28 अप्रैल, 2011

तपस्वियों सी आस्था !!!



वह पल -
निःसंदेह
न आकर्षण था
न कोई गलत भावना
न बेवकूफी न नाटक ....
रात से सुबह तक
मेघ बरसते रहे
और हमदोनों हथेलियों में
सागर को भरते रहे !

न व्यर्थ का शर्माना था
न दिखावे की ललक
एक अविराम दीया
अनवरत हमारे मध्य जलता रहा....

रास्ते बदले
चेहरे बदले
बालों पर अनुभवों की सफेदी उतर आई
पर सोच नहीं बदली !
रात गए एक दीया हमारे मध्य
अदृश्य बना जलता ही रहा
कभी तुमने ओट दिया
कभी मैंने ...

पहाड़ टूटकर बिखर गए
न जाने कितने मौसम बदले
आग की तपिश थमी
पुरवा ने द्वार खोले ...
तब माना -
कितनी निष्ठा से प्रभु ख़ास रिश्ते बनाता है
किसी भी नाम से परे ...
चाहो तो कई नाम
ना चाहो तो बेनाम
पर तपस्वियों सी आस्था !!!

24 अप्रैल, 2011

प्यार है ... नहीं है



प्यार और व्यवहारिकता
दो अलग आयाम !
प्यार में व्यवहारिकता की
गुंजाईश नहीं होती
प्यार नंगे पाँव
अनंत दिशा में दौड़ता है
और बस कहता जाता है ...
भीग लो रिमझिम बारिश में
गर्म चाय की भाप के संग
हर निगाह से परे
पानी में छप छप दौड़ते
बेपरवाह गीत गाते
ठहाके लगाते
धरती से आकाश तक
सब हमारा है...
....
प्यार व्यवहारिक हो गया
तो फिर प्रश्न कैसा?
शिकायत कैसी ?
इंतज़ार कैसा ?
.... और यकीनन
वह प्यार नहीं !
...
प्यार तो बेमौसम बसंत होता है
उसके आगे तर्क क्या !
उसकी मर्जी
वह बादलों से पाजेब बनाता है
ओस से श्रृंगार करता है
तपती धूप में
पसीने में राग ढूंढ लेता है
प्यार व्यवहारिकता के लिबास से
सर्वथा अपरिचित होता है !
...
प्यार में खोना
खुद को पाना है
वह ना समझौता चाहता है
ना समझौता करता है
प्यार !
गन्दी नाली में नहीं बहाया जा सकता
ना अपशब्दों से नवाज़ा जाता है
इसकी उंचाई .....
हर कोई बचेंद्री पाल नहीं हो सकता है !
.......
प्यार शब्दों का खेल नहीं
और कटघरा तो बिल्कुल नहीं
जहाँ 'क्यूँ' आया
फिर ना घर तेरा ना घर मेरा सा सन्नाटा होता है
ताश के पत्तों की तरह सारी सोच
भरभराकर गिर जाती है
ज़िन्दगी होती ही कितनी लम्बी है !!!
प्यार है तो है
नहीं तो नहीं .... चाहे जितनी लम्बी हो !

20 अप्रैल, 2011

आशीर्वचनों का महाग्रंथ



माँ ...
हवा , बादल , धूप , छाँव
बच्चों के लिए पूरी प्रकृति
अपने आँचल में समेट
एक धरोहर बन जाती है ...
जब सारी दिशाएं प्रतिकूल होती हैं
माँ लहरों के विपरीत
संभावनाओं के द्वार खोलती है
... माँ शब्द में ही
एक अदृश्य शक्ति होती है
माँ कहते ही
हर विपदा शांत हो जाती है
माँ लोरियों का सिंचन करती है
एक आँचल में
करोड़ों सौगात लिए चलती है
आशीर्वचनों का महाग्रंथ होती है

15 अप्रैल, 2011

जीवनक्रम



तुम अटल पर्वत
मैं धरती ...

जब पानी वेग के साथ
चोट पहुंचाती
धृष्टता से
मेरी मिट्टियों को बहाने लगती है
मेरी आँखें निर्निमेष
तुम्हें देखती हैं ...
वही वेग तो तुम्हारे ऊपर भी है ...
पर तुम !
शांत स्थिर
आँखें मूंदे
अभिषेक की मुद्रा में
उस वेग की तीव्रता को
मुझतक नहीं पहुँचने देते
शिव की जटा सदृश्य
उसे अपनी अदृश्य जटाओं में
भर लेते हो ! -
मैं तो स्वतः
धरती से गंगा की पावनता में
ढल जाती हूँ
सागर की यात्रा पूरी करती हूँ
....
सागर के मध्य
तुम्हारे ही पदचिन्ह मुझे मिलते हैं
जिनको छूकर यात्रा पूरी होती है
जीवनक्रम की ....

