31 अक्टूबर, 2011

देखा अपना हश्र !!!



मकड़ी का जाल
हल्का हाथ लग जाए
तो अजीब सी गिजबिजाहट होती है
हटाने में छोटा सा जाला
इधर से उधर सटता है
शक्ल बन जाती है
.....
अब जरा सोचो
नहीं नहीं सोच के देखो
जाला
जैसा खंडहरों में होता है
उससे तुम टकरा जाओ
पूरे शरीर में वह चिपक जाए
चेहरा , हाथ .....
ओह !
........
कई बातें , कई रिश्ते
जाले की तरह जाने अनजाने चिपक जाते हैं
छुड़ाते छुड़ाते
खंडहर से गुजरने की गलती का आभास होता है
शक्ल देखने लायक होती है !
अचानक लगता है ....
हम बुद्धिमान नहीं
रिश्तों की भोथरी दुहाई देते
मकड़ी का भोजन हैं
बस लजीज भोजन
जिसे मौका मिलते मकड़ी चट कर जाए
और कहे
देखा अपना हश्र !!!

29 अक्टूबर, 2011

यदि संभव हो तो



कमज़ोर मन से रिसते
रक्त संबंध के ज़ख्म
लचर दलीलों
राहत भरी हँसी के मध्य
आँखों से मूक टपक रहे थे
हर करवट में कराहट ...
..........
शब्दों की पकड़
रिश्तों की भूख ..."
हमेशा तुमसे सुना , गुना
अपने मन को
बंदिशों से
स्वार्थ से परे रखा .......
पर कितनी सफाई से आज भी तुमने
अगर, मगर में बात कही !!!
ओह !
मुझे विषैले तीरों से बिंध दिया गया
और तुमने कहा -
'मारनेवाले की नियत गलत नहीं थी !'
मारने के बाद मारनेवाले का चेहरा बुझ गया
वह ख़त्म हो गया ...
ये सारे वाक्य
ज़ख्मों पर
मिर्च और नमक का कार्य कर रहे हैं !

मैंने कसकर रिसते घाव को बाँध दिया है
पर वे चीखें
जो मेरे दिल दिमाग को लहुलुहान कर रही हैं
रेशा रेशा उधेड़ रही है
उनका क्या करूँ ?
.........
बिछावन पर गिर जाने से ही दर्द गहरा नहीं होता
उनकी सोचो
जिनके पाँव चलने से इन्कार करते हैं
पर उनको चलना होता है
........
क्यूँ हर बार
इसे सोचूं
उसे सोचूं
इस बार - सिर्फ तुमसब सोचो
यदि संभव हो तो !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

24 अक्टूबर, 2011

दिवाली की शुभकामनायें



बाती की उठान पर
अदृश्य लक्ष्मी का स्वागत है
रौशनी है प्रखर
फिर मेरी आँखों में आंसू क्यूँ हैं
लक्ष्मी की आगवानी
मेरा तिरस्कार
क्या सच है तुम्हारा
और झूठ क्या है ?

( रौशनी जितनी आँखों में भर सकें , भरें - अँधेरा उतना ही कम होता जायेगा ...
दिवाली की शुभकामनायें )

22 अक्टूबर, 2011

मैं कुछ कुछ रह गया था यहीं कहीं !

यह तस्वीर मेरे भईया की है और यह घर , जो अब खंडहर प्रतीत हो रहा है , यहाँ हम १९८० तक रहे , तब पापा वहाँ के स्कूल के प्राचार्य थे , उनके नहीं रहने के बाद हम रांची शिफ्ट कर गए .......- यह तस्वीर तेनुघाट की है, जहाँ भईया अभी कुछ दिनों पहले गए अपने बेटे के साथ , उनकी तस्वीर को देख और उसी दिन उनसे बातचीत करके मेरे भीतर उमड़े भावों ने भईया के मन को शब्द दिए ........








