती हैं सिसकियाँ.......
एक-एक स्पर्श
एक नई जिंदगी,
नई उम्मीद का सबब बन जाता है........

( २ )
जिनके पाँव के नीचे से
मैंने कांटे चुने,
या खुदा !
वे कहते हैं-
मुझे कांटे बिछाने की आदत है !
क्या सोचूं?
वे मेरा अस्तित्व मिटाना चाहते हैं
या ख़ुद के सामर्थ्य का
झंडा लहराना चाहते हैं !

( ३ )
शिकायत उनसे होती है
जो शिकायत का मान रखते हैं
यूँ ही सबों से शिकायत........
शिकायत का भी अपमान होता है !

( ४ )
जिसका दर्द गहरा होता है
उसकी सहनशीलता भी गहरी होती है
सतही दर्द में
अविरल आंसू बहते हैं
चेहरा गमगीन होता है !
दर्द के बीच से राह निकालनेवाले
अक्सर अन्दर सुलगते हैं
आंसू उनके सूख जाते हैं
क्योंकि वे जानते हैं-
" दर्द रोने से कम नहीं होगा ......."

27 जुलाई, 2008

स्वयं का आह्वान...........


हम किसे आवाज़ देते हैं?
और क्यूँ?
क्या हम में वो दम नहीं,
जो हवाओं के रुख बदल डाले,
सरफरोशी के जज्बातों को नए आयाम दे जाए,
जो -अन्याय की बढती आंधी को मिटा सके...........
अपने हौसले, अपने जज्बे को बाहर लाओ,
भगत सिंह,सुखदेव कहीं और नहीं
तुम सब के दिलों में हैं,
उन्हें बाहर लाओ...........
बम विस्फोट कोई गुफ्तगू नहीं,
दुश्मनों की सोची-समझी चाल है,
उसे निरस्त करो,
ख़ुद का आह्वान करो,
ख़ुद को पहचानो,
भारत की रक्षा करो !...........

24 जुलाई, 2008

उल्टा-पुल्टा


चाँद तो तुम्हारे शहर भी जाता है,

बातें भी होती होंगी-

कभी बताया चाँद ने

कि,

मैं चकोर हो गई हूँ,

और चाँद में तुम्हे तलाशती हूँ?

....

इस तलाश में रात गुजर जाती है

फिर सारा दिन

रात के इंतज़ार में.....

घर में कहते हैं सब,

मैं 'बावली' हो गई हूँ!

कैसे समझाऊं उन्हें

चकोर बनना कितना कठिन है !

कितना कठिन है,

चाँद को तकते रात गुजारना.....

अब तो -

चकोर भी हतप्रभ है !

चाँद की जगह मुझे निहारता है !

और मेरे इंतज़ार में

चकोरी को भूल गया है.....

क्या कहूँ?

सबकुछ उल्टा-पुल्टा हो गया है !!!!!!!!


22 जुलाई, 2008

तुम अपनी लगती हो.....


क्यूँ तुम अच्छी लगती हो?

क्या इसलिए कि,

तुम्हारे पास शब्दों की थाती है?

या इसलिए कि,

मेरी तरह तुम भी सपने बेचती हो?

या,

तुम्हारे पास भी जादुई परियाँ हैं!

......

तुम मेरी हमउम्र नहीं,

पर जज्बातों की उम्र एक-सी है....

नाम से अनजान हूँ,

फिर भी एक पहचान है...

बताना तो,

ये शब्दों की पिटारी तुम्हे कैसे मिली?

मैंने जो छड़ी अपने सिरहाने राखी थी

तुम्हे कैसे मिली?

क्या कोई परी

तुम्हारे आँगन भी उतरी थी?

या,

दर्द की एक लम्बी सड़क

तुम्हारे हिस्से भी आई थी?

जो भी हो,

तुम अपनी लगती हो,

कोई मुलाकात नहीं,

पर हमसफ़र लगती हो...............

17 जुलाई, 2008

आओ तुम्हे चाँद पे ले जाएँ...........


रात रोज आती है,

हर रात नए सपनों की होती है,

या - किसी सपने की अगली कड़ी.....

मैं तो सपने बनाती हूँ

लेती हूँ एक नदी,एक नाव, और एक चांदनी........

...नाव चलाती हूँ गीतों की लय पर,

गीत की धुन पर सितारे चमकते हैं,

परियां मेरी नाव में रात गुजारती हैं...

