20 दिसंबर, 2018

अति का विश्लेषण ज़रूरी है




जब मेरे वजूद में
वसुधैवकुटुम्बकम की भावना थी
सबके लिए अपनी थाली से
बराबर बराबर कौर निकालती थी
एक तिनके से सत्य को भी
खुलकर बताती थी,
सब मौन थे !
उनके मेरे मध्य
खाई जैसा फर्क है ...
यह उन्होंने आँखों से समझाया ।
मैं मूर्ख,
समझते हुए भी
बराबर बराबर कौर निकालती रही,
नारायण स्तब्ध !!
उन्होंने मेरे आगे से
मेरी थाली खींच ली,
दिल-दिमाग में,
सम्पूर्ण रक्त कोशिकाओं में
उन्होंने तांडव किया,
मेरी बेमानी सहजता के
कई मंच तोड़ दिए
...
पाँव स्थिर करने में
वक़्त लगा,
धरती का मजबूत कोना
स्वयं नारायण ही रहे,
लेकिन मौन, बंजर सा रूप लिए ।
साथ तो हम पहले भी थे
अब ज्ञात है ।
संसार अर्थात नारायण
नारायण अर्थात मोक्ष ...
मोक्ष,
प्रेमहीन नहीं
मोह से मुक्त
रोटी के उतने ही टुकड़े करो,
जितने भूखे हैं,
जो तृप्त हैं,
और और की रट में हैं
उनको कौर बढ़ाना
अन्न का अपमान है
जो अपने अपमान से ऊपर है ।
कोशिश
और अति में अंतर होता है
और वही तूफ़ान लाता है
तूफ़ान को दोष देने से पूर्व
अति का विश्लेषण ज़रूरी है ।

11 दिसंबर, 2018

मेरी उपस्थिति तुम्हारा सम्बल बने




डॉक्टर के आले की तरह
मैं तुम्हारी धड़कनें टटोलती हूँ
बीपी मशीन की तरह
रक्तचाप देखती हूँ ...
मैं निर्विकार किसी क्षण नहीं होती,
किसी शून्य में आँखें टिकाकर,
उन ठोकरों को घूरती हूँ,
जिन्होंने तुम्हें ठेस पहुँचाई !
नहीं,नहीं
मैं उनको कोई शाप नहीं देती,
इसलिए नहीं
कि मैं दे नहीं सकती ...
एक माँ कुछ भी कर सकती है,
लेकिन,
मैं इन कमज़ोर क्षणों से
स्वयं को मुक्त करती हूँ
ठोकरों की शुक्रगुज़ार होती हूँ,
जिन्होंने तुम्हें दर्द दिया,
रुलाया,
लेकिन एक सबक दिया ।
माँ अ से अनार सिखला सकती है,
चलना सिखला सकती है,
किसी ग़लती पे कान उमेठ सकती है,
रात भर तुम्हारे लिए करवटें ले सकती है,
सपनों में भी दुआ कर सकती है,
पर मन के आगे,
जीवन के आगे,
अपने अनुभव ही श्रेष्ठ होते हैं ।
संवेदनाओं से इतर,
चोट अपनी होती है,
महसूस करने
और सहने में फ़र्क होता है
और यही फ़र्क
कभी मौन देता है,
कभी बचपन की अहमियत बताता है,
कभी सूक्ष्म रहस्यों के जंग लगे दरवाजों को
खोल देता है,
...
हाँ मैं माँ,
उन रहस्यों की धुंध में
तुम्हारे साथ होती हूँ,
बचपन की कहानियाँ सुनाती हूँ,
डबडबाई आंखों से,
हर्षातिरेक की स्थिति में
हरि का नाम लेती हूँ
ताकि 'हरि' पर तुम्हारा विश्वास रहे
और कुछ हद तक
मैं तुम्हारे अनुभवों की रास थाम सकूँ,
मरहम बनकर तुम्हारे दर्द को कम कर सकूँ,
और मेरी उपस्थिति तुम्हारा सम्बल बने ।

08 दिसंबर, 2018

कुछ ख्वाबों का अधूरा रह जाना ही अच्छा होता है




कई बार कुछ ख्वाब
प्रत्यक्षतः
रह जाते हैं अधूरे !
लेकिन ख्वाबों के उपजाऊ बीजों को सिंचना
मेरे रोज का उपक्रम है ।
हर दिन,
मिट्टी को हल्का और नम करती हूँ
बीज रखती हूँ,
और अंकुरित होती हूँ मैं ...
पौधा,
फिर वृक्ष,
उसकी शाखें
जाने कौन कौन सी चिड़िया
मेरे रोम रोम में चहचहा उठती है ।
कलरव मुझमें प्राण संचार करते हैं,
फिर से मिट्टी को हल्का
और नम करने के लिए ।
कुछ ख्वाबों का अधूरा रह जाना ही अच्छा होता है,
ताकि उनकी पूर्णता की पुनरावृत्ति
इस तरह हो,
और जीवंतता बनी रहे ।



06 दिसंबर, 2018

आमीन


कभी दर्द
कभी खुशी
कभी प्यार
कभी ख्वाब
मैं लिख लिया करती थी,
टूटे फूटे शब्द ही सही,
लगता था,
जी लिया दिन ।
एक दिन कुछ धुआँ सा दिखा,
और हवा के साथ पतंग की तरह उड़ते
कागज़ के कुछ टुकड़े
...जंल रहे थे मेरे एहसास,
जाने किस दिशा में उड़ रहे थे,
न मैं आग बुझा सकी,
न पकड़ पाई उन टुकड़ों को
खड़ी रही अवाक !
...
क्या सिर्फ अवाक ?
नहीं,
मेरी अवाक स्थिति ले रही थी संकल्प
किसी मन्त्र की तरह गूंज रहे थे ये वाक्य
"अपराध को सहते जानेवाला भी
अपराधी ही होता है ।
जो स्वयं की रक्षा नहीं कर सकता,
उसकी रक्षा ईश्वर भी कब तक करेंगे ।"
और मेरे सामने मेरा "मैं" बोल पड़ा,
बस ...अब बस ।
दर्द,खुशी,ख्वाब,प्यार
सब मेरे गले लग गए,
और कहा,
अब लिखो,
तब तक लिखो,
जब तक अग्नि तुम्हारे राख हुए शब्दों का रूप न ले ले,
जब तक हवाएं शब्द शब्द न बहने लगे,
जब तक दिशाएं प्रतिध्वनित हो
तुम तक न लौटें
और मैंने कहा,
आमीन ।

04 दिसंबर, 2018

जा तेरे शब्दकोश बड़े हों




कभी कभी मन करता है,
इसके उसके सबके शब्द चुरा लूँ
और अपनी भावनाओं के बालों को सुलझा
उन्हें क्लिप बना टांक दूँ !
कई बार धूल की तरह
उड़ती नज़र आती हैं भावनाएं,
जब तक समझूँ
आंखों में जाकर बेचैन कर देती हैं ।
कितनी सारी कोशिशें होती हैं
उन धूलकणों को हटाने की
लेकिन वे आँखों की गहरी नदी में
बना लेती हैं अपनी जगह
किसी और दिन बह निकलने के लिए
...
उस दिन के लिए मेरे पास शब्द होने चाहिए न
ताकि मैं उन कणों की गाथा लिख सकूँ !
कभी चुरा लूँ,
तो क्षमा कर देना
धूलकणों सी उड़ती मेरी स्थिति को
दे देना आशीष
कि जा तेरे शब्दकोश बड़े हों ...

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...