30 सितंबर, 2012

ज्ञान कहो या घर




ज्ञान- बुद्ध और घर ! 
ज्ञान वही एक सत्य-
रोटी,कपड़ा और मकान . 
जन्म,मृत्यु,बुढापा,रोग...
कुछ तो नहीं बदलता ज्ञान से !
हाथ की टूटी लकीरों के बावजूद
कोई जी लेता है
कोई असामयिक मौत को पाता है 
पर क्या यह सच है?
क्या सच में असामयिक मृत्यु होती है ?
जन्म,मृत्यु तो तय है
रास्तों का चयन भी
घुमावदार रास्ते भी ....
पेट की भूख,शरीर की भूख
और आत्मा की भूख 
छत भले ही आकाश हो 
क्षुधा शांत करने के स्रोत मिल ही जाते हैं
.... ना मिले तो जबरन !!!
पर......
आत्मा की भूख जबरन नहीं मिटती
और वही तलाश 
किसी को बुद्ध 
किसी को आइन्स्टाइन 
किसी को अंगुलीमाल
किसी को वाल्मीकि .... बनाती है 
आत्मा के गह्वर से 
विकसित होती है सहनशीलता
और सहनशीलता पहाड़ों को चीरकर 
अपनी निश्चित दिशा निर्मित करती है ...
.....इसे ज्ञान कहो
या घर 
एक रोटी के साथ आत्मा भटकती है 
मरती है
फिर जन्म लेती है 
तलाश पूरी हो तो अमर हो जाती है 

28 सितंबर, 2012

प्यार सिर्फ एहसास ही नहीं - अभिव्यक्ति भी है



जो भी नाम दो...
प्यार  
इश्क
मुहब्बत 
ख़ुदा कहो या ईश्वर
शिव कहो या आदिशक्ति ........
एहसास तो है ही यह
रूह से इसे महसूस भी करते हैं
पर जिस तरह ईश्वर 
मंत्र की तरह 
दिल,ज़ुबान,मस्तिष्क से निरंतर प्रवाहित होता है...
प्यार को जितनी बार कहो-
कम लगता है 
जितनी बार सुनो
नशा होता है ...
प्यार एक आग है
जिसमें शब्दों का घृत आँखों से डालो 
या स्वाहा की तरह -प्यार है' कहो
यह बढ़ता है .....
शरीर आत्मा -
सबको अपनी आगोश में 
बिना हाथ बढ़ाये भर लेता है !

तर्क के छींटे 
प्यार में नहीं होते
हो ही नहीं सकते ...
सिर्फ एहसास नहीं है प्यार
पूरी सृष्टि समाहित है इसमें
जिसे देखा भी जाता है
छुआ भी जाता है
मनुहार,तकरार सब होता है प्यार ...

प्यार जताने से विश्वास की लौ बढ़ती है
खामोश विश्वास 
खुद आशंकित होता है 
ख़ामोशी लुप्त हो जाती है 
और आशंका ही एक दिन प्रस्फुटित होती है !
सिंचन न हो तो प्यार 
शुष्कता में शुन्यता से भर जाता है 
सच तो बस इतना है 
कि प्यार  सिर्फ एहसास ही नहीं
अभिव्यक्ति भी है ....

