29 दिसंबर, 2013

कितने दोहरे मापदंड !





व्यक्ति व्यक्ति से बने समाज के 
कितने दोहरे मापदंड हैं !
पत्नी की मृत्यु होते 
उम्र से परे,बच्चों से परे 
पति के एकाकी जीवन की चिंता करता है 
खाना-बच्चे तो बहाना होते हैं 
.... 
पत्नी पर जब हाथ उठाता है पति 
तो समवेत स्वर में प्रायः सभी कहते हैं 
"ज़िद्दी औरत है 
…………"
किसी अन्य स्त्री से जुड़ जाए पति 
तो पत्नी में खोट !
पत्नी को बच्चा न हो 
तो बाँझ' बनी वह तिरस्कृत बोल सुनती है 
दासी बनी दूसरी औरत को स्वीकार करती है 
वंश" के नाम पर !

वंश' भी पुत्र से !!!

निःसंदेह, पुरुष एक ताकत है 
शरीर से सक्षम 
पर स्त्री के मन की ताकत को अनदेखा कैसे कर सकते हैं !
या फिर कैसे उस अबला (!!!) के साथ 
न्याय को बदल देते हैं ?

जिस वंश को 9 महीने खुद की शक्ति देती है स्त्री 
और मृत्यु समकक्ष दर्द से जूझकर 
जिसे धरती पर लाती है 
जिसके रुदन को अपने सीने में जब्त करती है 
और प्राणों में ममता का सामर्थ्य भरती है 
उसके साथ सोच की हर कड़ी दूसरा रूप लेती है  .... 

पति की मृत्यु - स्त्री अभागी 
किसी का बेटा खा गई !
विवाह कर लिया तो कलंकिनी !
खुद की रक्षा में हाथ उठा दिया 
तब तो राक्षसी !
पति बच्चा नहीं दे सकता 
तो उसकी इज्जत पत्नी की ख़ामोशी में 
!!!!!!!!!!!!!
परिवार स्त्री-पुरुष से 
समाज स्त्री-पुरुष से 
संतान स्त्री-पुरुष से 
तो कुछ गलत होने का कारण सिर्फ स्त्री क्यूँ ?

पुरुष रक्षक है स्त्री का 
पर जब भक्षक बन जाए 
तो स्त्री के प्रति नज़रिया क्यूँ बदल जाता है ?
कम उम्र में स्त्री विधवा हो जाए 
या तलाकशुदा 
तो उसके विवाह पर आपत्ति क्यूँ ?
उसकी जिंदगी में तो गिद्ध मँडराने लगते हैं 
ऊँगली उठाते लोग 
उसे खा जाने का मौका ढूँढ़ते हैं 
दूर की हटाओ 
घर बैठे रिश्तों की नियत बदल जाती है 
फिर यह दोहरा मापदंड क्यूँ ???

22 दिसंबर, 2013

प्राकृतिक उद्देश्य




मैं जमीन पर ही कल्पना करती हूँ 
जमीन पर ही जीती हूँ 
यूँ कई बार 
हौसलों की खातिर 
क्षितिज से मिल आती हूँ :) … 
ले आती हूँ थोड़ी चिंगारी 
जंगल में फैली आग से 
समेट लाती हूँ कुछ कतरे 
जमीन पर खड़े रहने के लिए 
जल,वायु,अग्नि,धरती - आकाश से  
सूरज से वाष्पित कर अपने को 
मैं आकाश से जमीन पर उतरती हूँ 
और गंगा बनने का हर सम्भव प्रयास करती हूँ  … 
क्षितिज खुले आकाश में 
धरती के सीने से दिखता है 
सूरज को मुट्ठी में भरने की ख्वाहिश 
धरती से होती है 
तो जमीनी कल्पना में ही 
मुझे जमीनी हकीकत मिलती है 
जमीनी ख़ुशी जमीनी दुःख 
जमीन से जुड़ा ज़मीर 
जमीन से उगती तक़दीर 
यही मेरी सम्पत्ति है 
इसी सम्पत्ति से मैं स्वयं का निर्माण करती हूँ 
और शिव की जटाओं से निःसृत होती हूँ 
……… धरती के गर्भ में पावन गंगा सी बहती हूँ 
जमीनी हकीकत जब पवित्र नहीं रह जाती 
तब काल्पनिक पाताल में अदृश्य हो 
शिव तांडव में प्रगट होती हूँ 
न स्वयं को खोती हूँ 
न स्वयं में खोती हूँ 
मैं जमीनी कल्पना और हकीकत के बीच 
निरंतर जागती हूँ 
भयाक्रांत करती लपटों से घिरकर 
अविचल 
कल्पनाओं का जाप 
हकीकत के तपिश में करती हूँ 
हकीकत का जीर्णोद्धार 
कल्पनाओं के रंगों से करते हुए 
सृष्टि के गर्भ में अदृश्य कारीगरों का आह्वान करती हूँ 
कल्पना और हकीकत को एकसार करने में 
मैं पल पल जीती हूँ 
पल पल अपने जन्म को एक काल्पनिक सार्थकता देते हुए 
मैं हकीकत के ऐतिहासिक पन्नों में उतरती हूँ 
कल्पना को हकीकत 
हकीकत को कल्पना 
- जमीन से जुड़ा मेरा प्राकृतिक उद्देश्य है 

15 दिसंबर, 2013

मौसम ....! और आदमी !!







मौसम  ....!
और आदमी  !
हर साल गर्मी,बारिश और ठण्ड का कहर होता है
टूटी झोपड़ियाँ,
फुटपाथ पर ठिठुरती ज़िन्दगी
हर साल की खबर है
मरनेवाला यूँ ही बेनाम मर जाता है  …
म्युंसिपैलिटी वाले ले जाते हैं लाश को
कई चेहरों की कोई शिनाख्त नहीं होती
ना ही होती है कोई फ़ाइल
जिसमें कोई पहचान हो

किसी गटर में होता है रोता हुआ बच्चा हर साल
लोग भीड़ लगाकर देखते हैं
बुद्धिजीवी बने कहते हैं
- लावारिस, होगा किसी का नाजायज पाप !
क्या सच में ?
बच्चे नाजायज होते हैं क्या ?
ओह ! यह प्रश्न मैं किसी से भी नहीं उठा रही
कर रही हूँ प्रलाप
क्योंकि हर साल जो घटित होता है
उसपर चर्चा कैसी !

बात तो इतनी है
कि गरीब न हो तो अमीर की पहचान कैसी
फुटपाथ पर कोई बेसहारा न हो
तो विषय क्या
बच्चे को नाजायज न कहें
तो नाजायज पिता की शादी कैसे होगी
जायज बच्चों की परवरिश कैसे होगी
और नाजायज माँ का जनाजा कैसे निकलेगा
या फिर वह नई नवेली अल्हड दुल्हन कैसे बनेगी !

घोटाले मौसम और आदमी के
हर साल होते हैं
बस आकड़े बढ़ते-बढ़ते हैं
घटने के आसार न कभी थे,न होंगे !!!

