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पतझड़ में गिरे शब्द
फिर से उग आए हैं
पूरे दरख़्त भर जायेंगे
फिर मैं लिखूंगी
पतझड़ और बसंत
शब्दों के
तो आते-जाते ही रहते हैं
जब सबकुछ वीरान होता है
तो सोच भी वीरान हो जाती है
सिसकियों के बीच बहते आंसुओं से
कोंपले कब फूट पड़ती हैं
पता भी नहीं चलता
मन की दरख्तों से
फिर कोई कहता है
कुछ लिखो
कुछ बुनो
ताकि गए पंछी लौट आएँ
घोंसला फिर बना लें
शब्दों के आदान-प्रदान के कलरव से
खाली वक़्त सुवासित हो जाये