कुछ हँसी कुछ झगड़े
यहीं तो थे कहीं
कुछ रूठना कुछ मनाना
यहीं तो थे कहीं
किसी ने न जाना
मैंने खुद भी नहीं जाना
मैं कुछ कुछ रह गया था यहीं कहीं !
आँखों में घूम गए वो पल छुट्टियों के
जहाँ सभी खड़े होते थे मेरे इंतज़ार में
एक साथ छू लेने को तत्पर
सब अपनी अपनी कहना चाहते थे
बासंती रिश्तों की खुशबू
हमारे हर कमरे , आँगन में फैली होती थी
बेमानी ठहाके लगाते थे हम
हवाएँ भी रुक कर दांतों तले ऊँगली दबाती थीं !
..........
क्या यूँ उजड़ जाते हैं बीते पल
दरक जाती हैं दीवारें
फूलों की जगह उग आती हैं झाड़ियाँ .... !!
कुछ भी हो -
इस पल कोई पुकार मुझे सुनाई दे रही है
.....किसकी पुकार कहूँ इसे
सब तो एक साथ पुकार रहे हैं ...
....
कितनी अजीब बात है -
मैं आया हूँ अपने बेटे के साथ
पर कई अपने साथ हैं -
पापा, अम्मा , बहनें , पत्नी
और यह बेटा गोद में है ....
....
यह क्या अफरातफरी है
अचानक क्यूँ समय समाप्त की घोषणा है
मुझे बड़ी बेचैनी सी हो रही है ...
क्या आज यहाँ से चलने के पहले मुझे हिदायत नहीं मिलेगी
'ठीक से जाना '
!!!
जिसे सुनते 'ओह' ज़रूर कहता था
पर बड़ा सुकून था इस बात का
रोष होता था छुट्टियों के ख़त्म हो जाने का
तो ओह ' कहने का यही बहाना होता था !
..............
चलने से पहले कहता जाऊँ
घर वो घर भले न रहा हो
पर यादों की ईमारत इतनी बुलंद है
कि मैं फिर आना चाहूँगा
क्योंकि यहाँ की दीवारों में जज़्ब वो कहकहे
आज भी सुनाई देते हैं
और यकीनन जब जब हम आयेंगे - सुनाई देते रहेंगे

21 अक्टूबर, 2011

सबसे अलग



जाने कब वह आया
पर जब से देखा जाना
सबसे अलग लगा ....
सुबह सुबह दबे पाँव
दूबों पर अटकी ओस से
मैं अपनी हथेलियाँ भरती हूँ
फिर दबे पाँव उसके सिरहाने जाकर
उसके जलते चेहरे पर
ओस बिखरा देती हूँ ....
छन् ' से आवाज़ आती है
एक धुंआ उठता है
और वह मुस्कुराकर चल देता है !
शाम को जब पंछी
अपनी नीड़ में लौट रहे होते हैं
मैं गोधूलि की लालिमा हथेलियों में भर
उसके आगे बिछा देती हूँ
पर वह मौन अरण्य में डूब जाता है !
मैं सोचती हूँ उसके नाम
हवाओं में लोरियां भर दूँ
पर वह .........
कौन है वह ? क्या चाहता है !
क्या ढूंढता है ....
आखिर पूछ ही लिया - वह ऐसा क्यूँ है?
कंदराओं से ज्यूँ आवाज़ उभरे
ठीक उसी तरह
हाँ बिल्कुल उसी तरह उसने कहा -
"क्या , कौन , क्यूँ ...
बुद्धि मत लगाओ ...
प्रकृति पात्रता ढूंढती है
देती है
उसे समझना और जानना क्या !"
और मेरे सर पर हाथ रख गया .............

17 अक्टूबर, 2011

वो जिंदादिल है !



वो जिंदादिल है
जिंदादिली से जीता है
जिंदादिली की ज़िन्दगी देता है ...
एक हँसी की सौगात में
प्राणप्रतिष्ठा करते हुए
वह कुछ भी बोलता जाता है
मन के बेसुरे सुरों को सुर देने के लिए
शब्दों के अनगिनत वाद्य यन्त्र इकट्ठे करता है
और फिर
दूसरों के लिए उगाहे शब्दों में
बुरी तरह फंस जाता है ....
खाली समय से खेलते हुए
वह खुद से ही अजनबी होता है !
कभी इस शहर
कभी उस शहर
वह ढूंढता है कुछ लम्हें
जो उसका हाल बयां कर सके
कभी इस सड़क
कभी उस सड़क
गैरों में ठहाके लगाता
वह खुद को ढूंढता है !
कितनी अजीब बात है न
रिश्तों को गहराई से जीता हुआ
प्रेम की चाक पर मन के प्याले गढ़ता हुआ
वह बेदिली से प्याले तोड़ता है
चीखता है निःशब्द ....
सुबह होते फिर इकट्ठी करता है
ओस से नम मन की मिट्टी
प्रेम की चाक पर प्याले गढ़ता है
और सहज हो उठता है
फिर से जीने के लिए
जिंदादिली की ज़िन्दगी देने के लिए
मन के बेसुरे सुरों को सुर देने के लिए !!!