06 दिसंबर, 2013

कुछ झूठ कुछ लीपापोती सबसे बड़ी पूजा होती है






अम्मा का लिखा हर दिन टाइप करती हूँ  … 

जितनी बार किसी किताब को पढ़ो 
अर्थ उतने ही स्पष्ट होते हैं !
एक क्षण में हम निर्णयात्मक धारणा नहीं बना सकते 
यूँ वह तो वर्षों तक नहीं बनाया जा सकता 
क्योंकि हमारी किसी भी सोच में 
कई सोच का छौंक लगा होता है 
.... !!! पर, जब पूरी पुस्तक खत्म हो जाती है 
तो एक सार जो रह जाता है 
वह सिर्फ अपना होता है 
और वही सार उस व्यक्ति,उसके व्यक्तित्व की 
असलियत होती है - हमारे लिए !
हाँ तो रोज एक याद को टाइप करते 
मैं स्वतः अम्मा बन जाती हूँ (अगर तुम टाइप करो तो तुम भी बन जाओगे)
और साल 64 से 
एक विक्षिप्त माँ की सोच को 
जिसका 4 साल का बेटा 
कहकर गया -'ठहरो माँ,मैं अभी आया'
और  … 
हर सुबह,हर दिन 
हर शाम,हर रात महसूस करती हूँ !
.... 
ज़िन्दगी में जब हम किसी गहरे आघात से गुजरते हैं 
तो उसके छींटे 
ख़ुशी,दुःख सबमें नज़र आते हैं 
नहीं चाहते हुए भी कई बार मुँह से निकल जाता है !
इसमें सही-गलत की परिभाषा नहीं लागू हो सकती 
 क्योंकि थोडा-बहुत हर कोई इस रास्ते पर होता है 
.... 
पापा कहते थे -
किसी गहराई को मापने के लिए 
उस जगह खुद को रखो 
रखते रखते उम्र निकल गई 
और हम वहीँ अडिग नहीं खड़े रह सके 
जहाँ होना चाहिए था 
उल्टे हम उन लोगों की तरफ से बोलने लगे 
जिनकी नियत थी - हम उलझ जाएँ !
आह - 
हम उलझते गए 
और अपना मूल्यवान वक़्त खोते गए 
और सबकुछ होते हुए भी 
अम्मा की तरह खोने के गम जैसे धागे से 
कुछ बुनते गए 
यह कुछ - कितना खोखला है 
इससे न ठण्ड जाती है 
न ओढ़कर मीठे सपने आते हैं 
.... 
अब जाना, 
तुम भी जानो 
(सम्भवतः जानते भी होगे)
कि लीपापोती एक ज़रूरी पूजा है 
झूठ के अर्घ्य से यदि हम खुलकर हंस लेते हैं 
तो हर्ज ही क्या है मान लेने में 
!
ज़िन्दगी की चाल बड़ी तेज और रहस्यात्मक है 
कहीं जगमगाती धरती मिलती है 
तो कभी - एक क्षण में पैरों के नीचे से धरती हट जाती है 
किस उहापोह में हम अपने ही आगे मकड़ जाल बुन रहे हैं 
कौन फँसेगा ? 
फंस भी गया तो न हर्ष मना सकोगे 
न दुःख  … 
क्योंकि फिर हम तुम 
किसी और धारा में बह जायेंगे !!!!!!!!!!!!!!!!!!

श्रेष्ठता की चाभियों का गुच्छा 
कमर से लगाकर क्या होगा 
यदि एक झूठ को झूठ जानते हुए भी 
सच मानकर 
हम गले लगकर रो नहीं सके 
तो - सबकुछ व्यर्थ है 
रिश्तों की मजबूती धैर्य देती है 
और इसके लिए कुछ झूठ 
कुछ लीपापोती सबसे बड़ी पूजा होती है 
 

30 नवंबर, 2013

ज़िन्दगी फिर से चले !






रात गए नींद नहीं आती
उम्र का असर है
या अनुभवों का तनाव
घड़ी की टिक टिक की तरह
हर दौर की सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती हूँ
साँसें चढ़ जाती हैं
तो बचपन के तने से टेक लगा
बैठ जाती हूँ
आँखें दूर कहीं लक्ष्य साधती हैं
कभी चेहरे पर मुस्कान तैरती है
कभी भय
कभी उदासी
कभी  … निर्विकार होना ही पड़ता है !
.... !
बचपन के तने से टिके शरीर के मन में
कई सवाल उठते हैं
एक के बाद एक  .... लहरों की तरह !
मन से बड़ा समंदर और कहाँ
और उसमें मोती मिल जाए
तो बात ही अलग है !
हाँ तो इस समंदर की कई लहरों के बीच
एक लहर करती है तुमसे सवाल
- तुम तो बिना हाथ पकड़े नहीं चल पाती थी
तो गई कैसे ?
कितनी सीढ़ियाँ उतरनी पड़ी होंगी
डर भी लगा होगा
.... दूर दूर तक  …
हम होकर भी नहीं थे
फिर भी -
तुम चली गई !

साँस रुक जाने से कहानी खत्म हो जाती है क्या  ?
साँसों को रोकने का खेल तो हम बचपन से खेलते आये हैं
फिर ये क्या बात हुई
और कैसे - कि अब तुम नहीं कहीं !
मुझे शक़ होता है
तुम हमें जाँच रही हो  ....
मुझे विश्वास है - तुम पास में रहती हो खड़ी
कभी झुककर अपने मोबाइल पर लिखती हो कुछ
सेंड' नहीं कर पाती
हाथ हिलता है न तुम्हारा
तो ऑफ बटन दब जाता है
और तुम उकताकर लेट जाती हो  …।

सवाल सवाल सवाल  …… एक आता है
एक जाता है
कभी कुछ सकारात्मक ले जाता है
कभी कुछ नकारात्मक से ख्याल ले जाता है !
मन के समंदर के इस किनारे मैं
- चाहती हूँ
बन जाऊँ गोताखोर
सम्भव है मेरे ही मन के एक सीप में तुम मिल जाओ
और -
ज़िन्दगी फिर से चले !

इस बार हम एक एक कदम
सोच-समझकर उठायेंगे
उन लोगों से कोसों दूर रहेंगे
जिनका मन हम सा नहीं था
थोड़ी व्यवहारिकता भी लाएँगे अपने व्यवहार में
सिर्फ मन से चलते रहने पर
बहुत ठोकर लगती है
और खामखाह बीमारी
इलाज़
और अंत में - सबकुछ मानसिक कहा जाये
इस बात का एक भी मौका हम नहीं देंगे

आओ अब सो जाएँ !

