29 फ़रवरी, 2012

असर दुआओं का / जबरदस्त असर हादसों का



आज मैं जो हूँ
जिस भी मुकाम पर हूँ
उसमें जितना असर दुआओं का था
मौसम , आँखों के सपने का था
उतना ही जबरदस्त असर हादसों का था !

हादसे ना हों
तो उबड़ खाबड़ रास्तों को
सुगम बनाने का जज्बा नहीं उठता
और जज्बा जब होता है
तो धैर्य बढ़ता जाता है
पड़ाव मिलते जाते हैं !

हादसों ने बताया
कि विश्वास को अविश्वास में बदलने की
गहरी निजी साजिश होती है
सब्ज़ बाग़ दिखाकर
जलील किया जाता है
और सबसे बड़ी बात -
कि जो अंजाम देते हैं
वे बहुत मासूम होते हैं
उनकी सोची समझी चाल
बेचारगी बन समूह को अपनी तरफ ले जाती है
और समूह से कई चेहरे
अगले अंजाम का गुर सीखते हैं ...

हादसों ने बताया
कि समय पर अपनों की पहचान कितनी दुखदाई होती है
जिनके लिए पथरीले रास्तों को समतल बनाया
मंजिल पाते ही उनके अंदाज बदल गए !

तो मुझे होना पड़ा - मैं जो हूँ
जिन्होंने माथे पर हाथ रखा
उनकी दुआओं की हिम्मत ने
मुझे अकेले चलना सिखाया
बन्द दरवाजों की तरफ मुड़कर नहीं देखना
दरवाज़ा बन्द करनेवालों ने सिखाया
तूफानों में अडिग रहना
उनकी स्व नीति ने सिखाया ...
इतनी ईंटें बिछायीं
कि ठेस खाते खाते
अंधेरों में भी इंटों की पहचान मिल गई
और मैं उन्हें पार करने लगी
यही नहीं -
उन्हीं इंटों से मैंने एक घर बनवा लिया
अब सब मेरी जीत को मेरी चालाकी कहते हैं

........" आज मैं जो हूँ
जिस भी मुकाम पर हूँ
उसे चालाकी कहने से पहले
अपनी गिरेबान देख लो " - यह कहना भी आ गया ...

दुआओं के आगे सर झुकाना
हादसों की असलियत बताना
मुझे इन्होंने ही सिखाया है
भूल नहीं सकती !!!

27 फ़रवरी, 2012

बहुत भारी .... !!!



हार किसे कहते हैं ?
गिरने को ? -
परीक्षा में कम अंक आने को ? -
शेयर गिर जाने को ?
अधकचरे प्रेम की बाजी हारने को ?
.....
आँधी में थरथराते दिए की लौ को
हम हथेलियों की ओट देते हैं
फिर हम उन हथेलियों को क्यूँ नगण्य करते जाते हैं
जो बड़े से बड़े तूफ़ान में हमें ओट देते हैं
जिस हार से हम थरथराने लगते हैं
उसे मामूली बनाने में वे कोई कसर नहीं रखते
.... पर हम !
हार को गले से लगाए रखते हैं
उस जीत को नज़रअंदाज कर देते हैं
जो नगण्य कर दिए जाने पर भी
खिड़की दरवाज़े खोलते रहते हैं
ताकि हमारा दम न घुटे ...
....
ज़िन्दगी की असली जीत इसी में है
अन्यथा
हार है कि तुम अम्बानी नहीं
हार है कि तुम्हारे पास बंगला गाड़ी नहीं
हार है कि तुम रातों रात स्टार नहीं
...........
जीतना चाहते हो तो उन सजदों को देखो
जो तुम्हारे लिए दुआएं माँग रहे हैं
जानो कि हार , उथलपुथल तो हर दिन है
पर इन सब पर
दुआओं में उठे हुए हाथों का पलड़ा भारी है
बहुत भारी .... !!!

25 फ़रवरी, 2012

क्यूँ करूँ ?