13 अक्टूबर, 2011

हाड़ा रानी




- हो न हो राजा के पास नागमणि है
....
नागमणि जिसके पास हो
उसकी शक्ति अपरम्पार होती है
...तभी तो ,
एक एक हँसी छिनकर
हर हथकंडे अपनाकर
वह स्त्री हाड़ा रानी बन जाती है ...
(हाड़ा रानी के प्रेम में पागल था राजा
तो रानी ने अपना सर काटकर भेज दिया
यहाँ राजा के मणि से प्रेम है
तो राजा का सर कलम करना ही होगा )...
.........!
आपस में एक दूसरे से विमुख सेना
रंगमंच पर साथ हो लेती है -
राजा के सेनापति को अपनी ओर मिलाने की नीति चलती है
पर चलो- कोई तो हितैषी है !
और सबसे बड़ी बात कि नाग स्वयं रक्षा में
राजा के शरीर को विष के लेप से सुरक्षित करता है
..... बीण बजा नाग को भी वश में करने की कोशीशें
... मात्र मणि के लिए -
कोई स्वार्थ को प्रेम
और प्रेम को स्वार्थ कैसे कह सकता है !
ज्ञान तो है-
पर कुत्सित सोच से अभिशप्त !
और अभिशप्तता कभी भी फलदायी नहीं होती
जिह्वा पर शहद लगाने से
बोली मीठी नहीं होती
सच की आग को
कोई भी बारिश ---
ठंडी नहीं कर सकती !!!!

11 अक्टूबर, 2011

फॅमिली बैक ग्राउंड बहुत बड़ी चीज है !!!???