23 नवंबर, 2013

लड़ना प्यार है





लड़ने से रिश्ते नहीं खत्म हो जाते  ...
शिकायत  होती ही रहती है आपस में
उसे मन में रखना
सड़ांध पैदा करता है  …
अगर नहीं कह सके अपनी बात
रोकर-झगड़ कर
तो मन के अंदर विषबेल  फैलता है  ....
यूँ भी
विष के बीज मन कभी नहीं बोता
उसे दूसरा कोई बोता है
....
ऐसे में छानबीन तो होनी चाहिए न
किसने भेजा,किसने लगाया
नाम मिल जाए तो पूछो उससे
सम्भव है, सारी बातें झूठी हों
और हम-तुम दूर हो गए हों !!
....
भाई बहन
माँ बच्चे
दोस्त
पति-पत्नी
प्रेम
…… इनसे ही तो लड़ाईयाँ होती हैं
क्योंकि इनसे प्यार होता है
ख़्वाबों जैसे प्यार की उम्मीद होती है
……
(बकवास करते हैं लोग
कि प्यार में उम्मीद नहीं होनी चाहिए )
रूठना-मनाना, फिर खिलखिलाना
इसकी साँसें होती हैं
किसी तीसरे की ज़रूरत नहीं होती
तीसरा !!!
सारी बातें बिगाड़ देता है
………
पर बातों को लड़कर
सवालों से
ठीक कर सकते हैं हम
कर भी लेते हैं
यही नोक-झोंक तो अनुपस्थिति में गहराती है
!!!
ज़िंदगी सवालों का पन्ना है
जो सबसे तेज होता है
उसी से हम सवाल पर सवाल करते हैं
उसकी हार पर खुश होते हैं
अपनी जीत पर इतराते हैं
!!! पन्ना गुम होते
न जीत,न हार  .... किससे लड़ें !
तो मानो -
लड़ना स्वास्थ्य के लिए दवा है
जो जोड़ता है
तोड़ता नहीं
जो तोड़ दे वह लड़ाई नहीं
एक विध्वंसात्मक सोच है !!!
....
इसी फर्क को समझना है
जुड़ने और तहस-नहस करके मिटा देने का  !!!!!!!!!!!!!!!

……… लड़ने से रिश्ते खत्म नहीं होते
न कोई गाँठ पड़ती है
मीलों की दूरी में भी नज़दीकियाँ होती हैं
जब हम एक कॉल,
मेसेज
और चिठ्ठी के लिए लड़ते हैं  …
लड़ना प्यार है
सिर्फ प्यार !

08 नवंबर, 2013

अम्मा तुम गीता का एक महत्वपूर्ण पन्ना हो




पहलू ….
किसी का भी एक नहीं होता
कृष्ण के भी कई पहलू हैं
अलग अलग पहलुओं का जिम्मेदार
न भगवान् होता है न इंसान !
कृष्ण के पहलू यशोदा की दृष्टि से जो होंगे
वो नन्द बाबा की दृष्टि से अलग ही होंगे
गोपिकाओं की अपनी बात
राधा का अपना प्रेम
ऊधो का अपना ज्ञान
ताड़का,कंस,शकुनी की अपनी सोच !
दुर्योधन ने तो बाँध लेने की धृष्टता दिखाई
कृष्ण के पहलू को कमज़ोर समझा !!
जिस कृष्ण के आगे पूरी सभा स्तब्ध थी
वहां दुर्योधन ने उन्हें 'ग्वाला' कहकर सोचा
कि वह श्रेष्ठ है !!!
कृष्ण तो गीता हैं
और मेरी अम्मा तुम उस गीता का एक महत्वपूर्ण पन्ना हो
जिसने पढ़ा ही नहीं
वह व्याख्या क्या करेगा
और कितनी करेगा !!!
हम तो गोपिकाओं की तरह तुम्हारी शिकायत भी करते रहे
और रहे प्रतीक्षित
कि कब तुम हमारी मटकी का उद्धार करो
ऊधो का ज्ञान हमारे लिए निरर्थक था
हम तो गोपिकाओं की झिड़कियों पर निहाल थे
…………।

अब जब तुम गोकुल छोड़ गई हो
तो जाना - तुम्हारे बिना कैसे रहेंगे !!!!!!!!!!!!!!!

25 अक्तूबर, 2013

उत्तर के बियाबान में बस सिर्फ तुम्हारी तलाश है !!!


आँचल की गांठ से 
चाभियों का गुच्छा हटा 
हर दिन 
तुम एक भ्रम बाँध लिया करती  
सोने से पहले 
सबकी आँखें पोछती 
थके शरीर के थके पोरों के बीच 
भ्रम की पट्टी बाँध  …
हमारे सपनों को विश्वास देती  
. !!!
अब जब भ्रम टूटा है 
सत्य का विकृत स्वरुप उभरा है 
तब  …
एथेंस का सत्यार्थी बनने का साहस 
तुम्हारे कमज़ोर शरीर के सबल अस्तित्व में 
पूर्णतः विलीन हो चुका है !
तुम सच कहा करती थी -
अगर हर बात से पर्दा हटा दिया जाये 
तो जीना मुश्किल हो जाये  …. 
तुम्हारे होते सच को उजागर करने की 
सच कहने-सुनने की 
एक जिद सी थी 
अब - एक प्रश्न है कुम्हलाया सा 
कि सच को पाकर  होगाभी क्या !!!
कांपते शरीर में 
न जाने कितनी बार 
कितने सत्य को तुमने आत्मसात किया 
दुह्स्वप्नों के शमशान में भयभीत घूमती रही 
और मोह में बैठी 
हमारे चमत्कृत कुछ करगुजरने की कहानियाँ सुनती गई 
जो कभी घटित नहीं होना था  … 
तुम्हारा सामर्थ्य ही मछली की आँखें थीं 
जो हमें अर्जुन बनाती 
तुम्हारी मुस्कान - हमारा कवच भी होतीं 
और हमारे मनोरथ की सारथि भी 
… अब तो न युद्ध है 
न प्रेम 
है - तो एक सन्नाटा 
जिसे मैं तुमसे मिली विरासत की खूबियों से 
तोड़ने का प्रयास करती हूँ 
…. 
कृष्ण,पितामह,कर्ण,अर्जुन,विदुर  …. 
सबकी मनोदशा चक्रव्यूह में अवाक है 
प्रश्नों का गांडीव हमने नीचे रख दिया है 
क्योंकि  ……
अब कहीं कोई प्रश्न शेष नहीं रहा 
उत्तर के बियाबान में हमें सिर्फ तुम्हारी तलाश है !!!