क्यूँ मैं हमेशा हौसलों की बातें करूँ ?
इसलिए कि तुम्हारे पंख थक गए हैं
मन से लेकर सोच तक शोर ही शोर है
तुम्हें कुछ दिखाई नहीं दे रहा
सुनाई नहीं दे रहा
तो मैं कुछ ऐसा कहूँ कि
बन्द दरवाज़े स्वतः खुल जाएँ
एक नई सोच शोर से ऊपर दिखाई दे
और तुम नई उर्जा से भर जाओ ..... !
.......
तुम रिश्तेदार हो , मित्र हो
या स्वार्थी ?
तुम्हें मेरे रास्ते कभी तंग नज़र नहीं आए
मेरे आस पास उठते शोर
मार- काट नज़र नहीं आए
!!! इन्हें छोड़ो ,
क्या हौसलों के दिए जलाते
तुम्हें मेरे थरथराते हाथ नहीं दिखे
सूखे होठों पर जीभ फिराते बुझी मुस्कान नहीं दिखी
नहीं दिखा तुम्हें कि जो मैं कल थी
वो आज रत्ती भर से अधिक नहीं !
....
कितनी पागल या बेवकूफ हूँ मैं
दिखता तो यूँ गुम न होता यह लफ्ज़
' मैं हूँ न ' ...
इस एक आश्वासन पर
मैं क्या नहीं बनी -
ब्रह्मा विष्णु महेश बनी
सारथी बनी
कर्ण बनी
..... शायद इसीलिए जाना
कि ईश्वर खामोश क्यूँ है
....
शायद ये मैंने नहीं उसने ही पूछा है -
" क्यूँ मैं हमेशा हौसलों की बातें करूँ ?
.... अखंड दीप जला
अगरबती जला
नैवेद्य चढ़ा ... तुमने भक्ति प्रेम की इति मान ली
... रौशनी मैं , खुशबू मैं , अन्न मैं ...
यह सब क्या देना !
कभी हाथ जोड़े मुझसे मेरा हाल तो पूछते
अपने स्वार्थ , अपनी मंशा के दरवाज़े बन्द कर
मुझे कोलाहल से मुक्त तो करते
एक बार मेरी जगह पर आकर
मेरा दर्द समझते
परिवार सिर्फ तुम्हारा नहीं
मेरा भी है .... "
........... फिर क्यूँ
कब तक ......... आखिर कब तक !

21 फ़रवरी, 2012

एक कान से दूसरे कान



" कहने दो कोई कुछ फालतू कहता है तो
एक कान से सुनो दूसरे से निकाल दो "
मैंने अपनी छोटी बेटी की डबडबाई आँखों को
चूमकर कहा ...

उसने जो कहा
वह सुनकर मैं ठिठक सी गई
" माँ , इतना आसान नहीं
दोनों कान के बीच एक दिमाग भी तो होता है
जो इसे कैच कर लेता है ..."
छोटी होकर वह बड़ी बात सीखा गई
" सच तो ये है "

एक कान से दूसरे कान से निकालने की बात कहना
जितना सहज है उतना सरल नहीं
अगर सरल होता तो
बौखलाने की नौबत ही नहीं आती
खुद में बड़बड़ाने के हालात नहीं होते
......

हम भी न -
कई बार यूँ हीं माहौल को कूल रखने के लिए
बात को आई गई करने के लिए
कुछ भी कह देते हैं ...
....
जो बातें हर्ट करती हैं
वे आई गई नहीं हो पातीं
न एक कान से दूसरे कान तक जाती हैं
वो जो बीच में एक दिमाग है
और एक ज़ुबान है
वह भी वर्क करता है
ज़बरदस्त वर्क -
सोचके देखिये
सारे नतीजे उसी के हैं ....