26 सितंबर, 2012

सृष्टि की दृष्टिजन्य निरंतरता





जीवन के वास्तविक कैनवस पर 
अपूर्णता की आंखमिचौली 
एक ईश्वरीय सत्य है
अपूर्णता में ही पूर्णता की चाह है 
तलाश है - 
अपूर्णता के गर्भ से 
परिस्थितिजन्य पूर्णता का जन्म 
सृष्टि की दृष्टिजन्य निरंतरता  है !
पूर्णता का विराम लग जाए
फिर तो सबकुछ खत्म है
न खोज,न आविष्कार
न आकार,न एकाकार ...
संशय का प्रस्फुटन 
मन को,व्यक्तित्व को
यायावर बनाता है
कोलंबस यायावर न होता 
तो अमेरिका न मिलता
वास्कोडिगामा को भारत ढूँढने का
गौरव नहीं मिलता !
मृत्यु से आत्मा की तलाश
आत्मा की मुक्ति
और भ्रमित मिलन का गूढ़ रहस्य जुड़ा है
खुदा यूँ ही नहीं आस पास खड़ा है !
कल था स्वप्न 
या आज स्वप्न
क्या होगा उलझकर प्रश्नों में 
कल गया गुजर 
गुजर रहा आज है
आनेवाला कल भी अपने संदेह में है
मिट गया या जी गया
या हो गया है मुक्त 
कौन कब यह कह सका है !
एक शोर है 
एक मौन है
माया की कठपुतलियों का 
कुछ हास्य है
रुदन भी है
छद्म है वर्तमान का 
जो लिख रहा अतीत है 
भविष्य की तैयारियों पर 
है लगा प्रश्नचिन्ह है !
मत करो तुम मुक्त खुद को
ना ही उलझो जाल में 
दूर तक  बंधन नहीं
ना ही कोई जाल है...
खेल है बस होने का 
जो होकर भी कहीं नहीं
रंगमंच भी तुमने बनाया
रंगमंच पर कोई नहीं !
पूर्ण तुम अपूर्ण तुम
पहचान की मरीचिका हो तुम 
सत्य हो असत्य भी 
धूल का इक कण हो तुम 
हो धुंआ बिखरे हो तुम 
मैं कहो या हम कहो
लक्ष्य है यह खेल का 
खेल है ये ज्ञान का 
पा सको तो पा ही लो
सूक्ष्मता को जी भी लो
पार तुम 
अवतार तुम
गीता का हर सार तुम !!!....................

24 सितंबर, 2012

. शायद कुछ नहीं...





तुम एक ताबूत 
हो 
जिस पर वेदनाओं की कीलें लगी हैं !
ताबूत के अन्दर 
असह्य यादों की मुड़ी तुड़ी सिलवटें 
हर सिलवटों में एक राज ...
तुम्हें आदत नहीं अस्त-व्यस्त रहने की
तो हर दिन वेदनाओं की कीलों को
वेदना सहकर निकालती हो
बढ़ाती हो हाथ-
सिलवटों को सीधा करने के लिए 
पर ....
नहीं कर पाती तुम !
बात साहस की नहीं 
दर्द की है
राज को यूँ सरेआम करना होता
तो इतना लम्बा समय नहीं गुजरता
रात के सन्नाटे में  ख़ालिस रूह बनी
अपने कमरे के मुहानों पर तुम नहीं भटकती !
गिरेबान पकड़ना आसान होता है
पर जिस गिरेबान की असलियत तुम्हें चुभती है
उसे साफ़ सुथरा रहने देना 
सिर्फ इंसानियत नहीं
कई रिश्तों का मान है !
मैंने महसूस किया है 
कि उन रिश्तों ने तुम्हारा मान कभी नहीं रखा 
क्योंकि उन्होंने मान लेना सीखा
देने में उनकी तार्किक कीलें ही 
शरीर को ताबूत बनाती गईं 
धंसती गईं ...
काश...! समय की आपाधापी में 
तुम शव बन जाती 
पर तुम ...
हर रात उम्मीदों पर टूटी उम्मीदों का कफ़न चढ़ा 
उनका अग्निसंस्कार कर
आँखों के गंगा जल से खुद को शुद्ध करती हो 
और करती हो 
---शरीर से रूह  
रूह से शरीर तक का सफ़र 
......
तुम मुक्त होकर भी मुक्त नहीं
हो भी नहीं सकती ...
तुम खुद में एक ताबूत हो 
अन्दर तुम्हारे दर्द
बाहर ........ शायद कुछ नहीं
कुछ भी नहीं !!!

21 सितंबर, 2012

बिना कोई कट्टम कुट्टी के ....


भावनाओं का चौसर 
शब्द लिखे सपनों के पासे 
बिना कोई कट्टम कुट्टी के
आओ खेलें...
शब्द एक हों
या छः 
आगे बढ़ना ही है 
बिना कटे निर्भय बढ़ना 
मंजिल तक का निश्चित भरोसा 
सोचो न ...कोई झगड़ा ही नहीं होगा 
कित्ता मज़ा आएगा !
रंगों का भी हम द्वन्द नहीं रखेंगे 
लाल पीले हरे नीले 
सब रंगों से खेलेंगे 
माहौल में सिर्फ खिलखिलाहट होगी 
चौसर तोड़ने फाड़ने की 
कोई नौबत नहीं आएगी !
........................
पहले तो हम सपरिवार अपने ही राज्य में थे
अब - अलग अलग राज्यों की कौन कहे
विदेशों में भी हम रहने लगे घर बनाकर
इतने दूर हो गए 
कि मिलने का समय समाप्त हो गया 
कभी सोचा है 
घर के कोने में अधफटा कागज़ी चौसर 
हर आहट पर चौंकता है 
हमारी बाट जोहता है 
इस विश्वास के साथ 
कि सांझ होते हम सब घर लौटेंगे 
यह गाते हुए -
'लाख लुभाए महल पराये 
अपना घर फिर अपना घर है ...'