17 अक्तूबर, 2013

खोलो अपनी पिटारी



अपनी ख़ामोशी 
जो मैंने नहीं गढ़ी 
फिर भी 
वक़्त की माँग पर 
जिसे मैंने स्वीकार किया 
वहाँ मोह की आकृतियाँ 
मेरे कुछ कहने की प्रतीक्षा में बैठी होती हैं 
…. !
मैं तो बातों की पिटारी रही हूँ 
जब पिटारी में कुछ नहीं होता 
तो भी मनगढंत बातें सुनाती हूँ 
पता है मुझे -  
खालीपन कभी मुस्कुराता नहीं 
और मैंने हमेशा चाहा है 
कि शून्य में खिलखिलाहट भर जाए 
ताकि तुम्हारे एकांत में 
यादें मेरी बातों की 
तुम्हें गुदगुदा जाए 
तुम्हारा चेहरा खिल जाये 
और खालीपन भी आश्चर्य में पड़ जाये !!
…… 
गीत,कहानी,नकल,साहस, ……। 
जाने कितनी सारी बातें हैं 
फिर भी सन्नाटा !!!
एकटक देखती आँखों का इंतज़ार 
मैं समझती हूँ 
तभी तो आज  …………… 
दुलारती हूँ उन चेहरों को 
और कहती हूँ -
तुम भी तो कुछ कहो !
खोलो अपनी पिटारी 
कुछ नहीं तो वो जादू दिखाओ 
जो मैंने तुम्हें दिखाया,सिखाया 
गढ़ो कोई कहानी 
या कोई छोटी सी बात 
और खिलखिलाते जाओ मेरे संग 
तब तक 
जब तक 
झूठमुठ के खींचे गए सन्नाटे शर्मा न जाएँ 
डर कर भाग न जाएँ 
………………… 
पता है न 
पलक झपकते सारे दृश्य बदल जाते हैं 
इंतज़ार के सारे मौके ख़त्म हो जाते हैं 
और तब 
सन्नाटा बहुत भयानक होता है 
शून्य में कही अपनी बातें 
ख़ुद तक लौट आती हैं 
और  ……… !!!!!!!!
तो कहो कुछ तुम 
मैं तो पिटारी लिए खड़ी ही हूँ :)

06 अक्तूबर, 2013

समय और ईश्वर के आगे खुद को मुक्त कर दो





सन्देश तो बहुत मिले होंगे 
कुछ पोस्टकार्ड 
कुछ अंतर्देशीय 
कुछ लिफाफे 
कुछ मेल 
…………. पर 
आँखों की खामोश पुतलियों पर लिखे सन्देश 
मिले तुमको ?
किसी और ने गर पढ़ा भी 
तो क्या हुआ 
सन्देश के हर्फ़ तुम्हारे लिए थे 
तुम जानते हो - है न ? 

होठ सी लेने से 
अनभिज्ञता दिखाने से 
तुम मानते हो 
कि उसे मान लिया गया ?
नहीं  …. 
तुम्हारे चेहरे पर जाने कितने सन्देश हैं 
जिसे तुम्हारे अपने पढ़ते हैं 
अपने - जिनसे तुम्हारा रक्त सम्बन्ध है !
वे पढ़ते ही नहीं 
चुनते जाते हैं उन संदेशों को 
संभालकर रखने के लिए 
पर एक बार तुम्हें कहना होगा 
अपने होठों की सीलन खोलकर 
नाहक इधर-उधर भटकते क़दमों को रोककर !!!
…। 
यह समय का मौका है 
ईश्वर का करिश्मा है 
कि तुम्हारी बेचैनी एकत्रित हो गई है 
चुप्पी में जिस व्यक्तित्व को तुमने अनदेखा किया 
उसे बताने का वक़्त आ गया है 
एक विश्वास रखो -
क्षणांश को क्रोधित होकर भी 
प्यार की ताकत सबकुछ समेट लेती है 
परिस्थितिजन्य गलतियों पर 
स्नेहिल स्पर्श से क्षमा की अनुभूति देती है 
वे अपने - जो दूर नज़र आने लगे थे 
यक़ीनन उनका विश्वास - 
तुम्हें हँसने का 
बिलखकर रोने का 
कुछ भी कहने-सुनने का 
इत्मीनान भरा साहस देगी 
एक दूसरे की आँखों में उभरे संदेशों को 
बताने का मौका देगी  … 
बस-
समय और ईश्वर के आगे खुद को मुक्त कर दो 

30 सितंबर, 2013

माँ हो या अम्मा या मईया या … जैसे चाहो पुकार लो, वह ईश्वर रचित असीम शक्ति होती है




दिगंबर नासवा जी - जागती आँखों से सपने देखना जिनकी फितरत है - माँ के लिए उभरे एहसासों से मैंने अपने भीतर के एहसासों का सिरा जोड़ा है - माँ हो या अम्मा या मईया या  … जैसे चाहो पुकार लो, वह ईश्वर रचित असीम शक्ति होती है  . 

उस शक्ति के नाम दिगंबर नासवा जी =

माँ का हिस्सा ...

मैं खाता था रोटी, माँ बनाती थी रोटी    
वो बनाती रही, मैं खाता रहा    
न मैं रुका, न वो 
उम्र भर रोटी बनाने के बावजूद उसके हाथों में दर्द नहीं हुआ   

सुबह से शाम तक इंसान बनाने की कोशिश में  
करती रही वो अनगिनत बातें, अनवरत प्रयास      
बिना कहे, बिना सोचे, बिना किसी दर्द के   

कांच का पत्थर तराशते हाथों से खून आने लगता है   
पर माँ ने कभी रूबरू नहीं होने दिया 
अपने ज़ख्मों से, छिले हुए हाथों से   
हालांकि आसान नहीं था ये सब पर माँ ने बाखूबी इसे अंजाम दिया 

अब जब वो नहीं है मेरे साथ 
पता नहीं खुद को इन्सान कहने के काबिल हूं या नहीं 

हां ... इतना जानता हूं 
वो तमाम बातें जो बिन बोले ही माँ ने बताई 
शुमार हो गई हैं मेरी आदतों में 

सच कहूं तो एक पल मुझे अपने पे भरोसा नहीं 
पर विश्वास है माँ की कोशिश पे 
क्योंकि वो जानती थी मिट्टी को मूरत में ढालने का फन 

और फिर ... 
मैं भी तो उसकी ही मिट्टी से बना हूं 


और मेरे एहसास यानि रश्मि प्रभा के =


ये सच है न अम्मा ?

कितने अजीब होते हैं रास्ते … 
तुम्हारी बातों की ऊँगली थामे 
पहले मैं तुम्हारे नईहर के घर घुमती थी 
फिर हर जगह से होकर
हम जगदेवपथ के छोटे से घर में जीने लगे
तुम्हारा घर मेरे साथ
बन गया था सबका मायका 
फिर हुआ पुणे का सफ़र …
……………
अब एक खाली कमरा
और ICU का 2 नम्बर बेड
मेरी जेहन में बस गए हैं …
रांची से चलते समय
मन का एक कोना खाली कमरे की खिड़की पर
छोटे बालकनी में
तुम्हें देख लेने की लालसा में
निहारता बढ़ गया यह कहते हुए
'चल अम्मा साथे'
……।
यह भी अजीब ही बात है
कि तुम्हारी असह्य तकलीफ के आगे
तुम्हारी मुक्ति के लिए
मैंने प्रभु का आह्वान किया
- - - किसी जादू की तरह
तुम शारीरिक पिजड़े से मुक्त हो गई
पर पिंजड़े की सलाखों पर जो निशाँ थे
वे मुझे तकलीफ देते हैं ……

मैं आँखें बंदकर तुम्हारा आह्वान करती हूँ
हाँ अपनी सुन्दर सी अम्मा का
हाँ हाँ वही सीधी माँगवाली लड़की
जो कभी तरु थी
कभी सरू
कभी कुनू
और कहती हूँ -
तुम्हारे अपने कई कमरे हैं
जहाँ से तुम कभी नहीं जा सकोगी
………
ये सच है न अम्मा ?