नो डाउट - फॅमिली बैक ग्राउंड बहुत बड़ी चीज है .... सुख हो या दुःख , बाहरी झंझावात हो , आर्थिक सामाजिक समस्या हो तो यह परिवार एक मुट्ठी सा होता है ...... लेकिन प्रचलित फॅमिली बैक ग्राउंड का अर्थ क्या है ? पैसेवाला घर ? ओह्देवाला घर ? माँ , बाप , पति-पत्नी - जहाँ रात दिन कलह होते हैं , जिनके लिपे पुते चेहरे और भारी भरकम पर्स के आगे सामाजिक नियम कुछ और हो जाते हैं . जो अपने बच्चों से बेखबर होते हैं , जिनके बच्चे एक घर की तलाश में गुमराह हो जाते हैं ....
पेचीदा सा लगता यह सवाल मेरे अन्दर हथौड़े मारता है -
चलो सतयुग से प्रश्न उठाते हैं - राजा दशरथ की तीन रानियाँ थीं , तो आप कहेंगे - उस समय यही प्रचलन था . यदि यह सही था तो कालांतर में यह कानून क्यूँ बना कि दो शादी अपराध है ? या उसी युग में राम ने एक पत्नीव्रत क्यूँ लिया ? दशरथ के तीन विवाह , तीनों से हुए पुत्रों का परिणाम था राम का वनवास ... कैकेयी की जिद्द से दशरथ के प्राण गए ,तो उस परिवार को क्या बड़ी चीज कहेंगे ? उर्मिला के लिए कुछ नहीं सोचा गया - पर चलो यह ख़ास बात है ही नहीं !(अबला जीवन हाय ......) ............. सीता के त्याग , सहनशीलता का उदाहरण आप सब हम सब आज तक देते आए हैं , एक रात के लिए किसी की बेटी का अपहरण कलंक - तो सीता तो एक वर्ष रहीं ! अब बताइए कि दूरबीन लगाकर कौन पल पल का हिसाब रख रहा था और यदि रख रहा था तो निःसंदेह रावण सम्मान योग्य है . ...... पर राम ने आम जनता की शंका के निवारण के लिए अग्नि परीक्षा ली - अब आप कहेंगे कि वे भगवान् थे , राम ने पहले ही सीता को अग्नि को सुपुर्द कर सुरक्षित कर दिया था - अब प्रश्न है कि हम भगवान् कैसे बन जाएँ , और यदि यह सत्य था तो सबके सामने परीक्षा का प्रयोजन क्यूँ ? सतयुग में तो सब भगवान् ही थे ! फिर एक धोबी , फिर वनवास - और कोई खोज खबर नहीं .... इस फॅमिली में बड़ी चीज क्या रही ?
अब चलें द्वापर युग में ----- मथुरा नरेश कंस अपनी नृशंस ज़िन्दगी को बरक़रार रखने के लिए अपनी बहन देवकी और उसके पति वासुदेव को बंदीगृह में डाल देता है , क्योंकि ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि देवकी का आठवां पुत्र उसके लिए काल होगा ..... कालकोठरी में वह निर्ममता से देवकी के बच्चों की हत्या करता गया = इस पूरे प्रकरण में परिवार जैसी कोई बड़ी चीज तो नहीं थी .
कृष्ण की अदभुत छवि सर्वव्याप्त है - तुलसी दास ने बहुत ठीक लिखा है- जाकी रही भावना जैसी, हरि मूरत देखी तिन तैसी " कृष्ण के रास की अलग अलग परिभाषा है , किसी ने उसे भक्तिभाव से जोड़ा है, किसी ने शरीर से . यदि हम शरीर से जोड़कर देखेंगे तो अनुकरणीय नहीं , न ही कोई परिवार मानेंगे . तो यह व्यापक सत्य गीता से ही समझा जा सकता है , जिसे हम कसौटी पर रखने की ध्रिष्ट्ता नहीं कर सकते !
पर उसी युग में शांतनु पुत्र विचित्रवीर्य की दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। अब कुल नाश होने के भय से माता सत्यवती ने एक दिन भीष्म से कहा, "पुत्र! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो।" माता की बात सुन कर भीष्म ने कहा, "माता! मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता।"
यह सुन कर माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। अचानक उन्हें अपने पुत्र वेदव्यास का स्मरण हो आया। स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गये। सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, "हे पुत्र! तुम्हारे सभी भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो।" वेदव्यास सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका के पास गये। अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बन्द कर लिये। वेदव्यास लौट कर माता से बोले, "माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किन्तु नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा।" सत्यवती को यह सुन कर अत्यन्त दुःख हुआ और उन्हों ने वेदव्यास को छोटी रानी अम्बालिका के पास भेजा। अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई। उसके कक्ष से लौटने पर वेदव्यास ने सत्यवती से कहा, "माता! अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र होगा।" इससे माता सत्यवती को और भी दुःख हुआ और उन्होंने बड़ी रानी अम्बालिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा, "माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।" इतना कह कर वेदव्यास तपस्या करने चले गये।
समय आने पर अम्बा के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।
अब इस परिवार को आदर्श की किस श्रेणी में रखेंगे , कहाँ उदाहरण देंगे और परिवार सही मायनों में हुआ किसका ..... न शांतनु से संबंध न विचित्रवीर्य से न भीष्म से - तो बंधु कथा तो यहीं से पलट गई ! और अब सूक्ष्मता से देखा जाए तो दासी पुत्र विदुर की ही चर्चा हो सकती है.... विदुर से रिश्ता जोड़ना अधिक श्रेष्ठ है , बशर्ते ध्रितराष्ट्र और पांडू से रिश्ता जोड़ने के ! पांडू पुत्र कह देने से अर्जुन,युद्धिष्ठिर ,भीम, नकुल, सहदेव पांडू पुत्र नहीं होते , कर्ण तो सूर्य पुत्र कहे गए (सही नाम मिला) . उसके बाद इस कहानी में आती है द्रौपदी ..... जो ५ पुत्रों के बीच खाद्य सामग्री की तरह सौंप दी गई . कुंती ने जानबूझकर खुद की तरह कई पुरुषों के मध्य द्रौपदी को कर दिया .... खैर , ये परिवार के नाम पर क्या बड़ी चीज थे जब अपनी शान के लिए इन्होंने द्रौपदी को दाव पर लगा दिया - कृष्ण न होते तो बेड़ा गर्क ही था !
अब आज ऐसी कुंती माँ के संग कौन रिश्ता जोड़ेगा ..... ह्म्म्म , जोड़ेगा , यदि हस्तिनापुर जैसा राज्य हो , वैभव के आगे सारे ऐब निरस्त होते हैं !!!
..............
अब कलयुग के ऐसे पुरुष पात्रों को उठाती हूँ , जिसमें से आपके आसपास की कई छवियाँ उभरेंगी , और आपका मन उसके साथ आपके मन को तौलेगा - हाँ मन को , क्योंकि मन से भागना संभव नहीं ! और ऐसे सवालिया पात्र परिवार की बात अधिक उठाते हैं -
- दहेज़ के नाम पर पत्नी को बेरहमी से मारनेवाले
- बेटी होने पर पत्नी के साथ बुरा सलूक करनेवाले
- अपने अहम् की तुष्टि में पत्नी को घर से निकालनेवाले
- गाली गलौज करनेवाले
- हत्या करनेवाले
- एक एक रोटी का टुकड़ों में हिसाब करनेवाले
- दूसरे की बहू बेटी को गलत नज़रों से देखनेवाले ................. इत्यादि
अब कुछेक महिला पात्रों को भी उठाती हूँ :
- अपने संदेह में पुरुष का जीना दुश्वार करना
- पुरुष के हर कार्य में हस्तक्षेप , अपनी राय देना
- पुरुष के परिवार के सदस्यों के साथ बदसलूकी से पेश आना
- अपनी बात मनवाने के लिए त्रियाचरित्र दिखाना
- बात बेबात कलह करना .................
ऐसे परिवार की बातें आसमानी होती हैं , ये सिर्फ दूसरों से उम्मीदें पालते हैं, उनकी आलोचना में वक़्त जाया करते हैं और सबसे ज्यादा तरीके की बात यही करते हैं . ' फॅमिली फॅमिली ' सबसे ज्यादा यही करते नज़र आते हैं .
फॅमिली बैक ग्राउंड बहुत बड़ी चीज तभी होती है जब वह पैसे से समर्थ हो , रूतबा हो .... मात्र शिक्षा का कोई औचित्य नहीं (शिक्षा का संबंध संस्कार से जुड़ा होता है और रोटी कपड़ा मकान )...पॅकेज से शुरुआत होती है , फिर कौन खूनी है, कौन अय्याश है ... कोई फर्क नहीं पड़ता ,
और आजकल तो लिविंग रिलेशनशिप का ज़माना है - कानूनन ! और भी बहुत कुछ क़ानूनी है तो अब पलड़े का क्या आधार होगा ! किसे बड़ी चीज कहेंगे ....???