तब हमें भी तो सोचना होगा न 
.........
न चिढ़ायेंगे,न रुलायेंगे,न झगड़ेंगे 
सिर्फ खेलेंगे -
अपनी अपनी भावनाओं को साझा करेंगे 
कभी मन हुआ तो अपना अंक 
दूसरे को दे देंगे 
बिना किसी नियम के 
हम खेलेंगे
और एक ही पलंग पर आड़े तिरछे सो जायेंगे ...
सोचो,
वह सुबह अपनी होगी.......
और वह सुबह ज़रूर आएगी
क्योंकि हमें लाना है 
हर तू तू,मैं मैं, अहम् को ताक पे रखकर 

तुम भी सोचो,हम भी सोचें 
बिना कोई कट्टम कुट्टी के ....

14 सितंबर, 2012

कवि मन ने यायावर बनकर जाना


मेरे मन ने नहीं बनाया कोई दुश्मन
बस कल्पनाओं के क्षितिज को
भ्रम से हकीकत बनाता गया ...

क्षितिज के मुहाने पर मिली एक परी
दिए मुझे अपने पंख
और कहा - जाओ आकाश छू लो...
मैं उड़ी-
लहराती,बलखाती,उंचाई से थोड़ी घबराती
कुछ दूर से ही कहा आकाश को -
तुम्हारी विशालता को मैं क्या छुऊं
तुम्हारे निकट तक आना ही मेरा सौभाग्य है
आकाश ने सितारों जैसे हाथ बढ़ाये
रखा माथे पर आशीष भरा ताज
और कहा-जो तुमसे झुककर मिले,वही है ऊँचा
मूलमंत्र आकाश का ले
लौटी क्षितिज के मुहाने
लौटा दिए परी को उसके पंख
और नतमस्तक हुई उसके आगे
क्योंकि आकाश के समीप तक जाना
मेरे लिए कहाँ था संभव !

विनम्रता का मंत्र लिए मिलती गई सबसे
कुछ अपनी कही
कुछ उसकी सुनी
सिक्के के कई पहलू संजोये ...

इस यात्रा में मिला एक अजनबी
भूख से व्याकुल,हाथ फैलाये
चेहरे पर क्षोभ
आँखों में विवशता !
मैं नहीं थी अलादीन का चिराग
कि बदल देती उसका संसार
मैंने अपनी रोटी को किया आधा
दिया उसके हाथ में
उसकी तीव्रता उस रोटी को खाने की
और थरथराता शरीर !
मैंने जाना- मांगने की मजबूरी क्या होती है
आआआआआअह ...
विवशता में फैले हाथ भिखारी सुनने को विवश होते हैं !

मैं अलादीन से मिली -
कब कहाँ ... यह तो सबको पता है
क्योंकि कभी न कभी
किसी न किसी तरह
हर कोई उससे मिलता है
बस तजुर्बा अपना अपना होता है
तो मेरा भी अपना तजुर्बा हुआ
चिराग का जिन्न रोता हुआ मिला
रोते हुए कह रहा था जिन्न अलादीन से-
मेरे आका,
लोगों को खुश करने में
आपने सोचा ही नहीं
कि मैं जो भी लाता हूँ
इसी दुनिया से लाता हूँ
इसकी टोपी उसके सर करता हूँ
अब सब मेरे पीछे पड़े हैं
मेरे सौ टुकड़े करने की चाह में हैं ....
बेचारा जिन्न....
उसके सारे जादू उसकी आँखों से बह रहे थे
मैंने सोचा -
और मैं खामखाह चिराग को सपना रही थी !