18 फ़रवरी, 2012

ऐब्नौर्मल



जब ज़िन्दगी फूलों से गुजरकर
तूफानों के मध्य चीखती है
फिर अचानक खामोश हो
अपने रास्ते बनाने लगती है
होकर भी
कहीं गुम सी जाती है
पर क्रम निभाती रहती है
तो -
- ऐब्नौर्मल दिखती है या नहीं
ये तो नहीं पता
पर कही जाती है !!!
कहनेवाले वही होते हैं
जो चीख को अनसुना कर चैन से सोते हैं ...
......
कभी इन सोनेवालों से कोई जाने
' नींद कैसे आ जाती है ?'
इतना खाली है दिल दिमाग
कि कोई असर नहीं होता
या ज़िन्दगी को ऐब्नौर्मल बनाने का
यह अचूक नुस्खा है !!!

14 फ़रवरी, 2012

प्यार कुप्यार न भवति



प्यार की व्याख्या नहीं होती - हो ही नहीं सकती
प्यार के शब्द नहीं होते - सब कम लगते हैं
प्यार सरेआम का एहसास नहीं
आँखों में तैरता एक ख़ास बादल होता है
प्यार न तर्क
प्यार न टाइम पास
प्यार न एक दिन का दायरा
.... हाँ बर्थडे की तरह एक पूरा दिन इसके नाम ( १४ फरवरी )
................
प्यार - सबकुछ खोकर भी बहुत कुछ पाना है
जिस तरह माता कुमाता न भवति
उसी तरह
प्यार कुप्यार न भवति

11 फ़रवरी, 2012

कत्तई नहीं ! :)



(आस पास कई लोग ऐसे भी मिल जाते हैं - )

न तुम तब
तब के थे
न तुम आज
आज के हो
तुम वह राजा भी नहीं हो
जिसके सिर पर सिंग था
तुम तो बिना सिंग के
सिंग होने की बात करते हो
और सोचते हो -
कोई तुम्हारे सिंग की चर्चा कर रहा है ...
:)
दरअसल तुम एक पागल हो
जो कभी कपड़े में होता है
तो कभी नंगा ...
ऐसे में तुम किसी दिन नंगे से परहेज रखते हो
किसी दिन कपड़े पहने लोगों से ...
:)
तुम्हारी मानसिकता दयनीय तो बिल्कुल नहीं
खतरनाक से भी अधिक हास्यास्पद है
क्योंकि तुम कभी धूनी रमाते हो
कभी नशे में धुत्त रोते हो
कभी ईंट पत्थर के साथ सम्राट हो जाते हो !
:)
बचपन और पौधा एक सा होता है
समय समय पर काटछांट ना हो
तो गुलाब गुलाब होकर भी अपनी छवि खो देता है
और इन्सान अपनी ज़ुबान !
तुमने भी ज़ुबान खो दी है
कहाँ कब किससे क्या कहना चाहिए
तुमने सीखा नहीं
पर अपने आगे सबको झुकाना चाहते हो !
तुम दया के पात्र बिल्कुल नहीं
तुम वह पात्र हो
जिसमें अमृत भी अपनी पहचान खोने लगता है
इस लिहाज से
तुमसे डर लगता है !
अपनी पहचान खोना
किसी को गवारा नहीं होता
और बेवजह एक पागल की सनक में
कत्तई नहीं ! :)

10 फ़रवरी, 2012

मरीचिका में भी क्षितिज का आधार



लिखनेवाले
एहसासों का बिछौना
एहसासों का सिरहाना
एहसासों का गिलाफ रखते हैं
साइड टेबल पर जो पानी रखा होता है
वह भी एहसासों से भरा होता है
.......
एहसासों के पैबंद
उनके पैरों की गति बन जाते हैं
पैबंद सदृश्य सराहनीय शब्द
उनका हौसला बन जाते हैं
धरती आकाश से वंचित होकर भी
उनके होने के एहसास से
वे इन्द्रधनुष का निर्माण कर लेते हैं
......
भावों का इन्द्रधनुष बारिश की प्रतीक्षा नहीं करता
शब्द ही सागर
शब्द ही मंथन
शब्द ही मौसम
शब्द ही गुबार
शब्द ही निस्तार
शब्द शब्द भावों की कस्तूरी लिए चलता है
लिखनेवाले को मरीचिका में भी
क्षितिज का आधार मिलता है
.......
सोचो - कोई यूँ ही नहीं लिखता है

07 फ़रवरी, 2012

सुकून से मरो ...