03 सितंबर, 2013

अम्मा



अब अम्मा का फोन नियम से नहीं आता 
'साईं समर्थ' 
गुड नाईट। … नहीं सुनती उनसे 
मैं कर देती हूँ आदतन मेसेज 
कोई जवाब नहीं आता 
कभी फोन करूँ भी 
तो अम्मा उठाती नहीं 
उठाया भी तो बगल में रख देती है 
झल्लाती है हौले से - "कुछ सुनाई ही नहीं देता"
…… 
कभी वो करती है तो लपककर उठाती हूँ -
'हाँ अम्मा बोल  …'
कराहती है अम्मा 
कभी कहती है - 'बहुत तकलीफ,बहुत तकलीफ  ….'
कभी - 'बुला लो,बुला लो  ….'
कभी - 'अह अह अह अह  ….'
कभी - '…………………….'
इधर दो तीन दिनों से 
हर दिन (करीबन 3 बजे)
आधी रात को मोबाइल बजने लगा है 
देखती हूँ,सुनती हूँ - ट्रिन ट्रिन ट्रिन ट्रिन 
नहीं उठाती  - 
घबराहट होती है…… 
वो घुटी घुटी कराहट मैं बर्दाश्त नहीं कर पाती 
………………। 
उम्र के इस पड़ाव पर 
अम्मा बहुत कमज़ोर,बीमार है 
और हम  - अपनी अपनी जिम्मेवारियों में अवश-शिथिल !
मेरी बाह्य दिनचर्या से 
मेरी आंतरिक दिनचर्या मेल नहीं खाती 
मैं ही क्या 
हमसब अपनी अपनी जगह बाह्य से परे जी रहे हैं 
……… 
ऊपर से संवेदनहीन दिखते  
अन्दर किसी पिजड़े में पंख फड़फड़ाते 
मुक्ति की कामना लिए 
अव्यक्त भय से ग्रसित !

28 अगस्त, 2013

अपने जन्मदिन पर मुझे एक उपहार चाहिए



फिर आया वह दिन 
जब मैं निमित्त बन 
माँ के गर्भ से निकल 
काली रात की मुसलाधार बारिश में 
गोकुल पहुंचा 
यशोदा के आँचल से 
अपने ब्रह्माण्ड को तेजस्वी बनाने  ……. 
माँ देवकी के मौन अश्रु 
द्वारपालों का मौन पलायन कंस के आसुरी निर्णय से 
पिता वासुदेव के थरथराते कदम 
यमुना का साथ 
बारिश से शेषनाग की सुरक्षा 
मेरा बाल मन कभी नहीं भुला  …
मैंने सारे दृश्य आत्मसात किये 
बाल सुलभ क्रीड़ायें कर 
सबको सहज बनाया 
पर हर पल असहजता की रस्सी पर 
संतुलन साधता रहा  …. 
मातृत्व का क़र्ज़ 
नन्द बाबा के कन्धों का क़र्ज़ 
राधा की धुन का क़र्ज़ (जो मेरी बांसुरी के प्राण बने)
ग्वाल-बालों की मित्रता का क़र्ज़ 
कदम्ब की छाया का क़र्ज़ 
मैं कृष्ण  …… भला क्या चुकाऊंगा !!!
तुम राधा के लिए सवाल करो 
या माँ यशोदा के लिए 
मैं निरुत्तर था 
निरुत्तर हूँ 
निरुत्तर ही रहूँगा  …… 
तुम्हारे अनुमानों में मेरा जो भी रूप उभरे 
तुम्हारे ह्रदय से जो भी सज़ा निकले 
मुझे स्वीकार है 
क्योंकि मेरे जन्म के लिए तुम हर साल 
एक खीरे में मेरी प्रतीक्षा करते हो 
इस प्यार,प्रतीक्षा के आगे 
मुझे सबकुछ स्वीकार है  …। 
पर अपने जन्मदिन पर 
मुझे एक उपहार सबके हाथों चाहिए 
……………… 
अपनी अंतरात्मा की सुनो 
मेरी तरह संतुलन साधो 
कंस का संहार करो 
फिर जानो मुझसे किये प्रश्नों का उत्तर !!!

26 अगस्त, 2013

मुझे पंख चाहिए




मुझे पंख चाहिए 
वैसे पंख - 
जो मन के पास होते हैं 
और वह अपनी जगह से हमेशा कहीं और होता है  … 
मैं भी घूमना चाहती हूँ 
कहाँ ? इस पर क्या सोचना,
सीमित ही है सबकुछ 
फिर भी,
सुबह से रात तक की परिक्रमा कर लूँ 
तो मन के पंखों को कुछ आराम मिल जायेगा !
मन की आँखों को 
या उसके आने को 
हर कोई नहीं देख पाता 
न समझ पाता है 
और अगर देख लिया 
समझ लिया 
तो निःसंदेह मानसिकता की बात हो जाएगी !
आना-जाना सत्य के आधार पर प्रमाणित होता है 
यूँ महीनों,सालों मन से कहीं रह लो,
जी लो 
- कोई नहीं मानता 
प्रमाण चाहिए 
और प्रमाण के लिए मुझे असली पंखों की ज़रूरत है 
हाँ,हाँ - परियों वाले पंख !
…………………। 
अब प्रश्न उठेगा कि मिलते कहाँ हैं 
तो इस बात से तो सभी भिज्ञ हैं 
कि दुनिया आश्चर्यों की मिसाल है -
कहीं किसी अनोखे झरने के पास परियां रहती होंगी 
पंखों का अद्भुत मेला सजाये 
हमें बस कोलम्बस,वास्कोडिगामा होना है 
फिर मन से शरीर की उड़ान आसान हो जाएगी 
पर !!!  ………. 
इसमें प्रत्यक्ष गवाह की कठिनाइयां पैदा होंगी !!!
परियों की सुरक्षा ख़तरे में पड़ जाएगी  …
समझ में नहीं आता कि अपनी चाह को क्या नसीहत दूँ !
पंख तो मुझे चाहिए 
तो एक तथ्य उभरा है दिमाग में 
कि पाप हो या पुण्य 
तर्क से दोनों को तब्दील किया जा सकता है 
वचनं किं दरिद्रतम !
तर्क से पुण्य पाप 
पाप पुण्य 
होता है न ?!
तो परियों पर आफ़त आ जाने पर कह देना है 
"होनी काहू बिधि ना टरै"
और गवाह की ऐसी की तैसी 
वह तो यूँ भी बिकाऊ ही होता है 
………। 
तो सम्पूर्ण कहे का सार है - मुझे पंख चाहिए 

08 अगस्त, 2013

चाँद और सीढ़ी



एड़ी उचकाकर चाँद को छूना चाहा 
चाँद ने कहा - ' एक सीढ़ी लगा लो' 
एक सीढ़ी लगाकर नीचे देखा 
बचपन के मोहक मन को बड़ा मज़ा आया …
 
फिर चाँद को देखा, हाथ बढ़ाया 
चाँद के इर्द गिर्द तारे टिमटिमाये 
'एक सीढ़ी और'
दूसरी सीढ़ी पर पाँव रखते  
अल्हड़ हवा का झोंका 
मेरे कानों में सोलहवें बसंत की कहानी कहने लगा 
नीचे देखूँ या ऊपर 
हर सू गुलमोहर से भरा …. 

