25 नवंबर, 2011

सिर्फ पागल



हादसे अपने अपने होते हैं

अपने नहीं होते
तो दूसरे के दर्द में कोई रोता ही नहीं !

ये सच है
कि सबको अपनी बात पे ही रोना आता है
पर अपनी बात - सामने की पुनरावृति से जुड़ी होती है !

... जिसने हादसों की आवाज़ न सुनी हो
वह किसी के हादसे को सुनेगा ही क्यूँ
... उसे तो महज वह शोर लगेगा
रोना तो दूर की बात होगी
उसके चेहरे पर एक खीझ की रेखा होगी !

पर हम भी कहाँ साथ रोनेवाले का हाथ थामते हैं
जिनके चेहरे पर खीझ होती है
उन्हें समझाने में लगे रहते हैं ...
असफल होकर गाते हैं -
'कौन रोता है किसी और की खातिर ...'
जैसे सारी दुनिया दुश्मन हो !

दोस्त तो हम अक्सर खो देते हैं
क्योंकि हमें दोस्ती से अधिक
अगले हादसे का इंतज़ार होता है
..... हादसों को नियति बनाकर चलना
हमें सहज लगता है
और जब यह सहज लगता है
तो हम सिर्फ पागल दिखाई देते हैं
....... सिर्फ पागल !

18 नवंबर, 2011

प्यार मर जाता है



जाने कैसे ...
किस आधार पर
सब कहते हैं - ' प्यार कभी नहीं मरता '
... मरता है प्यार
यदि वह इकतरफा हो
मरता है प्यार
यदि उपेक्षा के दंश गहरे हों !

अहम् और अस्तित्व में फर्क होता है ...
प्यार तो यूँ भी सरस्वती की तरह
विलीन होना जानता है
पर उसके अस्तित्व को मिटाना ?
क्या सरस्वती के बगैर त्रिवेणी का अस्तित्व होगा ?
प्यार पहचान देता है
ना देखकर भी उसे देखा जा सकता है
पर देखकर जब कोई ना पहचाने
फिर प्यार ..... मानो न मानो
मर जाता है !

हाँ मृत्यु से पहले
प्यार मोह की बैसाखी लेता है
खींचता है अपना सर्वांग
लेकिन ...
जब वह खुद को खींचने में असमर्थ होता है
और उसके लड़खड़ाते अस्तित्व के आगे
किसी की मजबूत हथेली नहीं होती
तो - प्यार मौन हो जाता है !

अवरुद्ध साँसों के बीच
अतीत की लकड़ियाँ इकट्ठी करता है
भूले से भी लकड़ियों में गीलापन न रह जाए
प्राप्त उपेक्षा के घी से उसे सराबोर करता है
फिर आँखों की माचिस से
एक बूंद की तीली ले
उसे प्रोज्ज्वलित करता है
उम्मीदों का तर्पण कर
खुद को खुद ही मुक्ति देता है ....

अमरत्व उस प्यार में है
जहाँ दोनों तरफ अमृत हो
एक तरफ अमृत और एक तरफ विष हो ....
तो ,
.... अब सोचकर देखो ,
प्यार मर जाता है न ?

16 नवंबर, 2011

ओस से ख्याल



ओस की बूंदों को ऊँगली पे उठा
पत्तों पर लिखे हैं मैंने ख्याल
सिर्फ तेरे नाम ...
इन बूंदों की लकीरों को
तुम्हीं पढ़ सकते हो
तो सुकून है -
कोई अफसाना नहीं बनेगा .

.... प्यार में अफसानों का भय नहीं
पर कोई उन पत्तों को चीर दे
यह गवारा नहीं ...

इतिहास गवाह है मेरी ख़ामोशी का
होगा गवाह मेरी ख़ामोशी का
पर ....
अब तुम नहीं कह सकोगे
कि
तुम्हारी ख़ामोशी के आगे मैं क्या कहता !!!

क्योंकि मैंने लिख दिया है पत्तों पर
रख दिया है पत्तों पर
छोटे छोटे ओस से ख्याल !