08 अक्टूबर, 2011

तर्पण देंगे



( कवि सिर्फ खुद को नहीं संजोता , शून्य में गूंजती ख़लिश को भी पकड़ता है - कुछ ख़लिश सी है इस अव्यक्त चाह में और मेरी पकड़ में )

संबंधों संभावनाओं की मरीचिका बनी रही
कर्तव्यों के ऊँचे ऊंट की थैली में
अपनी जिजीविषा भर
उम्मीदों की हरीतिमा बनाता रहा
अपनों की छोड़ो
गैरों को भी तकलीफ ना हो
ख्याल रखा ....

सूर्य की तपिश को आत्मसात करता गया
रेत के गर्भ में
रक्त भरता गया
भूल गया ---
रक्त का स्वाद लग जाए
तो फिर ..... !!!

परमात्मा ने सब पढ़ाया
सिखाया ...
कई बार पुकारा
कस्तूरी की पहचान दी
पर मैं आम मनुष्यता को जीता गया !
अँधेरा जब जब छाया
मेरा सर्वांग दीपक बन जल उठा
साम दाम दंड भेद की नीति अपना
प्रभु ने अपने होने का विश्वास दिया
जाने क्यूँ !....
मैं मूरख अज्ञानी बना
नट की तरह रस्सी पर चलता रहा
डगमगाया ....
पर हिम्मत !- नहीं हारी !