लहराती लटों को संभाल 
फिर चाँद को देखा 
चाँदनी ने मुझे आगोश में भर लिया 
हौले से कहा - 'एक सीढ़ी और …'
……
तीसरी सीढ़ी दुनियादारी के घात-प्रतिघातों से भरी थी 
हर प्यादे वजीर बने 
शह-मात की बाज़ी खेल रहे थे 
घबराकर चाँद को देखा 
फिर से एड़ी उचकाने की चेष्टा की 
चाँद ने प्यार से छुआ 
कहा - 'एक सीढ़ी और  …'

गीता सार अर्थवान हुआ -
"जो हुआ अच्छा हुआ जो हो रहा है अच्छा हो रहा है, जो होगा वो भी अच्छा होगा, 
तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो? तुम क्या लाये थे जो तुमने खो दिया? 
तुमने क्या पैदा किया था जो नष्ट हो गया? तुमने जो लिया यही से लिया, 
जो दिया यही पर दिया, जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, कल किसी और का होगा ... "

21 जुलाई, 2013

माँ तो हूँ ही - अब सासु माँ भी



माँ तो हूँ ही - अब सासु माँ भी . इन्हीं सुखद क्षणों के सुख के लिए मैं आप सबसे दूर थी . आइये इन क्षणों को देखकर अपना आशीर्वाद दीजिये . ये है मेरी बेटी सौ.खुशबू और मेरा दामाद चिरंजीवी सौरभ प्रसून …… 

14 जून, 2013

यात्रा जारी है


धरती,आकाश के दराजों से 
हमेशा मैंने आशीष,दुआओं के
अनमोल,दुर्लभ 
चाभीवाले खिलौने निकाले हैं 
ताकि चेहरे की मुस्कान में क्षितिज नज़र आये 
जिसे जो भी देखे - दूर से देखे 
पास जाकर नफ़रत का आगाज़ न कर पाये 
.........
नफरत से चेहरे की कोमलता खत्म हो जाती है 
बचपन रूठ जाता है 
बात बात पर ज़ुबान से कटु बोल निकलते हैं 
जिनसे कोई रिश्ता नहीं पनपता 
हाँ - संजोये एहसास विकृत हो जाते हैं !!
......
जीवन में मैंने ख़ामोशी के अस्त्र-शस्त्र इसलिए नहीं उठाये 
कि मैं कमज़ोर थी 
दुर्गा के नौ रूप तो मेरा अस्तित्व हैं 
पर मातृ रूप को मैंने विशेष बनाया 
संहार किया प्रश्नों का निरुत्तर होकर ...
रक्तपात मेरे सपनों का उज्जवल भविष्य नहीं हो सकता था  
तो स्वयं को निर्विकार समझौते की कीलो से 
सामयिक यात्रा की सलीब पर चढ़ा दिया !
अदृश्य रक्त धरती को सिंचते गए 
वाष्पित हो आकाश को छूते गए 
सिलसिला जारी रहा ...

तारों के टिमटिमाते गीत यूँ ही नहीं मिले हैं मुझे 
ये तो उन खिलौनों का कमाल है 
जिसमें चाभी भरकर 
बच्चों के संग बच्चा बन मैंने भी तालियाँ बजाई हैं 
 !!! 
चाँद को मैं आज भी मामा कहती हूँ 
चरखा चलाती अम्मा के अनुभव सुनती हूँ 
अनुभवों की चाशनी बना खीर में डालती हूँ 
हौसलों के स्रोत को भोग लगाती हूँ 
खामोश धागों के कमाल पर आगे की यात्रा करती हूँ !!!

20 मई, 2013

सही मायनों में जी भरके




कहते हैं सब रहिमन की पंक्तियाँ -
"रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय। 
सुनि इठिलैहें लोग सब, बाटि न लैहैं कोय।।"

तो व्यथा की चीख मन में रख हो जाओ बीमार 
डॉक्टर के खर्चे उठाओ 
नींद की दवा लेकर सुस्त हो जाओ !!!!!!!!!!!!!!!

रहीम का मन इठलानेवाला नहीं था न 
व्यथित रहा होगा मन 
तो एहसासों को लिखा होगा ....
जो  सच में व्यथित  है - वह कैसे इठलायेगा 
तो ........
कहीं तो होगा ऐसा कोई रहीम 
जिससे मैं जी भर बातें कर सकूँ 
सूखी आँखें उसकी भी उफन पड़े 
मैं भी रो लूँ जी भर के .............. 
सही मायनों में जी भरके 

23 अप्रैल, 2013

या फिर लिखते रहो यूँ ही कुछ कुछ -



धूल से सने पाँव 
एक दूसरे के बाल खींचते हाथ 
तमतमाए चेहरे 
कान उमेठे जाने पर 
अपमानित चेहरा 
और प्रण लेता मन .... अगली बार देख लेंगे ....
भाई-बहन के बीच का यह रिश्ता 
कुछ खट्टा कुछ मीठा 
कितना जबरदस्त !....
शैतानियों के जंगल से 
अगले कारनामे की तैयारी कितने मन से होती थी !
......
फिर स्कूल,कॉलेज,किसी की नौकरी,किसी की शादी 
..... कुछ उदासी,कुछ अकेलापन 
तो रहने लगा छुट्टियों का इंतज़ार 
छोटी छोटी लड़ाइयाँ 
अकेले होने का डर 
फिर भी शिकायतों की पिटारी .... अगली छुट्टी के लिए !

फिर अपना घर,अपनी परेशानी 
आसान नहीं रह जाती ज़िन्दगी उतनी 
जितनी माँ के आँचल में होती है 
एक नहीं कई तरफ दृष्टि घुमानी होती है 
कभी घर,कभी ऑफिस,कभी थकान,कभी बच्चों का स्कूल ....
बचपन से बड़े होने के लम्बे धागे में 
जाने कितने लाल,हरे,नीले,पीले कारण गूंथते जाते हैं 
.........
समय हवाई जहाज बन उड़ता है 
बिना टिकट हमें उसके साथ उड़ना होता है 
न बारिश,न धुंध,.... कोई समस्या समय के आगे नहीं 
उसकी मर्ज़ी -
वह उड़ाता जाए 
और अचानक उतार दे 
उसके बाद ?
डरने से,सिहरने से भी क्या 
यादों के बीच मुस्कुराते हुए 
बहुत कुछ याद कर आंसू बहाते हुए 
हम कितने बेबस होते हैं ....
यह भी ज़रूरी है - वह भी ज़रूरी है के जाल में फंसकर 
हम दूर हो जाते हैं 
छुट्टियों के इंतज़ार के मायने भी खो जाते हैं 
रह जाता है एक शून्य 
जिसमें रिवाइंड,प्ले चलता है 
मन को उसमें लगाना पड़ता है ............