खैर पास में था कल्पनाओं का पुष्पक विमान ...
सोचा उस लड़की से मिलूं
जिसकी आँखों में एक छोटा सा सपना था
घर,चूड़ियों की खनक ,नज़ाकत
प्यार को लेकर खुद पर ऐतबार ...
ढूंढते ढूंढते मिली उसकी कब्र
मिट्टी में लुप्त चेहरे को सहलाया
उसकी सोच को गले लगाया
चलने को हुई
तो वहाँ उगे तिनके ने ऊँगली थामी
कहा-
घर पैसे से बनता है
प्यार की पूजा के आगे
पैसा सर्वोपरि होता है
उससे सारी खरीदफरोख्त होती है
प्यार अपनी ताकत लिए
खुद में दफन होता जाता है
पैसे से खुशियाँ मिले न मिले
वहम का
खुद की बद्शाहियत का
विकृत सुकून ज़रूर मिलता है
और उस सुकून में प्यार-
तिल तिलकर एक अनजानी मौत मरता है
.....
अपने यायावर मन को थामे मैं दौड़ी
जानी पहचानी सड़क की तलाश में
झाड़ियों में उलझी
खरोंच आई
खून निकला
तो जाना -
कल्पना से यथार्थ की धरती पर एक कवि
क्यूँ नहीं आना चाहता
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

मूर्तिकार
रचनाकार
कलाकार
सृष्टिकर्ता
भाग्यविधाता,...कहीं न कहीं है बाध्य
रह जाती है सूक्ष्म कमी
और वहीँ से आरम्भ होता है शब्दों के यज्ञ में भी एक मौन
और कल्पना में वार्तालाप ...

12 सितंबर, 2012

शब्द



भावनाओं की सरगोशियाँ आज भी हैं
कविताओं की सरगोशियाँ आज भी हैं
आसमां से विस्तृत पन्नों के धरातल
- मशीनी भी
सजीव फड़फडाते भी
कभी कोई चिड़ियाँ चोंच में उठा लाती है शब्द
तो कभी बादलों की पालकी पर उड़ते हैं शब्द
थके चेहरे को हवाएँ अपनी हथेलियों में भर लेती हैं
तो आँखों के आगे मुस्कुराने लगते हैं कई शब्द
बिखरे बालों को कान के पीछे कर
कानों में प्रेम रस घोलते हैं शब्द ....
प्रेम !
सिर्फ हीर रांझे
शीरी फ़रहाद .... जैसे ही नहीं होते
कृष्ण यशोदा
राहुल यशोधरा से भी होते हैं !
प्रेम जब शिशु बन माँ कहता है
माँ की नींद शिशु की नींद से जुड़ जाती है
तब पालने में झूलते हैं शब्द
दुआओं के बोल
काजल का टीका बन जाते हैं शब्द ...
बच्चे की तोतली ज़ुबान से लेकर
युवा उड़ान तक माँ के आँचल की गांठ में
चाभी के गुच्छे जैसे बंधते हैं शब्द !
बच्चों का बाहर जाना
माँ की आँखों में चिंता जैसे तैरते हैं शब्द
बच्चों की छुट्टियां
रसोई की खुशबू से आते हैं शब्द
.....
शब्द कभी नहीं विलीन होते
प्रेम हो , इंतज़ार हो, दुआ हो, मनुहार हो
वियोग हो , त्यौहार हो ....
शब्द साथ साथ चलते रहते हैं
कभी सिर्फ खिलखिलाते हैं शब्द
कभी बालों में घूमती माँ की उँगलियों से निकलते हैं शब्द
शब्द ............
जीवन के कई रंग होते हैं शब्द

07 सितंबर, 2012

कुरुक्षेत्र - कर्ण - कृष्ण और सार




कल रात
दिखा कुरुक्षेत्र का शमशान
कर्ण की रूह
अश्रुयुक्त आँखों से
धंसे पहिये को निहारती
जूझ रही थी
ह्रदय में उठते प्रश्नों के अविरल बवंडर में ...
- ऐसा क्यूँ . क्यूँ , क्यूँ ???

प्रवाहित होकर भी मैं बच गया
कौन्तेय होकर राधेय कहलाया
गुरु की नींद की सोच
दर्द सहता गया
शाप का भागी बना ...
हर सभा में अपमानित प्रश्नों के आगे
रहा निरुत्तर इस विश्वास में
कि माता कुमाता न भवति
....बुजुर्गों पर रहा विश्वास
पर कुछ न आया हाथ !!!

