06 मई, 2011

फिर भी !!!....



समय कहता रहा
मैं सुनती रही
समझा तब -
जब सुनामी से बचे अपने विचारों से
मेरी पहचान हुई !
वक़्त को रोकने की कोशिशों में
कई पल कई दिन
कई महीने कई साल गुजर गए
तब जाना - फिसलते वक़्त
बस याद बन रुकते हैं हर बार !
खाली मन से
अनायास उमड़ते आंसुओं को रोक
यादों को चूम
मैंने हर कमरे में
पूजा की जगह पर इनको रखा
और उनके साथ खुद को सहज किया !
पर यह सोच हमेशा रखती हूँ ..
अगली बार... हाँ अगली बार
वक़्त को कसके मुट्ठी में बांधूंगी !
जानते हुए भी -
कि न रात रूकती है न सुबह
न दिन न शाम
फिर भी !!!....

38 टिप्‍पणियां:

  1. रश्मि प्रभाजी ...........वक्त ना रोके रुका है कभी.......इसका सुन्दर विवेचन...हाँ मेरा अपना मानना है कि कई बार ठहर सा गया है ऐसा लगता है .....बस लगता है .....

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  2. . हाँ अगली बार
    वक़्त को कसके मुट्ठी में बांधूंगी !
    जानते हुए भी -
    कि न रात रूकती है न सुबह
    न दिन न शाम
    फिर भी !!!....

    काश वक़्त को मुट्ठी में बाँध सकते..बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति..

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  3. और वक्त फिसल जाता है .....रेत की तरह रश्मि जी......
    लेकिन आपकी पूजा में रखे भाव ..प्रसाद बन गए हैं ...
    इतनी सुंदर कविता के रूप में ...!!

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  4. जानते हुए भी -
    कि न रात रूकती है न सुबह
    न दिन न शाम
    फिर भी !!!

    बिल्‍कुल सच ... ये हौसला यूं ही कायम रहे ।

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  5. vicharon ka pravah kaviuta ke sath ojashvi ban gaya hai .sundar prastuti
    sadhuvad .

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  6. मानव की मजबूरी और मानव मन के बीच के द्वंध को क्या खूब शब्द दिए है आपने....और ये मन की आस... ये तो कही छूटती ही नहीं!

    वाह!

    कुँवर जी,

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  7. jivan ka sahi ahsas vakt hi krvata hai...bahut khoob...mausi...aabhar.

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  8. वक्त को रोक पाने की इच्छा शायद हर किसी के मन में होती है ... बहुत सुन्दर रचना !

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  9. man ki baat ko hi jaise aapne shabd de diya ho.....bahut khushi hui.

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  10. समय कहता रहा
    मैं सुनती रही
    समझा तब -
    जब सुनामी से बचे अपने विचारों से
    मेरी पहचान हुई !

    बहुत ही सुन्दर कविता है..

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  11. वाह्…………वक्त को मुट्ठी मे बांधने की कवायद हर कोई करना चाहता है मगर ये ऐसी रेत है जो हाथ से फ़िसलती ही रहती है…………बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  12. इतनी कसा कर मुठी बाधना की समय निकल ही न पाए --आपका जबाब नही ---

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  13. यादों को चूम
    मैंने हर कमरे में
    पूजा की जगह पर इनको रखा ...

    रश्मि प्रभाजी बहुत अच्छी भावनाएं हैं इन पंक्तियों में, यह सच है की वक्त कभी किसी के रोके नहीं रुकता है ....... हाँ इसे यादों में पल-पल जिया जा सकता है...
    इसलिए तो इन्हें सहेजना होता है... दिल को छूती रचना...

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  14. पूजा की जगह पर इनको रखा
    और उनके साथ खुद को सहज किया !
    पर यह सोच हमेशा रखती हूँ ..
    अगली बार... हाँ अगली बार
    वक़्त को कसके मुट्ठी में बांधूंगी !
    जानते हुए भी -
    कि न रात रूकती है न सुबह
    न दिन न शाम
    फिर भी !!!....rashmi ji namaste...
    apki rachna bahut pasand aai...badhai sikar kare

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  15. बहुत कुछ चाहते हैं हम जानते हुए भी कि यह संभव नहीं.इसी का नाम जिंदगी है.
    सुन्दर रचना.

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  16. वक़्त कहाँ रुकता है ...मगर यादें तो हमेशा साथ होती हैं ..
    जब यादों को पूजने योग्य संचित किया तो फिर वक़्त को रोकने की जरुरत भी कहाँ !

