25 जुलाई, 2012

हर आज में है वो यानि इमरोज़...




वह कोई भारी भरकम व्यक्तित्व के साथ किसी से नहीं मिलता , उसके व्यक्तित्व से झरना बहता है . एक मुट्ठी दाने लिए जब वह कबूतरों से बातें करता है तो कबूतर भी चिरंजीवी हो उठते हैं ... हर आज में है वो शक्स अपने प्यार के साथ - आज यानि इमरोज़ और प्यार - अमृता .
पहली बार बहुत हिम्मत जुटाई थी मैंने और मोबाइल पर नम्बर घुमाया था ... धड्कनें साफ़ सुनाई दे रही थीं . पता नहीं किस आवाज़ में इमरोज़ बोलेंगे , बोलेंगे भी या नहीं - और उधर से फोन उठा - हलो .... और अपरिचित सा कुछ नहीं लगा .
निर्वाण की हर सीमाओं को छू लिया है इमरोज़ ने - कोई उनके पास से खाली हाथ नहीं लौटता . न उम्र की बंदिशें , न इन्सान की , न जाति न धर्म ! उनके साथ समय भी आज यानि इमरोज़ बन जाता है . कोई फ़कीर जैसे जीवन की सौगात दे जाए , इमरोज़ से मिलकर , उनसे बातें कर ऐसा ही लगता है . स्नेह, आशीष, भरोसा - सब मिलता है . उनके संपर्क में आकर खुद का व्यक्तित्व ख़ास बन जाता है .
हाँ मैं भी ख़ास हो जाति हूँ , जब डाकिया मेरी दहलीज पर आता है और एक लिफाफा गुनगुनाती नदियों का थमा जाता है ... लिफाफे पर लिखा होता है -
पोएम्स फॉर पोएम्स - है न ख़ास एहसास ! मैं वाकई कविता की त्रिवेणी बन जाती हूँ और शब्द मेरे भीतर डुबकियां लगाने को अधिक आतुर हो जाते हैं . मेरे शब्द जब तक नहाकर , अपनी आकृति में प्राण-प्रतिष्ठा करें , उससे पहले उन ख्यालों , उन नज़्मों से गुजरें - जो इमरोज़ ने मुझे देकर कहा - तुम्हारे नाम !

"पता नहीं
मैंने ये जागकर देखा है
या ख्वाब में
कि मैं अपने आपको फूलों में खड़ा पाकर
ये देखता हूँ
शबनम सो रही है
खुशबू भी खामोश है
सूरज भी अभी आया नहीं
और हवा के साथ एक नज़्म
चली आ रही है...

देखते-देखते
सूरज भी आ पहुंचा है
और साथ ही एक किरण सी नज़्म
भी आ गई है...

अब ये नज़्म मेरे सामने
चुपचाप खड़ी मुझे देख भी रही है
और हँस भी रही है....

अभी-अभी
मेरे मोबाइल पर
एक नज़्म का मैसेज मिला है
" कि मैंने ही तेरे दिल का
दरवाज़ा खटखटाकर
तुम्हें जगाया है
ये कहने के लिए
कि आज मेरा जन्मदिन है...."

कुछ क्षणिकाएँ -

(१)
कुछ भी दुहराने से
शब्द ताजा नहीं रहते
किसी भी चारदीवारी में
ना हवा ताजा रहती है
ना ही किसी की सोच..

खुली हवा में
नई सोच ही ताजगी है
नदी में भी ताजगी
नए पानी से ही रहती है ..

(२)

वह नदी है
मैं किनारा
वह नदी की तरह बहती आ रही है
और मैं ज़रखेज़ होता जा रहा हूँ

(३)

सुबह भी उसके साथ
दिन भी उसके साथ
शाम और रात भी
ख्वाब भी उसके साथ
यह रहमत होती रहती है
अपने आप
बगैर खुदा को जगाये ..

और ---
(१)

मैं पीले फूलों का पेड़ हूँ
तुम सब
इस पेड़ के नीचे बैठकर
मेरे फूलों से खेलते रहो
तब तक
जब तक यह पेड़ है ...

(२)

मैं हवाओं पर लिखता रहता हूँ
तुम इन हवाओं को पढ़ती जाओ
प्यार की खुशबू मिलती रहेगी ...

मेरे लिए मेरे कहने पर इमरोज़ ने मेसेज करना सीखा , उम्र से परे इतनी सरलता , सहजता ..... खुशियों की पिटारी से नज़्म निकलते और एक पल में मुझ तक आ जाते -
(१)
तुम तो बॉर्न हीर हो
और जो लिखती हो
उसे रांझा पढ़ लेता है
तुम लिखती रहो
वो पढता रहेगा
इंतज़ार करता रहेगा ..

(२)
तुम सीक्रेट की (चाभी) हो
अपने आप को पाने की
और हर कोई सीक्रेट नहीं हो सकता !