पेडों की शाखों पर बने घोंसलों से

नन्ही चिडिया देखती है,

कोई व्यवधान नहीं होता,

जब रात का जादू चलता है.....

ब्रह्म-मुहूर्त में जब सूरज

रश्मि रथ पर आता है-

मैं ये सारे सपने अपने

जादुई पोटली में रखती हूँ...

परियां आकर मेरे अन्दर
छुपके बैठ जाती हैं कहीं

उनके पंखों की उर्जा लेकर

मैं सारे दिन उड़ती हूँ,

जब भी कोई ठिठकता है,

मैं मासूम बन जाती हूँ.......

अपनी इस सपनों की दुनिया में मैं अक्सर

नन्हे बच्चों को बुलाती हूँ,

उनकी चमकती आंखों में

जीवन के मतलब पाती हूँ!

गर है आंखों में वो बचपन

तो आओ तुम्हे चाँद पे ले जायें

एक नदी,एक नाव,एक चाँदनी -

तुम्हारे नाम कर जायें..........................

12 जुलाई, 2008

मैं........

मैं ओस की एक बूंद,
अचानक बही एक शीतल हवा,
बांसुरी की एक मीठी तान,
घनघोर अंधेरे में जुगनू,
रेगिस्तान में दो बूंद पानी......
मुझे भूल जाना आसान नही है!!!

09 जुलाई, 2008

सच्ची जीत........


ये सच है,
मैं पैसे नहीं जमा कर पायी!
ये भी सच है,
मैं रिश्तों की पोटली नहीं बाँध सकी!
मेरी बेटी ने पूछा एक दिन-"क्या मिला तुम्हे?"
मैंने सहज ढंग से कहा,
"वही-जो कर्ण को मिला....
उसने पूछा - हार?
मैंने कहा -नहीं,
वही, जो पार्थ की जीत के बाद भी
कर्ण को ही मिला.......
तुम सब ख़ुद
नाम लेते हो कर्ण का
तो फिर प्रश्न कैसा?"
वह मुस्कुराई,
उसकी आंखों में
मुझे मेरी जीत नज़र आई।
दुनिया कहती है,
"जो जीता वही सिकंदर...."
पर सत्य था कुरुक्षेत्र!
जहाँ सारथी बने कृष्ण ने
कर्ण की पहुँच से
दूर भगाया अर्जुन को,
लिया सहारा छल का,
पर मनाने न दिया जीत का जश्न..
सम्मान दिया उस तेज को..............
तो,
यही जीत होती है!

05 जुलाई, 2008

कहाँ आ गए?????????


अमाँ किस वतन के हो?

किस समाज का ज़िक्र करते हो?

जहाँ समानता के नाम पर,

फैशन की अंधी दौड़ में,

बेटियाँ नग्नता की सीमा पार कर गयीं...

पुरूष की बराबरी में,

औंधे मुंह गिरी पड़ी हैं!

शर्म तो बुजुर्गों को आने लगी है,

और चन्द उन युवाओं को -

जिनके पास मान्यताएं बची हैं.......

कौन बहन है,कौन पत्नी,

कौन प्रेयसी,कौन बहू !

वाकई समानता का परचम लहरा रहा है!

समानता की आड़ में

सबकुछ सरेआम हो गया है!

झुकी पलकों का कोई अर्थ नहीं रहा,

चेहरे की लालिमा बनावटी हो गई!

या खुदा!

ये कहाँ आ गए हम?!?

02 जुलाई, 2008

अतीत का दर्द.........




जब दर्द के शीशे गहरे चुभते हैं,
तो हर उपचार के बाद,
उसके निशान,
प्राकृतिक,शारीरिक चुभन रह जाते हैं!
अति सरल है,
'भूल जाने का परामर्श' देना!
इमारत जिंदगी की अतीत के खंडहर पर होती है...........
अतीत भूत बनकर इन कमरों में घुमा करते हैं,
नींद में भी एक दहशत ताउम्र होती है!
पागलपन कहो या-
मनोविज्ञान का सहारा लो.....
बातें ख़त्म नहीं होतीं,
खुदाई यादों की चलती ही रहती है,
कभी खुशी,कभी दुर्गन्ध बन
साथ ही रहती है!
गूंजते सन्नाटों की भाषा वही जानते हैं,
जो सन्नाटों से गुजरते हैं ,
अतीत का दर्द - दर्द का मारा ही जान पाता है!

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...