29 जनवरी, 2020

हम रोज थोड़ा मरते हैं थोड़ा जीते हैं




हम रोज थोड़ा मरते हैं
थोड़ा जीते हैं
इस थोड़े में हम बहुत कुछ करते हैं ।
कभी हम सूरज को भर लेते हैं
अपनी नन्हीं सी मुट्ठी में,
कभी अलगनी पर छाया को टांग देते हैं ।
बारिश की फुहारों से
चुराते हैं गीत
इंद्रधनुष की धुन पर
सुर बेसुर गुनगुना लेते हैं ।
ज़िन्दगी को किसी दिन
बिल्कुल जाया कर देते हैं
तो किसी दिन
उसे तह लगा सन्दूक में रख देते हैं
और किसी दिन उसे पैरों में बांधकर
कोलम्बस और वास्कोडिगामा बन जाते हैं
किसी वैज्ञानिक की तरह
प्रकृति को सूक्ष्मता से देखते हैं
तो किसी दिन
दार्शनिक की तरह
मन के भूलभुलैये में
उसकी उंगली पकड़ चलते हैं
और अनुभवों की छतरी बना लेते हैं ।
जीते मरते
मरते जीते
हम रोज कुछ बनाते हैं
मिटाते हैं
और संजोते हैं ...

21 जनवरी, 2020

ऐसे वैसे के पेशोपेश में भी । ...





मैं ही क्यों अर्से तक

रह जाती हूँ पेशोपेश में !
बिना किसी जवाब के
बड़बड़ाती जाती हूँ,
बिना किसी उचित प्रसंग के
मुस्कुराती जाती हूँ
जबकि सामनेवाले के पास
होती है गजब की तटस्थता,
स्याह कोहरे सी ख़ामोशी,
और सिर्फ अपनी खींची हुई लकीरें ।
...
अगर चाहती
तो मैं भी अपने आसपास
आत्मसम्मान की ऊंची
बाड़ लगा सकती थी
खींच सकती थी
एक लंबी लक्ष्मण रेखा
जिसके अंदर सिर्फ मैं होती
सिर्फ अपने लिए सोचती
एक सिले दिन की दीवार
उठा सकती थी
एक गहरी और खामोश
सर्द रात उकेर सकती थी
...
लेकिन,
मैं सही मायनों में प्यार करती थी,
तभी तो जाने कितनी सारी नापसंदगी को
मुस्कुराकर पसंद मान लिया ।
चादर छोटी होती गई
और मैं मानती गई
- आकाश बहुत बड़ा है ।
शायद इसलिए
कि मैंने प्यार की कभी
खरीद फरोख्त नहीं की
पलड़ा किसी और का
मेरे आगे क्या भारी होता,
मैं किसी मोलभाव के तराजू पर,
चढ़ी ही नहीं ।
मन मानस से
अपने सपनों की अमीरी जीती रही,
जिसे देख कुछ लोग
इस अनुमान में कुछ दूर साथ चले
कि कोई तो खजाना होगा ही !
व्यवहारिक खजाना होता मेरे भी पास,
यदि मैं व्यवहारिक रूप से उसे समेटना चाहती,
पर मेरे सपने अनमोल थे,
प्यार को मैंने पैसे से ऊपर माना
... पर अब ।
अनगिनत ठेस के बाद
कई बार सन्देह में पड़ जाती हूँ,
क्या सच में पैसा हर सोच की हत्या कर देता है !
क्या हर भावना से ऊपर पैसा है !
फिर सोचती हूँ,
ना,
प्यार तो नियंता है !
अणु के जैसा
प्यार का एक छोटा सा ख्याल भी
सौ मौतों पर भारी पड़ता है
तभी ...... तो चलती रही हूँ
चल रही हूँ
ऐसे वैसे के पेशोपेश में भी । ...
क्योंकि जैसा भी हो
हर असमंजस
मुझसे कमतर,
मुझसे कमजोर,
मुझसे छोटा पड़ जाता है ।

15 जनवरी, 2020

एक सत्य - सत्य से परे



लड़कियों की ज़िन्दगी 
क्या सच में दुरूह होती है ?
क्या सच में उसका नसीब खराब होता है ?
यदि यही सत्य है 
तो मत पढ़ाओ उसे !
यदि उसे समय पर गरजना नहीं बता सकते 
तो सहनशीलता का सबक मत सिखाओ 
यह अधिकार रत्ती भर भी तुम्हारा नहीं  … 
माता-पिता हो जाने से 
पाठ पढ़ाने का अधिकार नहीं मिल जाता 
ऐसा करके 
क्या तुम उसके अच्छे स्वभाव का 
नाज़ायज़ फायदा नहीं उठा रहे ? 

बेटी कोई बंधुआ मजदूर नहीं 
कि सिंदूर का निशान लगते 
उसके सारे हक़ खत्म कर दिए जाएँ 
या उसे न्याय की शरण में जाना पड़े !
न्यायालय हक़ दिलाये 
कितने दुःख 
और शर्म की बात है !

क्या हुआ ?
क्यूँ हुआ  ?
कौन है ? रिश्ता क्या है ?
इनमें से कोई प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं 
महत्वपूर्ण यह है कि तुमने कहा -
"दुर्भाग्य की प्रबलता है'  …! 
 यह दुर्भाग्य !!
तुमने ही बनाया है 
ईश्वर ने तो तुम्हें उसका भाग्य बनाया था 
लेकिन 
'थोड़ा और देखते हैं'
'इसके बाद सोचा है कहाँ जाओगी'
'ताली एक हाथ से नहीं बजती"
……… इतना विवेक और अनुभव बांटा जाता है 
कि दिमाग विवेकहीन,
शून्य हो जाता है । 

सामने कोई निरुपाय 
तुमसे तुम्हारी हथेली माँग रहा है 
तो प्रश्न की गुंजाइश कहाँ है ?
सीधी सी बात है 
या तो हथेली दो 
वरना कह दो - तुम इस लायक नहीं 
कि सहारा बन सको। 

ज़िन्दगी हमेशा कोई जीने का तरीका नहीं होती 
उस तरीके से बेदखल होकर 
जो दो वक़्त की रोटी 
और सुकून की नींद माँगे  
जिसकी प्राथमिकता यही हो 
उसके आगे नारे या भाषण व्यर्थ हैं। 

स्त्री-विमर्श का अर्थ यह नहीं 
कि तुम शाब्दिक गुहारों से पन्ने भर दो 
यह सब बाद में !

