19 फ़रवरी, 2018

चिड़िया




सुबह सुबह
चिड़िया दिखे
ना दिखे
सूरज के घोंसले की
प्रथम रश्मि के तिनके से
वही जागरण गीत गाती है
अलसाई खुली पलकें
उसीसे सुगबुगाती हैं
शुरू होती है दिनचर्या ...

क्या बनाऊँ
क्या बनाऊँ
का खुशनुमा ख्याल तभी उभरता है
जब बच्चों से घर भरा होता है
होती हैं बेवजह की लड़ाइयां
भले ही नहीं दिखती चिड़िया
पर अदृश्य मन के आंगन में फुदकती रहती है
कभी फुर्र से उड़ती है
कभी कोयल बन कूकती है
सुबह से दोपहर
दोपहर से शाम
शाम से रात
दिन तेजी से भागता है
...
बच्चों के बच्चे
सोने पे सुहागा
ओह ! अरे नहीं !
रुको रुको! कहते
चिड़िया बन जाती है
कुनू अमु
टिश्यू पेपर से कमरा भर रहता है
जैसे बिखरे होते हैं चिड़िया के दाने
कहीं शेर औंधा गिरा होता है
 ठहरी होती है गेंद कमरे के बीचोबीच
अगर पांव पड़ा तो लड़खड़ा जाओ
....
हर थोड़ी देर पर चीजों को खोजना
सहेजना
हाय तौबा मचाना
ज़िन्दगी का खूबसूरत फलसफा होता है
कलम जाने कितने दृश्यों को
अपनी पैनी नोक पर उठा लेती है
नशा बढ़ जाए
तो गीत लिख देती है
कहानीकार बन जाती है
समंदर के मध्य चिड़िया
उड़ती है, बैठती है
कुछ दूर तैरती है
सपने धीरू भाई अम्बानी
दशरथ माझी से होते हैं
.....
सूरज के घोंसले से जो चिड़िया आती है
कभी माँ बुलाती है
कभी नानी
कभी दादी
तभी तो
रसोई से आती है कच्ची घानी की खुशबू
गुनगुनाता है घी से लगा तड़का
भूख जगाता है
गरम गरम चावल दाल
नरम नरम रोटियों में होता है अनोखा स्वाद
खिलखिलाती खुशी में
कभी गोलगप्पे मचलते हैं
कभी पाव भाजी
मुँह में भरा होता है पॉपकॉर्न
चिड़िया खिड़की के शीशे पर
टुक टुक चोंच मारती है
उसे देखते हुए
मैं जीती हूँ
बचपन
सोलहवां साल
60 साल से आगे बढ़ते वक़्त को  ...

16 फ़रवरी, 2018

वक़्त बीत गया ...




हद हो दामिनी
निर्भया
अरुणा
आरुषि...
क्यूँ भटकती रहती हो ?
हो गया हादसा
नहीं रही तुम
वक़्त बीत गया ...
आखिर एक ही बात कब तक दुहराओगी !
तुम्हारे निर्मम हादसे के बाद
स्कूल में बच्चे की हत्या हुई
बस में आग लगा दी गई
अस्पताल में कितने बच्चे दम तोड़ गए
हादसे भी उम्र से अलग
होते रहते हैं
एक ही सवाल गूंजते रहते हैं
वर्षों से
 सुने, अनसुने नामों की
अनगिनत फाइलें हैं
किसको किसको देखा जाए !
समझा जाए
न्याय किया जाए !!
.....
जब जो होना था हो गया
होता रहेगा
चीख, पुकार, पर अंकुश लगाओ
चार दिन चाँदनी
अंधेरी रात सबके हिस्से है
तुम स्वयं को किसी हवाला का उदाहरण मत मानो
तुन गई
बच्चे गए
इमारतें गईं
.... देखो,
पद्मावती भी आज आलोचना की धार पर है
!!!

09 फ़रवरी, 2018

लक्ष्य भी हमें साधता है !




हम ही हमेशा लक्ष्य नहीं साधते
लक्ष्य भी हमें साधता है
जब हम हताश हो
उम्मीद की परिधि से हट जाते हैं
सब व्यर्थ है की भारी भरकम सोच से
ज़िन्दगी को निरुद्देश्य देखते हैं
तब लक्ष्य हमारी तरफ अग्रसर होता है
उम्मीदों की अनेकों पांडुलिपियाँ थमाता है
निर्विकार मन से कहता है
अर्जुन को भी
 श्री कृष्ण की गीता
तभी सुनने को मिली
जब उन्होंने गांडीव को नीचे रख दिया !
कुछ भी पाने के लिए
खोना स्वीकार करना होता है
एक एक सत्य के लिए
झूठ के दलदल में धँसना होता है
रक्तरंजित मैदान में
मन के चक्रव्यूह से निकल
मस्तिष्क को शतरंज बनाना पड़ता है
लक्ष्य के बढ़े कदमों को
अर्थ देना होता है ...

04 फ़रवरी, 2018

आँखों में मॉनसून




एक अरसा हुआ 
आँखों में मॉनसून नहीं उतरा !
कभी कोई टुकड़ा बादल का गुजरा भी
तो बस गुजर ही गया  ...
हिचकियाँ
जो बातों बातों में 
  बंध जाती थीं कभी
जाने वे कहाँ खो गईं !
अब आँखों में
न कोई नदी उतरती है
न समंदर
पाल सी लगी पलकें
स्तब्ध सी उठती गिरती हैं
रहता है इंतज़ार
शयद इस बार
मॉनसून दस्तक दे जाए
मन की सोंधी खुशबू बिखर जाए !

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...