या फिर लिखते रहो यूँ ही कुछ कुछ - 


16 अप्रैल, 2013

यह भी एक रहस्यात्मक तथ्य है !



परिक्रमा तो मैंने बहुत सारी की
और जाना -
,..... हर रिश्तों की अपनी अपनी अग्नि होती है
अपने अपने मंत्र ....
पूरी परिक्रमा तो अभी शेष ही है
जो शेष रह ही जाती है
क्योंकि शेष में ही आगामी विस्तार है !

इस मध्यरूपेण यात्रा में इतना जाना
कि मंत्र मन के खामोश स्वर से निःसृत होते हैं
और वही निभते और निभाये जाते हैं !
हम सब जानते हैं
जीवन के प्रत्येक पृष्ठ पर
कथ्य और कृत्य में फर्क होता है
और इसे जानना समझना
सहज और सरल नहीं ...
सम्भव भी नहीं
..... !!!
इस परिक्रमा के पहले दौर में ही
शायद नहीं चाहते हुए भी
मैंने संस्कारों को अपना प्रतिनिधि बनाया ...
विरासत में कुछ सोच ही मिले थे घर से
जिनके विरोध में हम आपस में तर्क करते गए
पर - किया वही
जो जड़ से मिला ...
जड़ें गहरी थीं
कटकर भी ख्याल पनपते गए
पौधे से वृक्ष का
घने वृक्ष का सिलसिला चलता रहा ...
दुखद कहें
या हास्यास्पद
या अद्भुत
वृक्ष की छाँव में बहेलिया भी बैठा जाल लेकर
घोंसले में पक्षी भयभीत हुए
पर वृक्ष की परम्परागत शाखाओं ने
उन्हें भय का स्वर्णिम उद्देश्य सिखाया
कहा -
बहेलिया नहीं बदलेगा - तय है
तो हम क्यूँ बदल जाएँ
जीवन की बाजी यूँ ही चलती है
जीत हार में भी होती है
दिखाई बाद में देती है"
....
परिक्रमा के रास्ते सीधे नहीं थे
जितनी आसानी से कोई कहानी कही जाती है
उतने आसान न रास्ते होते हैं
न मन की स्थिति
विरोध के दावानल में घिरा मन
मस्तिष्क से जूझता रहता है
जूझते मन की  ऐसी दशा से
हर युग की मुलाकात हुई - स्तम्भ की तरह
हर पलड़े पर संस्कार भारी पड़ा
फिर भी ...
असत्य अंगारे बिछाता गया ...
पाँव के छाले अपने नहीं होते
तो सब प्रश्नपत्र लेकर बैठ जाते हैं
अपनों के निर्मित कटघरे में
मोह के कई बंधन टूट जाते हैं
टूटे धागे
कांच की तरह चुभते हैं
अदृश्य दर्द के निशान
कई कहानियों का समापन होते हैं !
....
अंत एक दर्शन है
जीवन की साँसों का
रिश्तों का
विश्वास का, प्यार का ...........
एक अद्भुत रहस्य अंत से आरम्भ होता है
अद्वैत के प्रस्फुटित मंत्रोचार में
जो सूर्योदय की प्रत्येक किरण की परिक्रमा में है
और ख़त्म नहीं होती
....
 परिक्रमा अभी बाकी है .... कुछ रहस्य,कुछ तथ्य - अभी बाकी हैं
कब तक ???????
यह भी एक रहस्यात्मक तथ्य है !

07 अप्रैल, 2013

सच कुछ भी नहीं




जब ज़िन्दगी ठहर जाती है 
नदी किनारों से परे 
बेवजह कलकल करती है 
तो न सन्नाटे बोलते हैं 
न शोर ही सुनाई देता है ...
उपदेशकों की भीड़ 
और तन्हा मन -
कोई चेहरा भी दिखाई नहीं देता .
चीख बुझ गई है 
आग रुक गई है 
किसी का कोई इंतज़ार नहीं !
मोह की बेड़ियाँ तो अब स्वतः खुलने लगी हैं 
कभी पूछ बैठूँ 
कि कौन हो तुम ....
तो हँसना मत 
अब हँसी भी मुझे दिखाई सुनाई नहीं देती !
आवारा सड़कों से दूर 
सभ्यता से भरे कमरे में 
मैं ढूंढती रही वह लफ्ज़ 
जो मुझे सुकून दे सके 
अब तो आईने ने भी मुझे दिखाना बंद कर दिया है !
क्यूँ घूर रहे मुझे ?
विश्वास नहीं होता ?
चलो छोड़ो -
इस विश्वास,अविश्वास से भी कुछ नहीं होता 
सच कुछ भी नहीं  
शायद आत्मा की अमरता भी छलावा है 
सिर्फ छलावा !!!

29 मार्च, 2013

यादों ने कहा



कल रात कुछ यादें सुगबुगायीं 
पूछा - खैरियत तो है ?
मैं मुस्कुराई ....
यादों को हौसला मिला 
बोलीं - 
"मैं व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप नहीं करती 
पर तुम्हारी लम्बी खामोशी 
व्यक्तिगत तो नहीं लगती ! ....
तुम शोर के सैलाब में बह गई हो तिनके के सामान 
.....
तुम्हारा यह बहना तुम्हारे लिए नहीं 
उनके लिए है - जो तिनके की तलाश में 
बदहवास हाथ-पाँव मारते हैं !!
तुम उन्हें एक पल का किनारा देना चाहती हो 
अविश्वास की आँधियों के बीच 
एक पल भी कितना मुश्किल है 
पर तुम उसे देने के लिए 
सुनामियों में बह रही हो .....
....
तुम्हें याद भी है 
मेरे दरवाज़े .... अरसे से तुम नहीं गुजरी 
कितने द्वार प्रतीक्षित हैं 
और तुम्हारी आहट ..... कितनी चुप है 
यह चुप्पी -
घुमावदार 
अनगिनत सोच की लकीरें न खींचती जाए 
बेवजह कोई सोच पहाड़ हो जाए 
फिर ? .... फिर क्या करोगी ?

तिनके की तरह तैरना गलत नहीं 
पर !!! कुछ दूर चलो तो सही 
थके मन की मुस्कान बनो 
कुछ कहो तो सही ...
बहुत हुआ - अब ये ख़ामोशी तोड़ो 
शब्दों के अर्घ्य से 
भावनाओं की तिलस्मी गुत्थियाँ खोलो 
शब्दों के रिश्तों में प्राणप्रतिष्ठा करो ..........."