अंग देश का राज्य दे
मेरा राज्याभिषेक कर
दुर्योधन ने मान दिया
ऋणी बना मुझको अपने साथ किया !
यदि नहीं होता मैं ऋणी
तो क्या कुंती मातृत्व वेश में आतीं
साथ अपने - मुझसे चलने को कहतीं
!!!
केशव को था भान
मुझे हराना नहीं आसान
तो सारथी बन अर्जुन का रथ रखा मुझसे दूर
जब नहीं मिला निदान
तो कैसे लिया यह ठान
कि रथ का पहिया ना निकले
और निहत्थे कर्ण का दम निकले .... !!!

कुंती के मिले वरदान को
मैं तिल तिल जलकर सहता रहा
राधा की गोद में कुंती को ही सोचता रहा
कुंती से जुड़े रिश्ते
मेरे भी थे अपने
पर जो कभी नहीं हुए अपने ....
मैं सुन न सका पांडवों के मुख से ' भईया'
मैं दे न सका द्रौपदी को आशीष
स्व के भंवर में
मैं कण कण मिटता गया
ऋण चुकाने में सारे कर्तव्य खोता गया
पिता सूर्य ने तो सुरक्षा कवच से सुरक्षित किया भी था मुझे
पर .... उससे भी दूर हुआ !
........क्यूँ !..........

रूह का प्रलाप
वह भी कर्ण की रूह
फिर कृष्ण को तो आना ही था
संक्षिप्त जीवन सार देना ही था ...

कृष्ण उवाच -
अजेय कर्ण
तुमने अपने सारे कर्तव्य निभाए
पर रखा खुद को मान्य अधिकारों से वंचित
.... सूर्य ने तुम्हें डूबने से बचाया
राधा के रूप में माँ का दान मिला
कवच तुम्हारा अंगरक्षक बना
फिर भी तुमने अपमान की ज्वाला में
खुद को समाहित कर डाला !
कर्ण तुम रह ना सके राधेय बनकर
सहनशीलता की अग्नि में
स्व को किया भस्म स्वाहा कहकर ...
अधिकारों से विमुख
करते रहे खुद को दान
अति सर्वत्र वर्जयेत
इससे हो गए अनजान ...

मैंने तो रथ में बिठाकर
रिश्तों के एवज में
तुम्हें बचाने का ही किया था प्रयास
पर तुम ऋण आबद्ध थे कर्ण
तो कुंती के आँचल से अलग
होनी विरोध बन गई
और मैं ...... !!!

मैं विवश था कर्ण
क्योंकि तुमने हर प्राप्य की हदें पार कर
उन्हें गँवा दिया !
तुम दानवीर थे
तुम्हें छद्म रूपों का भान था
आगत का ज्ञान था
तब भी तुमने इन्द्र को कवच दिया
सूर्य ने तुम्हें निराकरण दिया अमोघास्त्र का
पर अपनी परिभाषा में तुमने सिर्फ दिया ...

प्रतिकूल परिस्थितियों में कवच
तुम्हारी विरासत थी कर्ण
दानवीरता सही थी
पर छल के आगे
जानते बुझते
खुद को शक्तिहीन करना गलत था
....
तुम्हारी हार .तुम्हारी मृत्यु
समय की माँग थी
अर्जुन नहीं जीतता
तो निःसंदेह कुंती अपना वचन नहीं निभाती
फिर तुम कहो क्या करते
उस पीड़ा को कैसे सहते !
सच है ,
तुम्हारी जीत अवश्यम्भावी थी
हस्तिनापुर पर तुम्हारा ही सही अधिकार भी था
पर अजेय कर्ण
हस्तिनापुर तुम्हारे हाथों सुरक्षित नहीं था
कब कौन किस रूप में तुम्हारे पास आता
और तुमसे हस्तिनापुर ले जाता
..... फिर तुम्हीं कहो इसका भविष्य क्या होता ?

05 सितंबर, 2012

परिस्थितियों का क्षोभ ना हो तो सीखना मुमकिन नहीं !