14 नवंबर, 2011

पतिव्रता (?) नारियाँ !



दो तरह की पतिव्रताएं देखने को मिलती हैं ....
एक - जो पति का जीना हराम रखती हैं
जीभर के गालियों से नवाजती हैं
हिकारत से देखते हुए
तीज और करवा चौथ करती हैं
चेहरा कहता है भरी महफ़िल में कि" मान मेरा एहसान .
जो मैं ये ना करूँ तो लम्बी आयु को तरस जाओगे ..."
और इस कमरे से उस कमरे गाती चलती हैं -
" भला है बुरा हैजैसा भी है , मेरा पति मेरा देवता है "
और इस तर्ज के साथ कई पति गुल !
...........................................................
दूसरी - जो हर वक़्त नज़ाकत में कुछ नहीं करती ...
एक ग्लास पानी तक नहीं देती
पर लोगों के बीच कहती हैं ,
" चलती हूँ , इनके आने का वक़्त हो चला है
- दिन भर के थके होते हैं
तो उनकी पसंद का कुछ बनाकर
चाय के संग देना अच्छा लगता है ..."
और लम्बे डग भरती ये चल देती हैं
घर में पति के आते ये एक थकी हारी मुस्कान देती हैं
नज़ाकत की बेल का हाथ थाम पति पूछता है -
" अरे , क्या हुआ ? "
पत्नी एहसान जताती कहती है -
" कुछ नहीं , पूरे दिन सर भारी भारी लगता रहा है ...
खैर छोड़ो , चाय बनाती हूँ ..."
बेचारा पति ! सारी थकान भूल कहता है -
' नहीं मेरी जान , मैं बनाता हूँ " .....
चाय पीकर फिर बाहर चलने का प्रोग्राम बनता है
लिपस्टिक और लम्बी सी मुस्कान लिए
हिम्मत दिखाती ,प्यार जताती पत्नी चल देती है
और पति कुर्बान !
.......... असली पतिव्रता को कुछ भी दिखाने की ज़रूरत नहीं पड़ती , .... वे तो बस होती हैं !

12 नवंबर, 2011

जो चाहोगे वही मिलेगा !



मेरे पास है एक मासूम बच्चे सा मन
अनुभवों का आकाश
हौसलों से भरा विराट जादुई पंख
जिसे कितना भी काटो
वह खुद को पूर्ववत कर लेता है
मेरे पास हैं आम साधारण मंत्र
जो कभी भी
कहीं भी
तुम्हारी रक्षा कर सकते हैं
एकलव्य की आस्था
कर्ण की सहनशीलता, दानवीरता
अर्जुन की निष्ठा
प्रह्लाद सी निडरता
छलरहित दिमाग
गलत विरोधी कदम
सच कहने का अदम्य साहस ......
इस नज़रिए को ज़िन्दगी बना लो
तो सही मायनों में जी सकोगे
आँधियाँ कितनी भी आएँ - जूझ सकोगे ...
....
मैं ये नहीं कहती
कि आँखों से आंसू नहीं बहेंगे
यकीनन बहेंगे
.... वो ना बहे तो अन्दर की बेतरतीबी
सुलझेगी कैसे !

मैं ये भी नहीं कहती
कि रातों को जागोगे नहीं
यकीनन जागोगे
करवटें बदलोगे
.... ये न हुआ तो ठोस निर्णय
ले कैसे सकोगे ?

मेरे पास अनुभवों का एक खजाना है
जो कभी खाली नहीं होगा
तुम बस चाहना
....... जो चाहोगे वही मिलेगा !

10 नवंबर, 2011

जिसका डर था !



बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण ने
हमेशा मेरा आह्वान किया
मेरे विरोध से बेखबर
मुझे वह स्थल दिखाया
जहाँ ज्ञान मिला ...
एक नहीं दो नहीं ...कई बार
बुद्ध को मैंने प्रश्नों के भंवर में रखा
पर बुद्ध !
शांत स्मित लिए अनंत आकाश की तरह
भंवर से परे रहे ...
मैंने किंचित कटुता लिए भाव संग पूछा था ,
'क्या यशोधरा के मान का तुम्हें ख्याल नहीं आया ?'
आँखों में उद्दीप्त तेज भरकर बुद्ध ने कहा -
' मुझसे अधिक मान किसी ने रखा ही नहीं ...
एक एक पल में समाहित हमारा राहुल
यशोधरा की सांस बना , मकसद बना !
दुनिया क्या जानेगी , क्या पूछेगी
जो बात मेरे और यशोधरा के बीच थी !

जिस वक़्त मैं मोह की परिधि से निकला
उस वक़्त सारी दुनिया सो रही थी
पर यशोधरा जाग रही थी ....
मेरे ज्ञान मार्ग के आगे
वह विश्वास का एक दीया थी !
पति पत्नी की अवधि वहीँ तक थी
उससे आगे हम सहयात्री थे
मैं प्रत्यक्ष था , वह परोक्ष ....
बस यही एक सत्य था '
......
सोते जागते कोई अज्ञात स्वर मुझे बुलाता है
मोह से परे एक लम्बी सूक्ष्म पगडंडी दिखाता है
चौंकती हूँ ,
रोम रोम से एक ही गूँज अनुगूँज ...
' बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि ....'
और मैं
आखिर वही हुआ
जिसका डर था !!!.....
यशोधरा का रूप लिए
निर्वाण यज्ञ को उद्धत होती हूँ !

09 नवंबर, 2011

किताबों वाला प्यार



किताबों के सफ़र में मिले थे
लैला मजनू, शीरी फरहाद , हीर रांझा , सोहणी महिवाल
एडवर्ड सिम्पसन , अमृता इमरोज़ ....
.......
इंतज़ार , ख्याल, मनुहार ....
सब किताबी
जीवन में उतर गए थे !
सपने जो जागती आँखों में उतरते थे
माशाल्लाह - यथार्थ से परे थे !
आँखों को तिरछे घुमा
आईने में सलीम को बैठा
पूछती थी -
'हुजुर एक न एक दिन ये बात आएगी
कि तख्तो ताज भली है कि एक कनीज भली ?'
पानी में कंकड़ डालने से ज्यों पानी हिलकर स्थिर हो
उसी तरह आईने में सलीम को हटा एडवर्ड की छवि कहती
'मैं तख्तो ताज को ठुकरा के तुझको ले लूँगा ...'
और फिर आँखें
प्यार के समंदर से लबालब हो उठतीं
होठों पर एक ही पंक्ति होती -
'इंतज़ार और अभी और अभी और अभी ...'
....
जब जरा सा लगा कि प्यार है
झटके से हाथ झटक कटु शब्द गूंजे -
' ज़िन्दगी कोई सिनेमा नहीं
न किताब के दिलचस्प पन्ने हैं
रोटी दाल के भाव के आगे
ये सब चोचले हैं '.......
टप्प से आंसू की एक बूंद गिरी
' न हन्यते ' का मिर्चा मेरे ख्यालों से जाए तो कैसे !
दिल ने बहस किया दिमाग से -
' अगर इन ख्यालों में सच्चाई नहीं
तो ये सारे पात्र आए कहाँ से ? '
........
किसी भी किताब का कोई एक पन्ना मिल जाए
-की धुन में
रास्ते अकेले रहे !
........
पन्नों से निकलकर मिली थी इमरोज़ से
- ओह !
ऐसा ही तो चाहा था मैंने
मेरी तस्वीरों से
मेरी हँसी से
मेरे एहसासों से
कोई अपने कमरे की दीवारों को
चाहतों के रंग से भर दे ...!
बिना संगीत के मैंने वहाँ मौन सरगम सुने
पायल की रुनझुन सुनी
खाली कप से एहसासों का उठता धुंआ देखा
अमृता ना होकर भी
हर सू दिखी
अतीत का वर्तमान ...
प्यार के किताबी पन्नों सा फडफडाता मिला
...
मैं फिर सोचने लगी ...
कहीं तो होगा कोई पन्ना प्यार का
जिसमें उसके साथ मेरा भी नाम होगा
दुनिया पढेगी
और कोई लड़की एक ख्वाब देखेगी
मेरी तरह -
किताबी प्यार का !!!