23 मार्च, 2013

सुनामी हर किसी के हिस्से होती है




यीशू 
तुमने कहा था -
'पहला पत्थर वह चलाये 
जिसने कभी कोई पाप न किया हो ...'
तुम्हें सलीब पर देख आंसू बहानेवाले 
तुम्हारे इस कथन का अर्थ नहीं समझ सके 
या संभवतः समझकर अनजान हो गए !
अपना पाप दिखता नहीं 
प्रत्यक्ष होकर भी वचनों में अदृश्य होता है 
तो उसे दिखाना कठिन है ...
पर दूसरों के सत्कर्म भी 
पाप की संज्ञा से विभूषित होते हैं 
उसे प्रस्तुत करते हुए वचनम किम दरिद्रता” !

दर्द को सुनना 
फिर उसके रेशे रेशे अलग करना 
 संवेदना नहीं 
दर्द का मज़ाक है 
और अपना सुकून !

बातों की तह तक जानेवाले 
बातों से कोई मतलब नहीं रखते 
बल्कि उसे मसालेदार बनाकर 
दिलचस्प ढंग से 
अपना समय गुजारते हैं ...

वितृष्णा होती है !!!
किसी और में कमी देखने से पहले 
खुद को देखना कभी नहीं आया 
जाने कबीर ने क्या सोचकर अपने भावों को रखा 
'बुरा जो देखन मै चला, बुरा न मिलिया कोय 
जो मन खोजा आपना ,मुझसे बुरा न कोय'....
.....
कबीर को क्या पता कि कोई खुद को बुरा नहीं मानता 
हाँ उनकी पंक्तियाँ रेखांकित हो गईं 
अपरोक्ष दूसरों को बुरा जताने में !
गलती छोटी-बड़ी सबसे होती है 
पर निशाने पर -
हमेशा दूसरा होता है 
सूक्तियां खुद को आदर्श दिखाने के लिए होती हैं 
आदर्श बनने के लिए नहीं !
सुनामी हर किसी के हिस्से होती है 
देर सबेर उससे गुजरना होता है 
और जब गुजरो 
सही मायनों में सीखने समझने का वही सवेरा होता है  ....

28 फ़रवरी, 2013

सब दिन होत न एक समान !!!




पति-पत्नी 
भाई-भाई 
बुज़ुर्ग- युवा,बच्चे ....
रिश्ते क्यूँ टूटे 
क्यूँ हल्के हैं 
जानने के लिए 
- गड़े मुर्दे से कारणों को निकालने पर 
सिर्फ दुर्गन्ध आएगी 
तू तू मैं मैं के वीभत्स स्वर सुनाई देंगे 
और सही कारण लुप्त रहेगा 
और टूटने का पानी नाक तक आ जायेगा ...

तुम मन बहलाने के लिए 
यूँ कहें - मज़ा लेने के लिए 
प्रतिस्पर्द्धा की तृप्ति के लिए 
गड़े मुर्दे उखाड़ो 
अपनी मंशा शांत करो 
किसी के दर्द का मज़ाक उड़ाओ 
पर एक बार गिरेबान में देखो 
तुम भी न पतिव्रता हो न पत्नीव्रता
न श्रवण,न भरत 
क्योंकि क्षुद्र मानसिकतावाले ही 
दूसरों के दर्द में कुटिल मुस्कान बिखेरते हैं !
जो दर्द के समंदर से जा मिलते हैं 
वे आनेवाली नदियों का मर्म समझते हैं !!

टूटे रिश्तों के कारण 
हताशा में हुए प्रलाप में नहीं दिखते 
प्रलाप तो एक सुनामी है 
सत्य का भी,झूठ का भी 
बारीकी से अगर तुम टूटे नहीं कभी 
तो बारीकी से समझना सहज,सरल नहीं !
बेवजह चर्चा गोष्ठी बैठने,बैठाने का कोई अर्थ नहीं 
जिस रिश्ते को व्यक्तिविशेष निभाना नहीं चाहता 
उसे समाज,परिवार्,बच्चे ....
किसी का भी हवाला देकर निभाने की सलाह सही नहीं 
क्योंकि उसकी चिंगारियां 
समाज,परिवार,बच्चों के जिस्म और मन पर पड़ती हैं 
और घर' शमशान हो जाता है ....

किसी रिश्ते को तोड़ने से पहले 
तथाकथित तोडनेवाला 
स्वयं असह्य मानसिक द्वन्द से गुजरता है 
हर खौफ उसके जेहन में उभरता हैं 
टूटने से पहले वह कई मौत मरता है 
तब अकेलेपन को चुनता है 
सन्नाटे से दोस्ती करता है ..........

गड़े मुर्दे समान दर्द को कुरेदकर 
उसकी कहानी सुनकर 
फिर यह कहावत दुहराकर 
कि - ताली एक हाथ से नहीं बजती ....
क्या मिलेगा तुम्हें?
तुम ठहाके लगाओ 
या मगरमच्छी आंसू बहाओ 
दर्द सह्नेवाले शून्य हो जाते हैं 
और उनकी शून्यता से बिना उनके चाहे 
एक आवाज़ आती है तुम जैसों के लिए 
- सब दिन होत न एक समान !!!


24 फ़रवरी, 2013

स्त्री तुम और वह



तुम्हें टुकड़े कीमती लगे 
जिसने टुकड़े फेंके थे 
तुमने उसके सजदे में 
अपना ईमान गँवा दिया !

आंसुओं से धुंधले पड़े जमीन से 
वह अपने बच्चों के लिए 
टुकड़े उठाती गई 
तुमने अपनी ठहाकों में 
उसकी हिचकियों को बेरहमी से मार दिया 
अपने सड़े -गले तराजू पर 
तुम एक माँ की परिस्थितियों का हिसाब किताब 
और न्याय करते गए !

उस माँ ने आँख उठाकर 
हिकारत से भी किसी को देखना 
अपने स्वत्व के खिलाफ माना 
और तुमसब हर रोज 
उसकी हार का तमाशा देखने को बेताब रहे !!

इतने कुत्सित चेहरों के मध्य भी 
जो जीना चाहे 
नयी जान की साँसों के लिए 
उसकी हार कभी नहीं होती 
उसकी खामोश सिसकियाँ 
हाय' बन जाती है
देखते देखते उसकी धरती हरी हो जाती है 
और तुम्हारा सबकुछ सोने की लंका के समान 
जलकर राख हो जाता है !!!

कमज़ोर काया में 
अडिग क्षमता होती है 
आज नहीं तो कल 
उसकी निरीह दिखती 
हास्यास्पद लगती खुद्दारी 
स्वाभिमान के असंख्य दीप जलाती है ...

अभी भी समय है 
सोचो 
वह ऊपर वाला मौके देता है 
जो टुकड़े फेंकने का तुम्हें अभिमान है 
वह तुम्हारा नहीं 
उसका है 
वह जब देता है 
तो तुम्हें आजमाता भी है 
भक्ति में देवत्व है या नहीं 
यह आकलन उसका होता है !!!

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...