08 अक्टूबर, 2011

तर्पण देंगे



( कवि सिर्फ खुद को नहीं संजोता , शून्य में गूंजती ख़लिश को भी पकड़ता है - कुछ ख़लिश सी है इस अव्यक्त चाह में और मेरी पकड़ में )

संबंधों संभावनाओं की मरीचिका बनी रही
कर्तव्यों के ऊँचे ऊंट की थैली में
अपनी जिजीविषा भर
उम्मीदों की हरीतिमा बनाता रहा
अपनों की छोड़ो
गैरों को भी तकलीफ ना हो
ख्याल रखा ....

सूर्य की तपिश को आत्मसात करता गया
रेत के गर्भ में
रक्त भरता गया
भूल गया ---
रक्त का स्वाद लग जाए
तो फिर ..... !!!

परमात्मा ने सब पढ़ाया
सिखाया ...
कई बार पुकारा
कस्तूरी की पहचान दी
पर मैं आम मनुष्यता को जीता गया !
अँधेरा जब जब छाया
मेरा सर्वांग दीपक बन जल उठा
साम दाम दंड भेद की नीति अपना
प्रभु ने अपने होने का विश्वास दिया
जाने क्यूँ !....
मैं मूरख अज्ञानी बना
नट की तरह रस्सी पर चलता रहा
डगमगाया ....
पर हिम्मत !- नहीं हारी !

मेरे इर्द गिर्द भीड़ लगती गई
मेरी आँखें शुष्क होती गईं
क्योंकि भरी भीड़ में कोई शुभचिंतक नहीं मिला
...... मैं करता गया रिक्त होता गया
शिकायतें बढ़ती गईं !
मेरे प्रदीप्त अस्तित्व का दायित्व
सबने अपने ऊपर ले लिया
किसी ने तेल होने का दावा किया
किसी ने बाती ....
रात के तीसरे प्रहर में बिलखता मेरा मन और मैं
जमीन पर सत्य लिखते रहे
' संबंधों संभावनाओं की मरीचिका में
मैं तो तेल विहीन रहा ....
क्या कभी किसी बारिश में इठलाते पेड़ पौधे
मेरे इस सत्य को तर्पण देंगे ? '

34 टिप्‍पणियां:

  1. सूर्य की तपिश को आत्मसात करता गया
    रेत के गर्भ में
    रक्त भरता गया
    भूल गया ---
    रक्त का स्वाद लग जाए
    तो फिर ..... !!!...बहुत गहन अनुभूति लिए सुन्दर अभिव्यक्ति..

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  2. संबंधों संभावनाओं की मरीचिका में
    मैं तो तेल विहीन रहा ....
    क्या कभी किसी बारिश में इठलाते पेड़ पौधे
    मेरे इस सत्य को तर्पण देंगे ? '

    ohh behad maarmik....man rikt hi rah jata hai..ant tak..

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  3. हम्म ..इसे पढ़ने दुबारा आउंगी .

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  4. man ki gahri awastha ka chintan...

    किसी ने तेल होने का दावा किया
    किसी ने बाती ....
    रात के तीसरे प्रहर में बिलखता मेरा मन और मैं
    जमीन पर सत्य लिखते रहे
    ' संबंधों संभावनाओं की मरीचिका में
    मैं तो तेल विहीन रहा ....
    क्या कभी किसी बारिश में इठलाते पेड़ पौधे
    मेरे इस सत्य को तर्पण देंगे ? '

    bahut sundar rachna, badhai.

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  5. दीदी ....
    ज्यादा नहीं कह सकूँगा , आखेँ उस पीड़ा से नम हैं जो मैं देख नहीं सका लेकिन समझ सका...
    इतना कहना चाहूँगा "यहाँ ही" कि "मैं हूँ ना ..."

    सादर
    हमेशा आपके आसपास मौजूद छोटा सा लेकिन हिम्मती भरत

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  6. सत्य को तर्पण तो परम सत्य ही दे पाये शायद ..
    बेहतरीन रचना

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  7. बड़ा कठिन काम है नट बन रिश्तों की अदृश्य डोरी पे संतुलन बनाये रखना ... बहुत सुन्दर और मन को स्पर्श कर जाती कविता !

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  8. अन्त तक अकेले रहने की तड़प कभी कभी बीच में भी झलक जाती है। बड़ी प्रभावी रचना।

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  9. सच्चा प्रयास शून्य में गूंजती खलिश को शब्दों में बांधने का. बहुत आभार रश्मि जी.

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  10. संबंधों संभावनाओं की मरीचिका में
    मैं तो तेल विहीन रहा ....
    क्या कभी किसी बारिश में इठलाते पेड़ पौधे
    मेरे इस सत्य को तर्पण देंगे ?


    वही याद आता है कि कोई ये कैसे बताये कि कोई तनहा क्यों है ...
    डूबते उतरते हैं इन गहन अभिव्यक्तियों में !