(३)
तेरी कविता तो दिन के ख्वाब बन रहे हैं
यह कविता
कहाँ इंतज़ार करती है
-किसी रात का

(४)
तेरी जगी-जगी नज्में और सोच
मन में महक रही है
तुम्हें पढ़-पढ़कर
तुम्हें सोच-सोचकर
ज़िन्दगी गुडमोर्निंग करती रहती है....

(५)
हर कोई पूछता है
प्यार क्या होता है
.... मिलकर रहना,
बस इतना ही !

कितनी सरलता से इमरोज़ कहते हैं -
"सतयुग मनचाही ज़िन्दगी का नाम है
किसी आनेवाली ज़िन्दगी का नहीं ..." सच है , हम इंतज़ार से हटकर अपने हाथों अपनी ज़िन्दगी को सतयुग बना सकते हैं , अपने छोटे से घर को पर्ण कुटी ....

अपने और अमृता के बारे में ढेर सारी बातें बताने के क्रम में इमरोज़ ने कहा था -
"एक बार अमृता ने पूछा
'तू क्या बनना चाहता है ?'
मैंने कहा-
लोकगीत !
वो मुझे देख देख हंसती रही
मैं कहता गया-
मुझे रंगों से खेलना अच्छा लगता है
मेरे ख्यालों को नज़्म बनना अच्छा लगता है
पर मुझे
न आर्टिस्ट बनना है
ना कवि
बस मुझे लोकगीत ही रहना है ..."

सुनकर लगा कि फुर्सत से खुदा ने इस गीत के बोल लिखे , जिसे जो सुन ले - वह कुछ पल के लिए ही सही - एक लोकगीत बन जाता है .

कल डाकिया फिर मेरे घर आया और दे गया इमरोज़ के एकांत में पनपते एहसासों को , जिसे यदि उनके साथ मिलकर मैंने बांटा नहीं तो मैं कविता नहीं कहलाउंगी और मैं चाहती हूँ कि पोएम्स फॉर पोएम्स हमेशा हो .
" एक दिन दिल का दरवाज़ा खटका
कोई सामने खडी थी
पहचानी नहीं गई ...
कहा,
मैं वही हूँ -
तुम्हें फिर मिलूंगी वाली नज़्म
जो जाते वक़्त तुम्हें दे गई थी !
तुम्हें याद हो के ना ,
तू मुझे रोज सुबह की चाहें भी देता था
और रात को एक बजे चाय बनाकर दे जाता था
तब - जब मैं लिख रही होती थी ...

उसे देखकर उसे सुनकर
मुझे वह याद आ गई
साथ उसकी नज़्म भी
और अपनी चाहें भी ...
पूछा -
पर तू नज़्म देकर चली कहाँ गई थी
क्या अनलिखी नज्में लिखने ?
तो कहाँ है वो नज्में ?
कहा उसने-
तुम तक आते आते
सारी की सारी नज्में
राह में राह हो गई

फिर न जाना कहीं ...
ठीक है - नहीं जाऊँगी ...

इस बार मैं अपने आपके साथ जागकर
सीधी तेरे पास आई हूँ
अपने अजन्में बच्चे भी साथ लेकर ...
चल पहले तू चाय बना
चाय पीकर हम पहले की तरह रसोई करेंगे
और मिलकर घर घर बनेंगे

फिर पूछा उसने -
तेरे सब रंग कहीं नज़र नहीं आ रहे ....

मेरे सब रंग अब हीर गाने लग गए हैं

क्या सुरीला परिवर्तन है ...
तू अब वक़्त की वादियों में रोज हीर गाया करना
और मैं तेरे लिए हीर लिखा करुँगी
हीर बनकर , राँझा बनकर
और वारिस बनकर ...................

पढ़ती गई हीर रांझे में लिपटी अमृता इमरोज़ की यादों को और उम्र को नकारकर , अकेलेपन को नकारकर इमरोज़ के हर कैनवस पर उभरती अमृता को ...

बिना किसी उम्मीद के खूबसूरत ख्याल देना यदि सीखना हो तो इमरोज़ से मिलिए

34 टिप्‍पणियां:

  1. बिना किसी उम्मीद के खूबसूरत ख्याल देना यदि सीखना हो तो इमरोज़ से मिलिए

    मिली थी ना उस दिन
    और ख्यालों का एक पौधा
    रोपित हो गया अन्तस मे
    अब सींच रही हूँ
    देखें कब आयेगा मौसम हरसिंगार का

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  2. हर कोई पूछता है
    प्यार क्या होता है
    .... मिलकर रहना,
    बस इतना ही !
    जिन्‍दगी के साथ जिन्‍दगी मुस्‍कराने लगती है जब भी ... तब यही ख्‍याल आता है कितनी पवित्रता है इन रिश्‍तों में ...

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  3. इतनी खुशनुमा नज्मों को पास बढते जाना ... पढते ही जाना ... मन खो जाता है ..