शब्दों की यात्रा में
सिर्फ एहसासों का आदान प्रदान नहीं होता
रास्तों के नुकीले पत्थर भी चुभते हैं
ठेस लगती है
पर बंधु - यह यात्रा
आत्मा परमात्मा के दोराहों को एक करती है ...
तो थकान हो
पानी ना मिले
कोई छाँव न हो ....
तब भी यात्रा करो
बिना चले मंजिल नहीं मिलती !!!
क्या हुआ यदि तुम्हारे सामर्थ्य के आगे
किसी ने जलते अंगारे बिछा दिए
तुम्हारे नाम की चिन्दियाँ उड़ा दीं
..........
समझो , मानो -
वह दुश्मन होकर भी दुश्मन नहीं
क्योंकि तुम्हारी पोटली को फाड़ने के उपक्रम में
उसने तुम्हारी पोटली से
कई विषैलों को बेनकाब कर
बाहर कर दिया
.....
स्वर्ण प्याले में परोसने से
पानी अमृत नहीं होता
भगवान् का नाम जपने से
कोई भक्त नहीं होता
मिट्टी की अहमियत बताने को
भक्त के खामोश आंसुओं को दिखलाने के लिए
ईश्वर यह दृश्य भी दिखाता है
एक नहीं कई बार दिखाता है !

सच , ईमान ,
परिस्थितियों की आँधियों के मध्य
हताश क्यूँ होना ?
न सच बदलता है
न ईमान
और परिस्थितियों का क्षोभ ना हो
तो सीखना मुमकिन नहीं !
बहुत अधिक पीड़ा तो ईश्वर को भी होती है
तभी तो एक मूलमंत्र उसने दिया -
तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो !!!

03 सितंबर, 2012

अर्थ का अनर्थ (लघुकथा )


एक बार ईश्वर साधारण वेश में धरती पर आए .... एक व्यक्ति ने पूछा - क्या तुमने अँधेरे को देखा है ? ईश्वर ने कहा - मैं खुद ही अँधेरा भी हूँ , प्रकाश भी ...
व्यक्ति ने गाँव में जाकर कहा - उस आदमी से दूर रहना , भ्रमित करते हुए मुझे ही अँधेरा साबित कर रहा है !
ईश्वर प्रगट हुए - सबने हाथ जोड़ लिए ,
ईश्वर मुस्कुराये - यही प्रकाश और अँधेरे का फर्क है ...

बच्चों को कथा सुनाते हुए उसी गाँव के एक व्यक्ति ने कहा - एक बार मेरे कहे को भी गलत मान सब मुझसे दूर हो गए थे .... वहीँ खड़ा एक अन्य व्यक्ति इस कहानी को सुन रहा था , अपना निष्कर्ष ले वह पंचायत में गया और बोला - " बच्चों के बीच कहानी के माध्यम से वह आदमी खुद को भगवान् बना रहा है ..."
कुछ ने मान लिया , कुछ मुस्कुराकर बढ़ गए -
इससे क्या सीख मिलती है ?