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  11. पर हिम्मत !- नहीं हारी !
    तर्पण दें या न दें कोई फर्क नहीं पड़ेगा ।

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  12. कवि सिर्फ खुद को नहीं संजोता , शून्य में गूंजती ख़लिश को भी पकड़ता है - कुछ ख़लिश सी है इस अव्यक्त चाह में और मेरी पकड़ में )bhaut hi gahri baat kahi hai aapne....

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  13. रात के तीसरे प्रहर में बिलखता मेरा मन और मैं
    जमीन पर सत्य लिखते रहे
    ' संबंधों संभावनाओं की मरीचिका में
    मैं तो तेल विहीन रहा ....
    क्या कभी किसी बारिश में इठलाते पेड़ पौधे
    मेरे इस सत्य को तर्पण देंगे ? '

    Rashmi ji,
    bahut hi sundar aur bhavnatmak panktiyan......
    Poonam

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  14. भावों की यात्रा में कितना कुछ देख लिया..

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  15. रात के तीसरे प्रहर में बिलखता मेरा मन और मैं
    जमीन पर सत्य लिखते रहे..

    संघर्ष-रत जीवन-अनुभव की विलक्षण प्रस्तुति..
    आभार.

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  16. गम्भीर वैचारिक सोच से उद्भूत एक सुंदर कविता

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  17. जी वाकई बहुत सुंदर, भावपूर्ण रचना।

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  18. जी वाकई बहुत सुंदर, भावपूर्ण रचना।

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  19. जी वाकई बहुत सुंदर, भावपूर्ण रचना।

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  20. जी वाकई बहुत सुंदर, भावपूर्ण रचना।

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  21. रात के तीसरे प्रहर में बिलखता मेरा मन और मैं
    जमीन पर सत्य लिखते रहे
    ' संबंधों संभावनाओं की मरीचिका में
    मैं तो तेल विहीन रहा ....
    क्या कभी किसी बारिश में इठलाते पेड़ पौधे
    मेरे इस सत्य को तर्पण देंगे ? '


    मन को गहरे तक छू गई एक-एक पंक्ति...
    एक-एक शब्द.... सुन्दर बिम्ब प्रयोग....
    सार्थक रचना.

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  22. 4 baar padhi tabhi kuch comment karne ki koshish kar rahi hu... bahut hi maarmikta hai... bahut sara dard hai... bahut hi gahraai hai... bahut kuchh hai...

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  23. अपनी जिजीविषा भर
    उम्मीदों की हरीतिमा बनाता रहा
    अपनों की छोड़ो
    गैरों को भी तकलीफ ना हो
    ख्याल रखा ....


    बेजोड़ और भावपूर्ण कविता!

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  24. मेरे प्रदीप्त अस्तित्व का दायित्व
    सबने अपने ऊपर ले लिया
    किसी ने तेल होने का दावा किया
    किसी ने बाती ....
    रात के तीसरे प्रहर में बिलखता मेरा मन और मैं
    जमीन पर सत्य लिखते रहे
    कुछ भी तो शेष नहीं जो आपने इस अभिव्‍यक्ति में ना कहो हर शब्‍द गहरे उतरता सा ...नि:शब्‍द करती रचना ...उत्‍कृष्‍ट लेखन के लिए आभार ।

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  25. aapki kai rachnayein padhi hain...is rachana ne ander tak hila diya...
    agar ya kahun ki
    रात के तीसरे प्रहर में बिलखता मेरा मन और मैं
    जमीन पर सत्य लिखते रहे
    ' संबंधों संभावनाओं की मरीचिका में
    मैं तो तेल विहीन रहा ....
    क्या कभी किसी बारिश में इठलाते पेड़ पौधे
    मेरे इस सत्य को तर्पण देंगे ? '
    ye lines bahut achhi ban padi hain to kafee nahi hoga... kunki ye rachna to poori ki poori ander ki uthal puthal ko darshatee hain.... iska likha har shabd sach lagta hai .... kaash koi aisa hota to ye kehta.. mei tumsae alag hu hi kahan... bus ek hai hum... jo tum wo mei...
    is rachna ko mei down load kerke rakh rahi hoon...apne paas...

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  26. संबंधों संभावनाओं की मरीचिका में
    मैं तो तेल विहीन रहा ....
    क्या कभी किसी बारिश में इठलाते पेड़ पौधे
    मेरे इस सत्य को तर्पण देंगे ? '

    ...एक एक शब्द गहन दर्शन को संजोये मन को छू जाता है..

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  27. मेरे इर्द गिर्द भीड़ लगती गई
    मेरी आँखें शुष्क होती गईं
    क्योंकि भरी भीड़ में कोई शुभचिंतक नहीं मिला
    ...... मैं करता गया रिक्त होता गया
    शिकायतें बढ़ती गईं !मन को गहरे तक छू गई एक-एक पंक्ति...

    जवाब देंहटाएं
  28. ' संबंधों संभावनाओं की मरीचिका में
    मैं तो तेल विहीन रहा ....
    क्या बात है दी.

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...