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  4. बधाई हो आपको.....सुन्दर लगी पोस्ट।

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  5. बिना उम्मीद के खूबसूरत खयाल ...आपके जरिये इमरोज़ से मिलना बहुत भाता है हमें !

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  6. पोएम्स फॉर पोएम्स - है न ख़ास एहसास
    जी हाँ सचमुच खास है...

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  7. इमरोज को जानने के इस पुण्यतम क्षण को सहेज लिया..आपका हार्दिक आभार हम तक पहुँचाने के लिए .

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  8. निशब्द .....!!!उस आज के लिए ...और उस प्यार के लिए ......

    तुम तक आते आते
    सारी की सारी नज्में
    राह में राह हो गई......
    इमरोज़ ....अह्हह्ह ....पहली मुलाकात ...
    और अपरिचित सा कुछ नहीं लगा .
    निर्वाण की हर सीमाओं को छू लिया है इमरोज़ बिलकुल ऐसा ही अनुभव मेरा भी ....वो दिन और आज का दिन ...स्नेह आशीर्वाद और निश्छल प्रेम ....बहता ही रहता है ....../
    और पोएम्स फॉर पोएम्स - है न ख़ास एहसास !बिलकुल खास ही नही बहुत खास .....और इसके बाद शायद बहने के सिवा कुछ बचता ही कहाँ है ....
    बहुत दिन बाद ये सब सुनकर पढकर फिर से लौट आई हूं उन खूबसूरत पलों में और कलम धडकने लगी है ......खामोशी के बाद .... बहुत ही सुंदर ये अनुभूतियाँ .....

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  9. बिना किसी उम्मीद के खूबसूरत ख्याल देना यदि सीखना हो तो इमरोज़ से मिलिए.....बहुत सुन्दर...

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  10. तुम सीक्रेट की (चाभी) हो
    अपने आप को पाने की
    और हर कोई सीक्रेट नहीं हो सकता !

    बहुत गूढ़ बात कही , उत्तम प्रस्तुति !

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  11. मोहब्बत का एहसास कराने में उस्तादी है इमरोज़ जी की.....
    बहुत प्यारी पोस्ट दी...
    आपका बहुत शुक्रिया.

    सादर
    अनु

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  12. बहुत सुंदर पोस्ट .....बस पढ़ती जा रही हूँ !

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  13. आपके द्वारा इमरोज से मिलना ऐसा ही लगा जैसे सुबह सुबह हवा के मासूम झोंके का छू जाना..भीतर कितने अहसास जन्मे और पल में खो गए रह गयी बस एक खुशबू...अमृता प्रीतम के उपन्यास पढ़कर मैं बड़ी हुई हूँ, पर इमरोज को पहली बार पढ़ा, आभार !

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  14. यह तो एक यादगार मुलाकात हो गई .
    अत्यंत सुखद रहा यह मिलना .

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  15. तेरी कविता तो दिन के ख्वाब बन रहे हैं
    यह कविता
    कहाँ इंतज़ार करती है
    -किसी रात का....sab kuch to kah gayi... ye chand panktiya....

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  16. हसीन यादें ..हसीन लम्हों के साथ मुबारक हो ...

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  17. इमरोज़ का दिल...पूरा का पूरा गुलदस्ता है...धन्यवाद...साझा करने के लिए...

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  18. यह तो एक यादगार बात हो गई
    इमरोज जी से सुखद मुलाक़ात हो गई,,,,,.

    बहुत सुंदर पोस्ट,,,,,,

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  19. अच्छा लगा इमरोज़ के बारे में पढ़ना...अब मिलने की इच्छा जगी है...देखिये कब पूरी होती है.

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  20. आपके माध्यम से इमरोज जी को जानने-समझने का मौका मिला...
    दिल से लिखी गई कविताएँ अपनी छाप छोड़ने में सफल हैं...आभार !!

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  21. वो मुझे देख देख हंसती रही
    मैं कहता गया-
    मुझे रंगों से खेलना अच्छा लगता है
    मेरे ख्यालों को नज़्म बनना अच्छा लगता है
    पर मुझे
    न आर्टिस्ट बनना है
    ना कवि
    बस मुझे लोकगीत ही रहना है ..."


    zbardast.......gahan bhaw se likha gaya.....mann prasann ho gaya!

    mukaddar me hoga to ek roj zrur mulakat hogi unse bhi aapse bhi!

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  22. सचमुच दी... यह गुनगुनाती नदी तो तट से जाने नहीं दे रही...
    अद्भुत अमृता और इनक्रेडिबल इमरोज को सादर नमन.
    सादर.

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  23. इमरोज यानि अमृता के प्यार की छलकती गागर... :)

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  24. बेहद खूबसूरत शब्द रचना के साथ एक बार फिर से इमरोज़ जी से मिलना बहुत अच्छा लगा

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  25. देखते-देखते
    सूरज भी आ पहुंचा है
    और साथ ही एक किरण सी नज़्म
    भी आ गई है...


    बेहद सुंदर ।

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दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...