08 अप्रैल, 2011

व्यवहारिक



रिश्तों की मौत हुई...
चार कांधा देने को भी
कोई तैयार नहीं !
प्रत्यक्ष गवाह बन जाने की फिक्र ने
मौत से उदासीन कर दिया ...
शोक सभा में भी
कोई कितने दिन शामिल रहे
एक दिन की अतिरिक्त छुट्टी में
एक दिन की तनख्वाह कट जाती है !
अब यह भार
कौन वहन करे
कुछ और रिश्ते ही मर जायेंगे न
चलता है .....
मरना ही है एक दिन -
व्यवहारिक होकर सोचते हैं समझदार लोग !
रिश्तों में प्यार की जगह
व्यवहारिकता का घुन लग चुका है
क्या करें बिचारे लोग -
व्यवहारिक होना पड़ता है !!!

06 अप्रैल, 2011

शब्दों का रिश्ता शुरू करें



परिचय का सूत्र तुमने उठाया
बेशक कलम की नोक पर
अच्छा लगा था
तुम्हारे शब्दों की हरियाली पर
कुर्सी लगा - चाय पीना
तुमने शब्दों से भरे अपने सारे कमरे खोल दिए
कहीं नन्हें नन्हें कपड़े थे
कहीं तुम्हारी उतरी चूड़ियाँ
कहीं तुम्हारे अकेलेपन के औंधे ख्याल
कहीं झूठमूठ का इंतज़ार
कहीं सीलन
कहीं चीखते एहसास
कहीं सिकुड़े जज़्बात
कहीं स्वाभिमान की आहटें ...

जाने तुमने जाना या नहीं
मैंने तुम्हें दी थीं थपकियाँ
तुम्हारी चूड़ियों को पोछ
करीने से रख दिया था
नन्हें कपड़ों के मीठे ख्याल
तुम्हारे सिरहाने रख दिए थे
तुम्हारे ख्यालों को अलगनी पे टांग
खिड़कियाँ खोल सीलन दूर किया
तुम्हारी चीख को जेहन में भर लिया
....
तुम्हारे स्वाभिमान की कीमत
तुमसे अधिक
या मुझसे अधिक कौन समझ सकता है
अपने स्वाभिमान की रक्षा में
मैंने शब्दों को जिया है
और शब्दों की कॉल बेल ही लगा रखी है
तभी - मेरे घर में किसी के आने की
सीमित आहटें हैं
... बढ़ाओ दोस्ती का हाथ
भरोसा करो मुझ पे
कॉल बेल लगा लो शब्दों का
आहटों को सीमित कर लो
फिर देखना
शब्दों के मंजर खूब खिलेंगे
और उनकी खुशबू
तुम्हें नई पहचान देगी
आओ शब्दों का रिश्ता शुरू करें !!!

04 अप्रैल, 2011

नन्हें सूटकेस की तलाश

०४ अप्रैल २०११ को प्रकाशित रश्मि प्रभा व नीलम प्रभा की कविता की चर्चा
http://urvija.parikalpnaa.com/2011/04/blog-post_04.html





सारे समान बिखरे पड़े हैं
सुबह से उस नन्हें सूटकेस की तलाश जारी थी
जिसमें कुछ एहसास थे
कुछ मुस्कान थी
कुछ रूठना था
कुछ शर्मीलापन था
कुछ इंतज़ार था
कुछ इशारे थे
कुछ गीत थे...........

आज सबको करीने से सजा दिया है
आँचल से उनके चेहरे को पोछा है
चूमा है
और कहा है धीरे से
'अब साथ रहना
मेरी आँखों के आगे रहना'
मुझसे दूर मत जाना '
....
चिर परिचित गर्माहट अब मेरे साथ है !

02 अप्रैल, 2011

कल्पनाशील इन्सान



जब दिशाएं खामोश होती हैं
दूर दूर तक
कोई नज़र नहीं आता
तो इच्छा शक्ति
सरगम के बोल तैयार करती है
और हर दिशा से
खुद गाती है ...
कल्पनाशील इन्सान
कितना भी अकेला क्यूँ न हो
जानवर नहीं बनता
उसकी कल्पनाएँ उसे अदभुत बना देती हैं !

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...