पहले 
किसी एक के आगे 
लौह दीवारों की तरह खड़े हो जाओ  
प्रश्न का एक तीर भी छूने न पाये 
यूँ ढंक लो 
बेबाक बोलने का मौका दो उसे 
उस दर्द को महसूस करो 
फिर उसे जीने का सबब दो !

कन्या भ्रूण हत्या जो करते हैं 
उनका सामाजिक बहिष्कार करो 
बेटी होने पर 
 जो मातम मनाते हैं 
उनसे दूर रहो  … 
वह कोई भी मामला व्यक्तिगत नहीं होता 
जो आपकी आँखों के आगे होता है 
आपके कानों को सुनाई देता है !!!
यदि व्यक्तिगत है 
तो अपने घर जाओ,
खबरदार ! जो एक भी अनुमान लगाया 
या अपनी नसीहत दी !

लड़की बदनसीब नहीं 
बदनसीब तुम हो 
जो उसके साथ हुए दुर्व्यवहार से नहीं दहलते 
नहीं पसीजते 
उसे मारनेवाले से कहीं अधिक हिंसक तुम हो 
जो हर बार आगे बढ़ जाते हो 
लानत है तुम पर  !!!

12 जनवरी, 2020

एक चवन्नी



एक चवन्नी बोई थी मैंने,
चुराई नहीं,
पापा-अम्मा की थी,
बस उठाई और उसे बो दिया
इस उम्मीद में
कि खूब बड़ा पेड़ होगा
और ढेर सारी चवन्नियाँ लगेंगी उसमें
फिर मैं तोड़ तोड़कर सबको बांटूंगी ...
सबको ज़रूरत थी पैसों की
और मेरे भीतर प्यार था
तो जब तक मासूमियत रही
बोती गई -इकन्नी,दुअन्नी,चवन्नी,अठन्नी ... ।
फिर एक दिन,
मासूमियत ने हकीकत की आंधी चखी
बड़ा ही कसैला स्वाद था
ढूंढने लगी वह चवन्नी
जिसको लेकर
जाने कितने सपने संजो लिए थे ।
कहीं नहीं मिली वह चवन्नी,
जाने धरती ने उसे कहीं छुपा दिया
या फिर मैं ही वह जगह भूल गई
प्यार की तलाश में बड़ी दूर निकल गई ।
जीवन की सांझ है,
फिर भी यह यकीन ज़िंदा है
प्यार होता तो है
होगा कोई कहीं,
जो मेरी चवन्नियाँ को ढूंढ रहा होगा ...
एक
सिर्फ एक
खोई हुई चवन्नी मिल जाये
तो गुल्लक में डालके भूल जाऊँगी ...
और गुल्लक तो वह ढूँढ ही लेगा ।।

09 जनवरी, 2020

एक चुप्पी हलक में बेचैनी से टहलती है !




मेसेज करते हुए
गीत गाते हुए
कुछ लिखते पढ़ते हुए
दिनचर्या को
बखूबी निभाते हुए
मुझे खुद यह भ्रम होता है
कि मैं ठीक हूँ !
लेकिन ध्यान से देखो,
मेरे गले में कुछ अटका है,
दिमाग और मन के
बहुत से हिस्सों में
रक्त का थक्का जमा है ।
. ..
सोचने लगी हूँ अनवरत
कि खामोशी की थोड़ी लम्बी चादर ले लूँ,
जब कभी पुरानी बातों की सर्दी असहनीय हो,
ओढ़ लूँ उसे,
कुछ कहने से
बात और मनःस्थिति
बड़ी हल्की हो जाती है ।
बेदम खांसी बढ़ जाती है,
खुद पर का भरोसा
बर्फ की तरह पिघलने लगता है
और बोलते हुए भी एक चुप्पी
हलक में बेचैनी से टहलती है !

04 जनवरी, 2020

चेतावनी




धू धू जलती हुई जब मैं राख हुई
तब उसकी छोटी छोटी चिंगारियों ने मुझे बताया,
बाकी है मेरा अस्तित्व,
और मैं चटकने लगी,
संकल्प ले हम एक हो गए,
बिल्कुल एक मशाल की तरह,
फिर बढ़ चले उस अनिश्चित दिशा में,
जो निश्चित पहचान बन जाए ।
मैं  नारी,
धरती पर गिरकर,
धरती में समाहित होकर,
बंजर जमीन पर एक तलाश लिए,
मैंने महसूस किया,
इस धरती सी बनना है,
तभी समयानुसार हर रूप सम्भव है,
और मैंने धरती को प्रेरणास्रोत मान,
कई हथेलियों में मिट्टी का स्पर्श दिया,
कभी प्रत्यक्ष,
कभी कलम के माध्यम से,
कभी सपनों का आह्वान करके ...
जंगल की आग,
हमारा स्वर है - 
अट्टाहास किया
तो कान के भीतर चिंगारियां होंगी,
इसे हमारी चेतावनी समझ,
विकृत ठहाके लगाने से पूर्व,
हज़ार बार सोचना ।

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...