01 सितंबर, 2012

वह शक्सियत - जिनकी सिर्फ आलोचना हुई , पर मुझे सही लगीं





वह शक्सियत - जिनकी सिर्फ आलोचना हुई , पर मुझे सही लगीं . निःसंदेह नज़रिया अपना होता है , पर नज़रिए के लिए परिवेशिये परिस्थिति को यदि हम नहीं देख सुन पाते तो मेरे विचार से उसपर अपनी सोच को पुख्ता नहीं करना चाहिए .
मैं तब बहुत छोटी थी , करीबन सात आठ वर्ष की . प्रिया दीदी को ( दुःख है एक काल्पनिक नाम देने का - ) मैंने अपनी माँ के साथ देखा था . दुबली पतली , बड़ी बड़ी आँखें ... सफ़ेद साड़ी में वे खुद में एक सुकून सी लगीं . मेरी माँ जिस स्कूल में पढ़ाती थीं , उसी स्कूल में उनकी माँ मेट्रन थीं . प्रिया दी बहुत चुप चुप सी रहती थीं , चेहरे पर एक टीस सा तनाव रहता - तब उस तनाव से डर लगता था , आज - उस उथलपुथल को महसूस कर पाती हूँ .
मैं उनका वह चेहरा कभी भूल नहीं पायी तो माँ से पूछा था उनके बारे में .... माँ से सुनी कहानी और समाज का रूप और उनकी लड़ाई - हर उम्र पर मुझसे कहती गई कि " ऐसा ना करती तो क्या करती !" मैं शून्य में कहती हूँ - 'हाँ प्रिया दी , आप गलत नहीं थीं ...'
प्रिया दी की माँ का पति, जो निःसंदेह पिता कहलाने लायक नहीं था - उनकी माँ को बुरी तरह मारता . अशिक्षित महिला - (आज से ४५, ४६ वर्ष पहले ) ने खुद को और अपने बच्चों को आधार देने के लिए मेट्रन की नौकरी की . ५ बच्चे थे , सबको पढ़ाया . समाज - किसी के बुरे , दहशत भरे हालात में आगे नहीं बढ़ता पर टीकाटिप्पणी दिल खोलकर करता है . उस आदमी ने एक बार प्रिया दीदी की माँ के बाल रिक्शे के पहिये में जकड दिए और खींचा - वह अनपढ़ थीं तो क्या उनकी इज्ज़त नहीं थी ! कई लोग बड़े से बड़े हादसों का मुआयना शिक्षित, अशिक्षित , ओहदे से करते हैं .... पर अधिकतर मुआयना ही करते हैं और वाक्यात से परे मुहर लगा देते हैं .
खैर - प्रिया दीदी अपनी पढ़ाई कर रही थी कॉलेज में , तभी उनके तथाकथित पिता ने उनकी शादी तय कर दी . विरोध करने पर प्रिया दी को बेहोश कर दिया और शादी संपन्न करवा दी . होश में आते प्रिया दी सबकुछ से निर्विकार बेजान विरोध लिए हॉस्टल लौट गयीं . कॉलेज से लेकर हर जगह चर्चा चली - " बड़ी ढीढ , बेहया लड़की है , पति रोज जलेबी लेकर मिलने आता है कॉलेज के बाहर , पर यह उसे चले जाने को कहती है फटकारते हुए ...." यह बात प्रिया दी के पति सबसे कहते फिरते ....)
प्रिया दी मेरी माँ का बहुत सम्मान करती थीं . एक बार मेरी माँ ने पूछा - " प्रिया लोग ऐसा कहते हैं ... क्या तुम ऐसा करती हो ? "
प्रिया दीदी का चेहरा अपमान से लाल हो उठा , आँखों में कहीं एक कतरा पानी का तैरने लगा .... कहा था प्रिया दी ने - ' हाँ चाची , सही बात है . सही बताता है वह व्यक्ति, पर किसी ने यह सोचा कि कैसा नपुंसक है वह , रोज पान खाकर , खींसे निपोरते एक डोंगे में जलेबी लिए गिड़गिडाता है ... मैं भगा देती हूँ और वह भाग जाता है !!! तो ऐसा व्यक्ति पति होने योग्य है क्या ?"
माँ से सुनी ये बातें बढ़ती उम्र के साथ गंभीर प्रश्न बनती गयीं ...
प्रिया दीदी ने अपनी शिक्षा के बल पर नौकरी की , पर योग्यता के आगे कई मनसूबे सामने मुंह खोले रहते हैं . प्रिया दी को अपने अन्य भाई बहनों को ज़िन्दगी देनी थी तो उन्होंने उन मंसूबों को अपनी सीढ़ियाँ बना लीं. बहनों को प्रतिष्ठित नौकरी मिली, प्रतिष्ठित शादी हुई ...... मंसूबों को ठेंगा दिखाती प्रिया दीदी ने फिर शादी कर ली , आज एक बहुत प्यारे बेटे की माँ हैं .
इस पूरी यात्रा में मुंह खोले , जिह्वा लपलपाते मंसूबों ने उनकी दिल खोलकर भर्त्सना की , - राम राम , छि छि कहकर घृणा से भरी मुद्राएँ बनाते गए .... समाज के सही परिवेश को प्रिया दी ने समझदारी से जीया . उन्होंने अपने व्यक्तित्व को ऐसा बनाया कि उनके सामने कुछ कहने से पहले लोग सौ बार सोचते थे .
आज भी सफ़ेद साड़ी में प्रिया दीदी का उदास विरोधी चेहरा याद रहता है , मैं उनसे फिर मिली नहीं - पर कहानियाँ सुनती रही . कहानियों के पीछे समाज की विकृति और उसमें से राह निकालती प्रिया दीदी के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है.
कंकड़ भरे रास्तों पर लहुलुहान व्यक्ति के लिए सीखों की फेहरिस्त बनाना आसान है ...... चलकर देखो , खड़े होकर देखो - तुम क्या करते !

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...