एक अपमानजनक थप्पड़ !
छोटा मत जानो या मानो
जानलेवा बन जाए
तब तक इंतज़ार क्यूँ करना !
चिंगारी को भभक कर जल जाने दो
वरना दायरा बढ़ता जायेगा ...
न्याय समय से ना हो
तो एक अपराध के
कई गुनहगार हो जाते हैं
सफाई देते देते शिकायतों की गिरहें
कसती जाती हैं ...
पता भी नहीं चलता
और अन्दर की सारी बुनावट
अजनबी हो जाती है
अपनी हँसी भी अनजानी लगने लगती है
!!!
एक वक़्त आता है
जब हमें लगता है
दुनिया बदल गई
पर सही मायनों में हम बदल जाते हैं !
ख़ामोशी कहो या सन्नाटा
वह हमारे भीतर ही गहराता है
और जब अन्दर बसंत नहीं रह जाता
तो बाहर का बसंत भी सूखा लगता है
प्रकृति भी बेगानी लगती है !
!!!
फिर क्या इंतज़ार
कैसा और किसका इंतज़ार ...
जो कुछ दबा सुलग रहा है
उसे बाहर आने दो
वरना दायरा बढ़ता जायेगा !
!!!
जानलेवा विस्फोट प्राण ले
उससे पहले गले लगकर रो लो
सुकून से मरो ...

05 फ़रवरी, 2012

सबकुछ सतह से ही दिखता है ...



लोग कहते हैं
जी हाँ लोग -
कुछ मेरे जैसे
कुछ आपके जैसे , कुछ उनसे ...
हाँ तो कहते हैं कि
सतह से देखोगे तो समझोगे नहीं ... "

अजीब बात है
सतह पर ही तो हम पैदा हुए हैं
खेलकर बड़े हुए हैं !

अपने को श्रेष्ठ बना
हमें ' सतही ' कहकर
जाने किसने इसके मायने बदल दिए !

मैं यानि मेरे जैसे लोग
सतह पर ही आए और सतह पर ही हैं
तो ख्याल ये बना - कि
सतह पर होना और वहाँ से देखना ही उपयुक्त है !

आकाश की उंचाई
सूरज का असीम तेज
चाँदनी का उतरना
ओस का टपकना ....
सबकुछ सतह से ही दिखता है .

आप असाधारण हैं
तो आप क्या चाहते हैं ?
आपको असाधारण मानने के लिए
हम सतह से ऊपर हो जाएँ
पाँव को हवा में टिका दें
गिर ही जायेंगे न !

आप ही सोचिये
आकाश , चाँद तक पहुंचकर
उनको जानने में हमने क्या किया
चाँद के सौन्दर्य से अलग
उसे पत्थर साबित कर दिया
कहानियों से मामा खो गए
बच्चे सतह की बात समझने से इन्कार करने लगे !
अब ... सब सर पे हाथ धरे बैठे हैं
और आजिजी से कह रहे हैं
'सतह पर दिमाग रखो '
................................
काश ! सतह से ऊपर उठने की बात ही न हुई होती !

02 फ़रवरी, 2012

अपराध समझिये



" मैंने मुज़रिम को भी मुज़रिम न कहा दुनिया में ..."
ताउम्र इसी बात पर अड़े रहे
खुश रहे ...
' कोई अफ़सोस नहीं ...' गुनगुनाते रहे
पर कौन मुज़रिम है
ये जानते हुए कहा नहीं !
तो फिर मुज़रिम
- अतिरिक्त हिम्मत लिए
जुर्म करते गए ...
तो क्या नहीं कहने का जुर्म इतना छोटा है
कि आप गाते जाएँ सीना ठोककर
' कोई अफ़सोस नहीं ....'
वहम से बाहर आएँ
ज़हर सिर्फ आपने नहीं पिया है
असर आसपास पुरजोर है
तो अपराध समझिये
मुज़रिम को मुज़रिम कहिये !!!

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...