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  17. कौन बाँध सका है समय को, उसको बस बहना आता है।

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  18. bahut khoobsoorat abhivykti samay ke fisalte jane kee abhivykti .

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  19. वक्त कब और कहाँ रुका है ....सुन्दर प्रस्तुति

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  20. रश्मि जी,
    बहुत सुंदर रचना है !
    कई पल
    बार - बार
    होकर उदार
    आये द्वार हमने
    समझा नहीं !

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  21. समय को बाँध लेने की इच्छा .....मगर संभव कहाँ ?

    बीते हुए वक्त के कुछ खुशनुमा पलों को जरूर हम अपनी जिंदगी के साथ समेटे रख सकते हैं |

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  22. वक्त को रोकने का प्रयास अच्छा है ।
    लेकिन चलते जाना भी तो जिंदगी है ।

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  23. samay ko koyi rook nahi paya hai samay ke sandarbh me achhi prastiti

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  24. फिर भी...बहुत सुंदर रचना

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  25. मैंने हर कमरे में
    पूजा की जगह पर इनको रखा
    और उनके साथ खुद को सहज किया !
    .....बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति

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  26. vakt ko kab ham rok sake hain bas uske har par ko sarthak bana kar jee lena hi jeevan ko sarthak bana sakata hai.

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  27. बेहद प्रभावशाली शब्दांकन, जीवन को करीब से देखने की प्रश्तुती बधाई

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  28. kaas! waqt ko mutthi me bandh pate ham... bhut hi acchi rachna waqt ke liye...

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  29. वक़्त को कसके मुट्ठी में बांधूंगी !
    जानते हुए भी -
    कि न रात रूकती है न सुबह
    न दिन न शाम
    फिर भी !!!........................बहुत खूब दीदी ...मन के भावो को बखूबी लिखा है आपने

    फिर भी यादे है कि
    सफ़ेद हँस सी चली आती है
    खोजती है बसेरा ..वो मन की
    गहराई में ....जहाँ सिर्फ खुद के
    आंसुओ के साथ ...प्यार बसता है .....(अंजु....(अनु )

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  30. वक़्त को कसके मुट्ठी में बांधूंगी !
    जानते हुए भी -
    कि न रात रूकती है न सुबह
    न दिन न शाम
    फिर भी !!!........................बहुत खूब दीदी

    फिर भी यादे है कि
    सफ़ेद हँस सी चली आती है
    खोजती है बसेरा ..वो मन की
    तेज़ी -ए-रफ़्तार में ......(अंजु ....(अनु)

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  31. जानते हुए भी -
    कि न रात रूकती है न सुबह
    न दिन न शाम
    फिर भी !!!

    वक्त को कौन बांध पाया है...... बेहतरीन रचना

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  32. समय की यही बात तो पसंद है...किसी के रोके रुकता नहीं...अमरत्व की फीलिंग से भी घबराहट होती है...समय को यूँ ही सरकने दीजिये...वैसे मुट्ठी में कैद करने का विचार अच्छा है...

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  33. अगली बार... हाँ अगली बार
    वक़्त को कसके मुट्ठी में बांधूंगी !
    जानते हुए भी -
    कि न रात रूकती है न सुबह
    न दिन न शाम

    यथार्थ यही है कि समय रुकता नहीं,पर इंसानी फितरत है कि वह उसे मुट्टी में बाँधने की कोशिश में लगा ही रहता है.

    मेरे ब्लॉग पर आईयेगा,नई पोस्ट पर आपका इंतजार है.

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  34. ha vakt hi dhokhaa deta hai aur vakt hi mahram bhi lagata hai..hum to bas ek kathputli hai vakt ke hatho ki...

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  35. वक़्त को कसके मुट्ठी में बांधूंगी !
    जानते हुए भी -
    कि न रात रूकती है न सुबह
    न दिन न शाम
    फिर भी !!!....bahut khoob.vakt ko khoob pahchana hai aapne aur housla buland hai use thamne ka.

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  36. वक़्त को कसके मुट्ठी में बांधूंगी !
    जानते हुए भी -
    कि न रात रूकती है न सुबह
    न दिन न शाम
    फिर भी !!!....

    kya wakt ko baandh lena aasan hai?????

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  37. "वक़्त को कसके मुट्ठी में बांधूंगी !
    जानते हुए भी -
    कि न रात रूकती है न सुबह."
    एक ख़ूबसूरत सी चाहत.

    जवाब देंहटाएं

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