....

05 नवंबर, 2011

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है..



अजब है ये दुनिया !!! आप किसी को भी आदर्श नहीं बना सकते ... यकीनन मैं भी दुनिया में हूँ , पर एक बात स्पष्ट कर दूँ - जब आदर्श हो या प्रेम हो तो उसके गुण भी अपने, अवगुण भी अपने , अन्यथा आप हम ज़िन्दगी को प्याज के छिलकों की तरह इस्तेमाल करते रह जायेंगे . हम सब जानते हैं कि कोई भी परफेक्ट नहीं होता , पर यदि वह परफेक्ट किसी को मिल जाता है तो आप हम अपना सारा काम छोड़कर उस प्राप्य्कर्ता को यह सिद्ध करने में जुट जाते हैं कि वह पहले कैसे परफेक्ट नहीं था !
किसी से आपकी ना बनती हो तो बात समझ में आती है , पर जिनसे आपके कोई ताल्लुकात नहीं .... उनके अनजाने पन्नों को क्यूँ खोलना ! और यदि खोला तो मुहर कैसे मार दी बिना सोचे समझे ? थोड़ी अक्ल लगाईं होती , नज़रें घुमाई होती ... नहीं , 'कौआ कान ले गया ' सुनते दौड़ पड़े और फिर बड़ी शिद्दत से लिख दिया - ' हम बेखुदी में तुम्हें सोचते रहे ... कौआ कान ले गया !'
आप सोच रहे होंगे ये असली माज़रा क्या है .... मैं भी सोच रही हूँ कि मैं खामखाह इधर उधर क्यूँ कर रही हूँ !