मेरे इर्द गिर्द भीड़ लगती गई
मेरी आँखें शुष्क होती गईं
क्योंकि भरी भीड़ में कोई शुभचिंतक नहीं मिला
...... मैं करता गया रिक्त होता गया
शिकायतें बढ़ती गईं !
मेरे प्रदीप्त अस्तित्व का दायित्व
सबने अपने ऊपर ले लिया
किसी ने तेल होने का दावा किया
किसी ने बाती ....
रात के तीसरे प्रहर में बिलखता मेरा मन और मैं
जमीन पर सत्य लिखते रहे
' संबंधों संभावनाओं की मरीचिका में
मैं तो तेल विहीन रहा ....
क्या कभी किसी बारिश में इठलाते पेड़ पौधे
मेरे इस सत्य को तर्पण देंगे ? '

05 अक्टूबर, 2011

तो 'कुमाता' ही कही जाऊँगी



आज भी -
मैं घूम रही हूँ अनवरत ...
रक्तदंतिका को साथ लिए
रक्तबीज के रक्त का प्रभाव निरंतर है
आज भी शुम्भ निशुम्भ की महिमा गाते हुए
उसका दूत
मुझसे ध्रिष्ट्ता करता है
साधारण वेशभूषा में जब दूत मुझे नहीं पहचानता
तो तुम मुझे क्या पहचानोगे !
तुम मुझपर राह चलते फिकरे कसते हो
गर्भ में मेरा हिसाब किताब करते हो
अग्नि के हवाले करते हो
और फिर मुझे मिट्टी पत्थर .... से एक आकृति दे
मेरी वंदना करते हो ....
आँखें खोलो ,
गौर से देखो और पहचानो
सर मत झुकाओ ....
जिस ध्रिष्ट्ता से तुम मेरा अस्तित्व कलंकित करते हो
मेरे कोमल अनदेखे रूप का संहार करते हो
उसी ध्रिष्ट्ता से कहो
किस कृत्य के बदले तुम अखंड दीप जलाते हो
अपने सीने पर कलश स्थापित कर
गुमराह भक्तों की भीड़ इकठ्ठी करते हो
और खुद को पवित्र समझते हो ???
.......
चंड मुण्ड , शुम्भ निशुम्भ , रक्तबीज , महिषासुर ...
मैं उनका संहार करने आती हूँ
करती हूँ
करती रहूंगी ...
माना मैं ' माँ ' हूँ
'माता कुमाता न भवति '
पर यदि मैंने असुर पुत्रों को छोड़ दिया
तो मैं 'कुमाता' ही कही जाऊँगी

04 अक्टूबर, 2011

मन को पता होता है



तुम्हें डर था
पढ़ लूँगी मैं चेहरे को
तो तुमने चेहरे को व्यस्त बना लिया
.... मुझे हँसी आई
उम्र होने पर भी बच्चों वाली कोशिश पर !
चेहरा व्यस्त हो , शांत हो
लम्बी सी मुस्कान ओढ़े हुए हो
पर वह मन से अलग नहीं होता ....
अगर मन से अलग चेहरे की भाषा होती
तो शिव ने भस्मासुर की मंशा नहीं जानी होती
यमराज के आगे सती की निष्ठा की जीत नहीं होती
सत्य तो यही है ... कि
प्रहलाद के मन ने ही होलिका को जलाया
........
रिश्ते अनगिनत होते हैं
रक्त , जाति, धर्म , देश के
पर ठहराव मन के रिश्तों में होता है
और मन
चेहरे से विलग नहीं होता ...
........
मन से अलग होना रूह से अलग होना
और जब शरीर खाली होता है
तो उस भटकती रूह को तुमने भी देखा और सुना है
फिर कैसे सोच लिया
तुम्हारी रूह मुझसे नहीं मिलेगी
कुछ नहीं कहेगी
....
खनकती हँसी
बेजान गूंजती हँसी का फर्क
मन को पता होता है -
!!!

01 अक्टूबर, 2011

समंदर को मीठा



मेरा दिल कर रहा है
खींच दूँ दीवारों पर
आड़ी तिरछी रेखाएं
उन रेखाओं को छूकर
कोई मेरे मन को पढ़ जाए
समंदर की लहरों तक खींच ले जाए
समंदर से कहे
'शोर को जब्त कैसे करते हैं सीख लो'
समंदर की लहरें कहें -
' इसे मेरी तरह चीखना सीखा दो
वरना धीरे धीरे सारी मिठास ख़त्म हो जाएगी
और खारापन रगों में बहने लगेगा ....
............
मैं चाहती हूँ ... वह कोई
समंदर को मीठा कर जाए !!!

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...