18 मई, 2016

उम्र के केंचुल से बाहर






जब कभी बारिश होती है
जब कभी रुपहले बादल नीचे उतरते हैं 
जब कभी चाँदनी धरती पर उतरती है 
उस उम्रदराज़ औरत के भीतर से 
एक छुईमुई लड़की निकलती है 
हथेलियों में भर लेती हैं बूँदें 
बादलों में छुप जाती है 
चाँदनी को घूँट घूँट पीती है 
मन की ख़ामोशी से परे 
वह बन जाती है शोख हवा  ... 
अल्हड़ सी 
नंगे पैरों खुली सड़क पर छम छम नाचती है 
ज़िन्दगी उसके बालों में 
बूंदों की घुंघरुओं सी खनकती है 
अपनी सफ़ेद लटों को 
चेहरे पर लहराते हुए 
वह खुद में शायर बन जाती है !

कभी सुनना उसके घर की बातें 
शायरी सुनते हुए उसकी माँ कहती है 
- "हाँ तो अभी तुम्हारी उम्र ही क्या हुई!"
बड़े कहते हैं -
"तुम सबसे छोटी हो" 
और वह उम्रदराज़ औरत 
अपने बच्चों की उम्र की हो जाती है 
उसकी थकी आँखों में 
एक नन्हीं सी बच्ची खिलखिलाती है 
और फिर घंटों अपने मन के आँगन में 
वह खेलती है कंचे 
इक्कट दुक्कट 
डेंगापानी
कबड्डी - आइसबाइस 
डाक डाक - किसकी डाक !

उम्रदराज़ सहेलियाँ भी 
उम्र के केंचुल से बाहर निकल आती हैं 
... 
नई, बिल्कुल नई हो जाती हैं 
ज़िन्दगी की तरह 
!!!!!!!!!

02 मई, 2016

कहो कृष्ण !!!




माना कृष्ण 
जो भी होता है वो अच्छे के लिए होता है 
पर जब होता है 
तब तो अच्छा कुछ भी नहीं दिखता 

एक नई स्थिति
नए रूप में 
उबड़खाबड़ ज़मीन पर 
नई हिम्मत से खड़ी होती है 
एक नहीं सौ बार गिरती है 
निःसन्देह,
उदाहरण तो बन जाती है 
पर कृष्ण 
उदाहरण से पूर्व जो वेदना होती है 
बाह्य और आंतरिक 
जो हाहाकार होता है 
वह असहनीय होता है 
... 
तुम ही कहो 
तुम्हारे साथ जो भी हुआ 
उसमें तुम्हारे लिए क्या अच्छा था ? 
गीता सुनाकर भी प्रश्नों के घेरे में हो !!!

यह प्रश्न अनुचित है कृष्ण 
"तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो"
तुम भी समझो 
पूरा गोकुल तुम्हारा था 
कर्तव्य अपनी जगह है 
पर चले जाना हाथ से सबकुछ  ... 
मन को बीमार कर देता है 
भीड़ में अकेला कर देता है !
अकेला होकर आदमी कितनी भी बड़ी बात कह दे 
पर अकेलेपन का दर्द 
उन्हीं बातों को दुहराता है 
जो चला जाता है !!!
ऐसे में 
इस बात की भी कोई ज़रूरत नहीं थी 
कि तुम 
अपने नाम से पहले राधा का नाम दो 
पर इसे देकर तुमने यही विश्वास दिया 
कि तुम राधा के पास हो 
रोने की ज़रूरत नहीं  ... 
फिर भी राधा प्रतीक्षित रोती रही 
तुम राधा को गुनते रहे  ... 
जाने देते इस नाम को 
... 

लाने का उपक्रम तो हम ही होते हैं न कृष्ण 
ऐसा नहीं होता 
तो ऐतिहासिक कहानियाँ नहीं होतीं !
सहकर बढ़ना नियति है 
एक दिन मृत्यु को पाना नियति है 
पर भूल जाना 
मान लेना कि अपना कुछ भी नहीं था 
संभव नहीं है 
जीतेजी जो सबकुछ भूल जाता है 
वह बीमार होता है 
उसे ठीक करने के लिए कई उपाय होते हैं 
... 
नहीं कृष्ण 
जो आज मेरा था 
वह कल किसी और का भी" होगा 
- मान सकती हूँ 
पर वह मेरा नहीं था, यह कैसे मान लूँ ?
क्या तुम देवकी के नहीं थे ?
यशोदा के नहीं थे ?
राधा के नहीं थे ? .... 
यदि यही सत्य है तो लुप्त कर दो कहानियाँ 
क्योंकि,
सारी कहानियाँ भी तो यहीं बनी थीं 
यहीं रह गईं 
फिर कहना-सुनना ही क्या है !
कहो कृष्ण !!!

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...