एडवर्ड का नाम आपने भी सुना होगा , जिसने सिम्पसन के प्यार में इंग्लैण्ड का राज्य त्याग दिया ! बहुत छोटी थी , जब माँ ने यह कहानी सुनाई और तब से एक अनजाना चेहरा मेरे पूरे वजूद में चलता रहा . रोमांच होता रहा सोचकर , सिम्पसन ने मना किया लेकिन एडवर्ड ने सिम्पसन के आगे राज्य को तुच्छ बना दिया . ........................................ प्यार सही मायनों में यही है - आत्मा यहीं , परमात्मा यहीं , नैसर्गिक संगीत यहीं .
मेरी कलम में इतनी ताकत नहीं कि एडवर्ड और सिम्पसन को शब्दों में ढाल सके ! नाम लें या प्यार कहें - यह एक एहसास है सूर्योदय की तरह , चिड़ियों के घोंसले से झाँकने की तरह , मंद हवाओं की तरह , सघन मेघों की तरह , रिमझिम फुहारों की तरह, मिट्टी की सोंधी खुशबू की तरह , गोधूलि की तरह, सूर्यास्त , रात , समुद्र की लहरें , ओस , पपीहे की पुकार , शनैः शनैः फैलती ख़ामोशी में एक मीठी खिलखिलाहट , प्रतीक्षित आँखें , बोलती आँखें , तेज धड्कनें , मौन आमंत्रण , मौन स्वीकृति , ............ जिस उपमा में महसूस करें - प्यार है तो बस है .
फिर भी एक कोशिश की चाह ने कहा - कुछ भी कहो, पर कहो , क्योंकि तुम्हारे अन्दर एक एडवर्ड और सिम्पसन अंगड़ाई लेते रहे हैं और प्यार ही प्यार को कोई रंग दे सकता है सातों रंगों के मेल से ..... मुझे इस सच से इन्कार नहीं कि इस आठवें रंग ने ही मुझे चलाया है ... जब प्यार की बातें होती हैं वहाँ मेरा साया होता ही है .
लिखने को तत्पर हुई तो सोचा - कुछ और पढूं .... तो पढ़ा , एडवर्ड को प्यार करने की आदत थी , वे एक दिलफेंक इन्सान थे .... सिम्पसन से पहले वे शादीशुदा रईस महिला और दो बच्चों की मां फ्रिडा डडले वार्ड के प्रेम में पागल थे और उन्हें पाना चाहते थे !.... पढकर लगा कि जब सोच संकीर्ण हो तो वहाँ बातों का रूप कितना हास्यास्पद हो जाता है .
कम उम्र हो या अनुभवी उम्र ही सही - प्रेम और आकर्षण में फर्क होता है. आकर्षण में भी वही ख्याल उभरते हैं , जो प्रेम में उभरते हैं , पर आकर्षण में ठहराव नहीं होता , न आस्था , न निष्ठा ..... वह रेतकणों की तरह निर्धारित समय पर मुट्ठी से फिसल जाता है . एडवर्ड का राज्य त्याग यदि सिम्पसन के लिए तठस्थ रहा तो फ्रिड़ा डडले वार्ड के लिए क्यूँ नहीं हुआ ? - यह प्रश्न ही उत्तर है !
पूरी ज़िन्दगी सिम्पसन के साथ प्यार में निभानेवाले एडवर्ड से एक बार उनकी कहानी पर फिल्म बनाने की अनुमति लेने लोग गए तो एडवर्ड ने इन्कार कर दिया . उनका कहना था - कि जिस प्यार को उनदोनों ने जिया है , उसे वे कैमरे में नहीं कैद कर सकते और कुछ यूँ हीं देखना उन्हें गवारा नहीं होगा ... तो बेहतर है उनके नहीं रहने पर ही यह कोशिश हो .
प्यार को सम्मान नहीं दे सकते तो चुप रहो .... पर सिर्फ निरादर के ख्याल से (?) किसी का नाम न उछाला जाए तो बेहतर है . एडवर्ड और वार्ड के अधकचरे ज्ञान पर कुछ भी कहने से पहले यह सोचना होगा कि जिस एडवर्ड ने राज्य त्याग दिया ( जो आम बात नहीं ) उसने वार्ड से किनारा क्यूँ कर लिया . आलोचना सोच समझकर हो तो सही है ....
मुझे तो आज भी इस कल्पना मात्र से रोमांच होता है कि उस समय इंग्लैण्ड में कैसी लहर उठी होगी ... सिम्पसन की गति ....... ओह ! आसान नहीं एडवर्ड होना ... यही पंक्तियाँ सही लगती हैं -
ये इश्क नहीं आसान इतना ही समझ लीजिए, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है..









02 नवंबर, 2011

असत्यमेव जयते



सच हमेशा झूठ के कटघरे में रहता है !
सच का वकील बहुत कमज़ोर होता है
उसका कोई नाम नहीं होता
दम्मे के मरीज़ की तरह
वह हक़ हक़ दलीलें देता है
और फिर रिक्शे से घर लौट जाता है
मद्धम रौशनी में
क़ानूनी किताबें पलटता है ...
और दुबले पतले डरे सहमे गवाहों से
कुछ बातें कर सो जाता है ...
ताउम्र कैद
चेहरे पर बेनामी झुर्रियां
या फिर तारीख से पहले फांसी ...
.............
सही वकील तो झूठ के साथ ऐप्पल दिखता है
चेहरे पर रुआब
लम्बी सी गाड़ी
तिरछी निगाहें बताती हैं
' असत्यमेव जयते '
अनजाने चश्मदीद गवाह की भी अपनी
आन बान शान होती है
गुनहगार बेफिक्री की नींद सोता है
कानून की अंधी देवी के तराजू का पलड़ा
नोटों से झुका रहता है
सच ठन ठन गोपाल बना
कुल्हड़ की चाय संग खींसे निपोरे रहता है
जय जयकार उसी की होती है
हस्ती उसीकी होती है
जो झूठ को सच बनाता है
और सच का तर्पण डंके की चोट पर करता है
यह कहते हुए ...
'असत्यमेव जयते '

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...